मरु नवकिरण (अप्रेल-जून 2019) लघुकथा विशेषांक
सम्पादक: डॉ. अजय जोशी
अतिथि सम्पादक: डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा
समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
मरुधरा पर गिरने वाली पहली अरुण किरण से ही बालू मिट्टी के अलसाए हुए कण रंग परिवर्तित कर चमकने लगते हैं। तब वे अपने आसपास के घरोंदों को भी रक्त-पीत वर्ण का कर उन्हें मरू के स्वर्ण मुकुट सा दर्शाते है और देखने वालों की आँखें हल्की चुंधियाना प्रारम्भ कर देती हैं व उन्हें मन ही मन मरूधरा की गर्मी का अनुभव होने लगता है। सोचें तो यही कार्य लघुकथा का भी है कि अपनी आधार के मर्म तक पहुँचते-पहुँचते पाठक का मस्तिष्क ज़रा सा चौंधिया जाये और वह एक विशेष तथ्य की तरफ चिंतन प्रारम्भ करे। मरु नवकिरण का यह अंक भी इसी प्रकार की लघुकथाओं से भरा हुआ है। डॉ. अजय जोशी के सम्पादन और डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित मरु नवकिरण (अप्रेल-जून 2019) लघुकथा विशेषांक का आवरण पृष्ठ पाठक को प्रथम दृष्टि में ही स्वयं की ओर आकर्षित करने का सामर्थ्य रखता है, जिसमें प्रतीक स्वरूप छोटे-छोटे परिंदे अपने पंख फैलाये उड़ रहे हैं।
इस अंक के संपादकीय में डॉ. अजय जोशी बताते हैं कि इस अंक हेतु उन्होने 57 लघुकथाओं का चयन किया है, हालांकि वे चाहते थे कि इससे अधिक लघुकथाएं भी स्थान पा सकें, लेकिन पृष्ठों की सीमित संख्या के कारण वे कुछ अन्य लघुकथाओं को स्थान नहीं दे पाये। अतिथि संपादकीय में डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा लघुकथा को परिभाषित करते हुए अपने विचार रखते हैं कि लघुकथा आंतरिक सत्य की सूक्ष्म और तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है जो पाठक की चेतना को झकझोरती है तथा यह आज के व्यस्त जीवन में पाठक को कम समय में अधिक प्रदान करने की क्षमता रखती है। यहाँ पर मेरा भी एक विचार यह रहा है कि लघुकथा के कम समय चूंकि लघुकथा के आकार के साथ सीधे आनुपातिक इसलिए उसका आकार (शब्द संख्या के अनुसार) कितना हो इस चर्चा में पाठकों का मत भी शामिल होना चाहिए। आज यदि लघुकथा नवप्रयोगों के साथ-साथ शब्द संख्या के अनुसार पुराने आकार में वृद्धि कर रही है तो यह जानना भी चाहिए कि लघुकथा विधा द्वारा “व्यस्त जीवन में कम समय में अधिक प्रदान करने की क्षमता” में कहीं कमी तो नहीं आ रही! प्रत्येक प्रयोग में उसकी शक्ति के साथ-साथ दुर्बलता, अवसर और चुनौतियों का विश्लेषण करना भी आवश्यक है और यदि हम इस प्रयोग में सफल रहते हैं तो वह निःसन्देह बहुत अच्छी बात है।
इस लघुकथा विशेषांक का एक आकर्षण चार लेख भी हैं। जिनमें से प्रथम डॉ. रामकुमार घोटड़ द्वारा लिखित “हिन्दी लघुकथा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य” है, जिसके जरिये वे हिन्दी लघुकथा के मूल आधार व दिशा बोध के बारे में बताते हैं और साथ ही यह भी मानते हैं कि लघुकथा का जन्म स्वतः ही हुआ होगा। कोई रचना विस्तार नहीं पाने के कारण प्राकृतिक रूप से लघु आकारीय हुई होगी, जो समय के साथ लघुकथा विधा के रूप में समृद्ध हुई। डॉ. घोटड़ ने इसी लेख में लघुकथा के सफर को 1875 से प्रारम्भ होकर 2019 तक काल के चार भागों में बांट कर विस्तृत विश्लेषण किया है।
दूसरा लेख प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे का है उनके अनुसार लघुकथा का सार वास्तविक हालातों के कटु यथार्थ में छिपा है यह समसामयिक परिस्थितीयों, विडंबनाओं, विकृतियों, नकारात्मकताओं तथा प्रतिकूलताओं को सटीक, प्रभावी व प्रखर तरीके से अभिव्यक्ति प्रदान करती है। समय अभाव होने से बड़ी रचनाओं को ना पढ़ सकने के कारण इसके पाठकों में वृद्धि होने को प्रो. खरे भी इंगित करते हैं। एक अति महत्वपूर्ण बात वे बताते हैं कि लघुकथा जितनी छोटी हो उतनी ही प्रभावी होने की गुंजाइश है। हालांकि शिथिल कथ्य, नीरस प्रस्तुति तथा बिखरे हुए प्रवाह वाली लघुकथा असफल व निष्प्रभावी सिद्ध होगी।
तीसरा लेख बीकानेर के अशफाक़ कादरी का है जिसका शीर्षक है- वर्तमान लघुकथा के आलोक में: कुछ बिखरे मोती। इस लेख में उन्होने कहा है कि समसामयिक लघुकथा में व्यंग्य और हास-परिहास के बजाय संवेदना जागृत होती है जो आम जीवन के विरोधाभासों को प्रकाशित करती है। उनकी एक लघुकथा मार्ग भी लेख के पश्चात है, जिसमें एक दुकानदार शराब की दुकान का रास्ता नहीं बताता लेकिन हस्पताल का रास्ता विस्तार से बताता है।
चौथा लेख डॉ. लता अग्रवाल ने “लघुकथा में नारी पात्रो के सकारात्मक तेवर” शीर्षक से लिखा है। यह एक अध्ययन पत्र है जो डॉ. अग्रवाल की गहन शोध का परिणाम है। इस लेख में उन्होने वरिष्ठ और नवोदित कई लघुकथाकारों की लघुकथाओं को उद्धृत करते हुए यह ज्ञात किया है कि लघुकथाओं में स्त्री पात्रों की सोच बदलती जा रही है। लेख के पश्चात अपनी लघुकथा संतान-सुख में भी वे एक ऐसी स्त्री पात्र को पेश करती हैं जो मानसिक विकृत बच्चों को देखकर ईश्वर से यह शुक्र अदा करती है कि उसके बेटे भले ही नालायक हैं लेकिन अविकसित मस्तिष्क वाले नहीं।
हम में से जिसने विज्ञान पढ़ा है वे जानते हैं कि प्रतिक्षण नवकिरणें देने वाला प्लाज्मा से निर्मित सूर्य ठोस नहीं है और यह अपने ध्रुवों की अपेक्षा अपनी भूमध्य रेखा पर अधिक तीव्रता से घूमता है। इस तरह के घूर्णन को हम अंतरीय घूर्णन के नाम से जानते हैं। लघुकथाएं भी इसी घूर्णन की तरह ही हमारे अंतर में तीव्र घूर्णन स्थापित कर सकने का सामर्थ्य रखती हैं। इस विशेषांक की पहली लघुकथा इंजी. आशा शर्मा की कच्ची डोर है जिसमें वह पत्नी की व्यथा और अबलापन दोनों ही दर्शाती हैं। इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि पत्नी को पति की आवश्यकता होती ही है जिसे वह स्वीकारती भी है। अल्पना हर्ष अपनी रचना जीवन बगिया द्वारा बेटे-बेटी में भेद करने वालों पर तंज़ कसती है। डॉ. घनश्याम दास कच्छावा उपलब्धि शीर्षक की लघुकथा से पैतृक ज़मीन को बेचने पर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं तो कृष्ण कुमार यादव जी व्यवहार लघुकथा में एक ही (कथित तौर पर छोटी) जाति के नौकर और अफसर के साथ एक ही व्यक्ति के अलग-अलग व्यवहार को दर्शाते हैं। विजयानंद विजय जी ने अपनी रचना के शीर्षक पर अच्छा कार्य किया है। श्रमेव जयते शीर्षक से उनकी लघुकथा में हालांकि उन्होने एक आदर्श स्थिति का वर्णन किया है लेकिन यह धीरे-धीरे सत्य होती एक स्थिति है। तरुण कुमार दाधीच ने अपनी रचना में एक बलात्कार पीड़िता द्वारा अपने बचाव में भागने की स्थिति का वर्णन किया है। संदीप तोमर ने मानवेत्तर पात्रों के द्वारा दांवपेचों को दर्शाया है। पुष्पलता शर्मा ने समझ का फेर में कन्या दान तथा गौदान पर अलग-अलग व्यवहार पर प्रश्न उठाया है। डॉ. वीणा चूण्डावत ने प्रेम कहानी की असफलता को मार्मिक और कविता रूपी शब्दों से कहा है। विष्णु सक्सेना ने हस्पतालों की रोगी को ठीक करने के पहले धन कमाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष किया है। जाफ़र मेहँदी जाफरी ने मजबूरियाँ शीर्षक से अलग-अलग वर्गों की मजबूरीयों का वर्णन किया है। अलका पांडेय ने प्यार की इंतहा के जरिये धर्मवीर भारती की रचना रामजी की चींटी रामजी का शेर की याद दिला दी। राजकुमार धर द्विवेदी जी ने व्यक्तियों के दोहरे रूप दर्शाये हैं। डॉ. सुनील हर्ष ने चाटुकारिता पर व्यंग्य कसा है। कमल कपूर ने अपने चिरपरिचित सकारात्मक और खूबसूरत शब्दों में शादी के पश्चात भी लड़की द्वारा माँ की ज़िम्मेदारी उठाने जैसे विषय पर बढ़िया रचना कही है। गिरेबाँ लघुकथा में पुखराज सोलंकी ने बुराई करने की प्रवृत्ति पर तंज़ कसा है। इन्द्रजीत कौशिक सर्वे द्वारा सांप्रदायिक विद्वेष के एक बड़े कारण का पर्दाफाश करते हैं। राहुल सिंह ने अपनी रचना द्वारा बसों में होने वाली ठगी को दर्शाया है। रमा भाटी पर्यावरण सरंक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपने विचार रखती हैं तो वीरेंद्र कुमार भारद्वाज अपनी रचना के शीर्षक ठंडी रज़ाई को सफल सिद्ध करते हुए अलग-अलग रह रहे पति-पत्नी के वार्तालाप को दर्शाते हैं। अपनी एक रचना सपना में नरेंद्र श्रीवास्तव बालश्रम पर बात करते हैं तो दूसरी रचना नजरिया में एक ही व्यक्ति के प्रति दो अलग-अलग व्यक्तियों के अलग-अलग नजरिए को दर्शाते हैं। सतीश राठी की लघुकथा कुत्ता कई मायनों में बेहतर रचना है। एक व्यक्ति का अपने नौकर के प्रति दुर्व्यवहार और कुत्ते के प्रति प्रेम को दर्शाती यह लघुकथा अंत तक पहुँचते-पहुँचते पाठकों की चेतना जगाने में सक्षम है। संतोष सुपेकर अपनी मार्मिक रचना ऊहापोह के जरिये एक सब्जी वाले की मजबूरी का चित्रण करते हैं। डॉ. विनीता राहुरिकर छत और छाता लघुकथा के जरिये पाठकों को प्रभावित कर रही हैं। राममूरत “राही” तोहफे के रूप में प्राप्त फेंक दिये गए एक नवजात शिशु को पालने वाली माँ के मिल जाने को दर्शाते हैं। मोनिका शर्मा ने नई रोशनी के जरिये खराब हुए चेहरे का दर्द झेलती लड़की का वर्णन किया है, हालांकि इस रचना के और लघु होने की गुंजाइश है। डॉ. ऊषाकिरण सोनी नौकरानियों पर चोरी के झूठे इल्ज़ाम पर रचना कहती हैं। सविता मिश्रा “अक्षजा” ने अपनी लघुकथा में साहित्यकारों को पढ़ने की नसीहत देते हुए इसे ही साहित्यिक गुरु बताया है। दीपक गिरकर अपनी रचना के जरिये जीवन को सकारात्मक ढंग से जीने का संदेश देते हैं। डॉ. पद्मजा शर्मा ने अपनी रचना में किसानों की स्थिति का वर्णन किया है इसमें लेखक का स्वयं का आक्रोश स्पष्ट दिखाई दे रहा है। जय प्रकाश पाण्डेय अपनी रचना में गरीब और भूखे व्यक्ति के राष्ट्रपति बनने के स्वप्न को दर्शाते हैं, पात्र का नामकरण सटीक है, रचना पर और अधिक कार्य हो सकता है। मनीषा पाटिल धार्मिक पर्व पर सफाईकर्मी को मिले सोने की एक चेन के लिए कई महिलाओं की दावेदारी पर कटाक्ष करती हैं। विचित्र सिंह अपनी लघुकथा में पिता के जीवित रहते साथ-साथ और उनकी मृत्यु के पश्चात तुरंत अलग हो जाने पर तंज़ कसते हैं। नीलम पारिक ने अपनी रचना जा तन लागे... के साथ न्याय करते हुए ना केवल शीर्षक उचित रखा है बल्कि लघुकथा लेखन का निर्वाह भी यथोचित किया है। इसी प्रकार अभिजीत दुबे अपनी रचना भरोसा के द्वारा हम सभी को आश्वस्त करते हैं कि वे एक अच्छे लघुकथाकार हैं। सारिका भूषण अपनी रचना के जरिये गूढ संदेश देती हैं कि साहित्य में अच्छा लेखन आवश्यक है वनिस्पत बड़े नाम के। डॉ. मेघना शर्मा अपनी रचना में एक बच्चे द्वारा दूसरे बच्चे को डूबने से बचाने को दर्शाती हैं। नरेंद्र कौर छाबड़ा की नियति एक उत्कृष्ट लघुकथा का उदाहरण है। फ़रूक अफरीदी कथनी-करनी में अंतर की तर्ज पर लेखनी-करनी में अंतर पर अपनी एक रचना कहते हैं और दूसरी रचना चर्चित और हर्षित लेखक के जरिये वे वरिष्ठ साहित्यकारों को रसरंजन पार्टी देकर चर्चित होने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हैं। प्रेरणा गुप्ता अपनी लघुकथा श्रेष्ठ कौन में मानवेत्तर पात्रों के जरिये मानवीय विसंगतियों पर प्रहार करती हैं तो विश्वनाथ भाटी अपनी रचना के जरिये दहेज प्रथा पर। खेमकरण ‘सोमन’ एक उभरते हुए लघुकथाकार और शोधकर्ता हैं, अपनी लघुकथा जहरीली घास के द्वारा वे आश्वस्त करते हैं कि लघुकथा के लिए विषयों की कोई कमी नहीं केवल व्यापक लेखकीय दृष्टि होनी चाहिए।
मैं अधिकतर बार कोई भी लघुकथा पढ़ते हुए सबसे पहले उसके विषय पर ध्यान देता हूँ, मरु नवकिरण के इस अंक में कुछ लघुकथाएं पारिवारिक विषयों के विभिन्न तानों-बानों पर भी बुनी गयी हैं, जैसा कि आजकल के काफी लघुकथा विशेषांकों में दिखाई देता है। इनमें अर्चना मंडलोड की तुलसी का बिरवा, कमलेश शर्मा की कहानी, डॉ. शिल्पा जैन सुराणा की नई माँ, प्रो. शरद नारायण खरे की आत्मविश्लेषण, अनिता मिश्रा ‘सिद्धि’ की सोच बदलो, ओम प्रकाश तंवर जी दोनों साथ-साथ, बसंती पँवार की विचार और कर्म, एकता गोस्वामी की बुढ़ापे की लाठी-पेंशन, यामिनी गुप्ता की माँ की सीख और लाजपत राय गर्ग की बचपन का एहसास प्रमुख लघुकथाएं हैं। हालांकि पारिवारिक विषय अधिकतर पुराने होते हैं और रचनाएँ संदेश की बजाय सीख देती हुई हो सकती हैं, लेकिन सम्पादक द्वय ने अपना दायित्व निभाते हुए जो लघुकथाएं चयनित की हैं, उनमें से कई लघुकथाएं न केवल पठन योग्य हैं बल्कि चिंतन योग्य भी।
कोई भी प्रयास सौ प्रतिशत सम्पन्न हो जाये, ऐसा होना संभव नहीं। इस अंक में भी कुछ लघुकथाओं के शीर्षक पढ़ते ही पाठक को उपदेश का ही भान होता है जैसे सीख, विचार और कर्म, माँ की सीख, श्रेष्ठ कौन आदि। कुछ लघुकथाएं बोधकथाओं सरीखी हैं भी। इसी प्रकार कुछ शीर्षक ऐसे भी हैं जो पाठकों को रोचक नहीं लग सकते हैं अथवा उनके दिमाग में उत्सुकता नहीं जगा सकते हैं। लघुकथाकारों को न केवल पाठक वर्ग बढ़ाने के लिए बल्कि वर्तमान पाठक संख्या के अनुरक्षण के लिए भी शीर्षकों पर अधिक ध्यान देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। कुछ लघुकथाएं अंत तक पहुँचने से पूर्व ही अपने अंत का भान कर देती हैं तो कुछ लघुकथाएं ऐसी भी हैं कि जिनका अंत लघुकथा की प्रकृति के विपरीत निर्णयात्मक भी है। हालांकि इक्का-दुक्का रचनाओं को छोड़ दें तो अधिकतर लघुकथाएं संपादन के निस्पंदन के उचित सामर्थ्य को दर्शाने में सफल हैं।
कहीं-कहीं भाषा संबंधी त्रुटियाँ भी हैं। उदाहरणस्वरूप अंदर के सभी पृष्ठों में छपे हुए लघुकथा विशेषांक में लघुकथा के स्थान पर लघु कथा हो गया है। मनीषा पाटिल की रचना ईमानदारी में चेन की बजाय चैन शब्द आ गया है। मेरी अपनी रचना का शीर्षक E=MCxशून्य के स्थान पर शून्य प्रकाशित हुआ है, जो कि लघुकथा के साथ न्याय करता प्रतीत नहीं होता।
कई बार हम रेतीले गर्म रेगिस्तानी मैदानों को मरुस्थल मानते हैं जबकि मरुस्थल का अर्थ कम वर्षा वाला क्षेत्र है। बर्फ से ढका अंटार्कटिक दुनिया का सबसे बड़ा मरुस्थल है। हिमालय सरीखे ऊंचे पर्वतों को भी, जहां कम वर्षा होती है, को मरुस्थल माना गया है। कम वर्षा को यदि हम लघुवर्षा कहें तो न केवल शब्दों और मात्राओं से बल्कि गुणों से भी यह लघुकथा सरीखी है। लघु वर्षा धरती की प्यास तो शांत नहीं करती है बल्कि उसमें हो रही तपन को नमी बनाकर अपने आसपास के व्यक्तियों तक पहुंचा देती है। यही कार्य लघुकथा का भी है कि जिस विषय पर कही जाती है उस विषय की विसंगतियों को अपने पाठकों तक पहुँचा दे, और यही कार्य मरु नवकिरण के इस लघुकथा विशेषांक ने भी बखूबी किया है। कुल मिलाकर मुख्य सम्पादक और अतिथि सम्पादक दोनों का कार्य सराहनीय है।
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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी