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शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

लघुकथा लेखन में अनुवाद का महत्व | मनोरमा पंत | आलेख

विभिन्न भाषाओं के बीच अनुवाद का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। अनुवाद ने ही हमें विश्व के विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक मूल्यों से परिचित कराया है। आज हम अलग-अलग सभ्यताओं को एक-दूसरे के करीब पाते हैं, तो उसके पीछे अनुवाद की अदृश्य लेकिन अनिवार्य भूमिका रही है। भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश में, जहाँ 453 जीवित भाषाएँ, 270 मातृभाषाएँ और 1369 बोलियाँ प्रचलित हैं - वहाँ अनुवाद केवल भाषा नहीं, बल्कि संस्कृति, भाव और विचार का भी आदान-प्रदान है। वेद, उपनिषद, पुराण, पंचतंत्र, हितोपदेश जैसे भारतीय ग्रंथों की कथाएँ विभिन्न भाषाओं में अनुवादित होकर वैश्विक धरोहर बन गईं। वहीं ईसप की कथाओं जैसी पश्चिमी लघुकथाएँ भारतीय भाषाओं में लोकप्रिय हुईं।

लघुकथा अपनी संक्षिप्तता और सामाजिक तीव्रता के कारण आज के समय की माँग बन गई है। अनुवादक के माध्यम से यह विधा देश-विदेश में पहचानी जा रही है। तेजी से बदलते समय में कई भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं। ऐसे में अनुवादित लघुकथाएँ भाषाई धरोहरों को संरक्षित कर रही हैं। भारत में अब तक 42 भाषाएँ लुप्त हो चुकी हैं और 147 संकट में हैं।

जब देश में भाषा-आधारित राजनीति और टकराव बढ़ रहे हों, तब अनुवादित लघुकथाएँ भाषाओं के बीच संवाद का पुल बनती हैं। जैसे महाराष्ट्र में हिन्दी विरोध के बीच हिन्दी भाषी क्षेत्रों में मराठी और अन्य भाषाओं की लघुकथाओं का अनुवाद हो रहा है। अशोक भाटिया ने “रूसी लघुकथाओं का पुनर्पाठ”—टॉलस्टॉय, चेखव, गोर्की आदि—को हिन्दी में प्रस्तुत किया है। कल्पना भट्ट और संतोष सुपेकर ने हिन्दी लघुकथाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। बेबी कारफोमा और हीरालाल मिश्र ने बांग्ला लघुकथाओं का हिन्दी में अनुवाद किया है; वहीं हिन्दी लघुकथाओं का मराठी में अनुवाद मंजूषा मूले, डॉ. वसुधा गाडगिल, संतोष सुपेकर, उज्ज्वला केलकर और अंतरा करवड़े ने किया है। हिन्दी से नेपाली और नेपाली से हिन्दी में अनुवाद डॉ. पुष्कर राज भट्ट, रचना शर्मा और किशन पौडेल ने किया है। आशीष श्रीवास्तव ‘अश्क’ ने हिन्दी लघुकथाओं का उर्दू में, डॉक्टर रीना ने हिन्दी लघुकथाओं का मलयालम में, श्यामसुन्दर अग्रवाल और जगदीश राय कुलरियाँ ने हिन्दी लघुकथाओं का पंजाबी में, रजनीकांत एस. शाह ने हिन्दी लघुकथाओं का गुजराती में, मिन्नी मिश्रा ने हिन्दी लघुकथाओं का मैथिली में, रेखा शाह आर.बी. ने भोजपुरी में और हेमलता शर्मा ‘भोली बेन’ ने मालवी बोली में अनुवाद किया है।

योगराज प्रभाकर का अनुवाद के क्षेत्र में सराहनीय योगदान रहा है। वे हिन्दी लघुकथाओं का पंजाबी और उर्दू में अनुवाद करते ही हैं, साथ ही पंजाबी और उर्दू लघुकथाओं का हिन्दी में अनुवाद करने की दक्षता भी रखते हैं। हाल ही में योगराज जी का प्रकाशित “पंजाबी लघुकथा-संग्रह” चर्चा में है।

इन अनुवादकों की विशेषता यह है कि वे केवल शब्दों का अनुवाद नहीं करते, बल्कि मूल भाषा के भाव, उद्देश्य और शैली को आत्मसात कर दूसरे पाठकों तक पहुँचाते हैं। इससे अनूदित लघुकथाएँ न केवल पठनीय होती हैं, बल्कि प्रभावशाली भी बनती हैं। अनुवाद से भाषाई सौहार्द और एकता, विविधताओं में एकरूपता का अनुभव, अंतर-भाषायी समझ का विकास, संस्कृति और साहित्य का साझा बोध तथा नई भाषाओं और विचारों का साक्षात्कार होता है। जैसे-जैसे पाठक विभिन्न भाषाओं की अनूदित लघुकथाएँ पढ़ते हैं, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि दुख–सुख, संघर्ष और संवेदनाएँ सार्वभौमिक होती हैं। यही अनुवाद का सार है - भिन्न भाषाओं में एक जैसी मानवता को पाना।

अनुवाद किसी रचना के अर्थ, भावना और सांस्कृतिक बारीकियों को एक भाषा से दूसरी भाषा में सटीक रूप से संप्रेषित करने की प्रक्रिया है, जिसमें मूल पाठ की निष्ठा और लक्ष्य भाषा में सहज प्रवाह—दोनों का संतुलन आवश्यक है। इसके मूल में ‘समतुल्यता’, ‘सटीकता’, ‘प्रवाह’, ‘सांस्कृतिक अनुकूलन’ और लेखक के मूल आशय की समझ शामिल है। एक कुशल अनुवादक को मूल लेखक की शैली, बारीकियों और दोहरे अर्थों को समझकर उन्हें लक्ष्य भाषा में स्वाभाविक रूप से संप्रेषित करना होता है।

अनुवाद प्रक्रिया में अनुवादक मूल पाठ की भावनाओं को समझकर उसे लक्ष्य भाषा के अनुकूल, स्वाभाविक और सुंदर रूप में प्रस्तुत करता है। अनुवाद विभिन्न साहित्यिक कृतियों तक पहुँच को सुगम बनाता है और उनके इर्द-गिर्द के संवाद को समृद्ध करता है। अनुवाद सांस्कृतिक आदान-प्रदान, लेखक की पहुँच बढ़ाने, सहानुभूति उत्पन्न करने और मूल भाषा की बारीकियों को बनाए रखने में सहायक है। अनुवादक की भूमिका केवल भाषा का रूपांतरण नहीं, बल्कि लेखक की शैली और आशय को संरक्षित रखना भी है, जिससे रचना लक्ष्य भाषा में स्वाभाविक लगे। अनुवादक सांस्कृतिक और वैचारिक अंतर्दृष्टि प्रदान करके साहित्यिक विमर्श को समृद्ध करते हैं।

लघुकथा में अनुवाद न केवल भाषाओं का सेतु है, बल्कि साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सौहार्द का माध्यम भी है। आज के वैश्विक युग में, जहाँ संचार का दायरा व्यापक है, वहाँ लघुकथा जैसी संक्षिप्त और प्रभावशाली विधा का अनुवाद एक मूल्यवान साहित्यिक साधना है। यह न केवल भाषाओं को बचाता है, बल्कि उन्हें नई पीढ़ियों और नई सीमाओं तक भी पहुँचाता है।

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मनोरमा पंत  / 92291131 95

लेखिका परिचय:

भोपाल निवासी मनोरमा पंत समकालीन हिंदी साहित्य की सक्रिय और संवेदनशील रचनाकार हैं। उनका लघुकथा संग्रह "ज़िंदगी की अदालत में" और कविता संकलन "भाव सरिता" पाठकों द्वारा अत्यंत सराहा गया है। वे लघुकथा-संग्रह "उत्कर्ष" की सह-संपादक रही हैं और अब तक 15 से अधिक सांझा संकलनों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं।

समीक्षा-लेखन में भी वे समान रूप से सक्रिय हैं। उन्होंने बेताल पच्चीसी, ऋषि रेणु, भज मन, गुलाबी गलियां, मन का फेर, कलम बोलती है, मैंने देखा है, सूर्य देव सहित कई महत्वपूर्ण कृतियों की समीक्षाएँ लिखी हैं।

आलेख, लघुकथाएँ, पर्यावरण विषयक लेख और व्यंग्य उनकी प्रमुख लेखन विधाएँ हैं जो विविध पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं। साहित्यिक रुचि और विचार-गहराई के कारण उनका साक्षात्कार वर्ल्ड पंजाबी टाइम्स, जन सरोकार मंच, कथा दर्पण और वरिष्ठ फोटोग्राफर जगदीश कौशल द्वारा लिया जा चुका है।

मनोरमा पंत को उनके निरंतर और गुणवत्तापूर्ण लेखन हेतु अनेक साहित्यिक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

बुधवार, 8 दिसंबर 2021

लेख: 'लघुकथा : एक रोचक विधा' | नेतराम भारती

हर काल अपने पूर्वकाल से भिन्न होता है l हर काल की अपनी कुछ विशेषताएं तो कुछ समस्याएं होती हैं l उन विशेषताओं और समस्याओं को स्वर देने का कार्य साहित्य करता है l साहित्य ही उन्हें दिशा देता है, हवा देता है l और साहित्यकारों की जनमानस तक पहचान का माध्यम भी वही बनता है l इसके लिए हमेशा से ही कलमकारों ने अपने दायित्वों का निर्वहण कभी बेबाकी से, तो कभी, अत्यंत सतर्कता से किया है l और इसके लिए उन्होंने साहित्य की किसी न किसी विधा को अपने लेखन का आधार बनाया, फिर चाहे वह छन्दोबद्ध काव्य हो या पाठकों को झकझोरता गूढ़ गद्य l

वर्तमान समय में साहित्य की जिस विधा ने साहित्यकारों को सर्वाधिक आकर्षित और पाठकों के निकट पहुँचाया है और पहुँचा रही है, वह है लघुकथा l आज यदि यह कहा जाए कि सर्वाधिक साहित्य किस विधा में लिखा - छपा और पढ़ा जा रहा है तो निस्संदेह निस्संकोच रूप से कहा जा सकता है कि वह लघुकथा है l कारण, आकार में लघु होने के साथ ही कम समय में सुपाच्य और शीघ्र भाव - सम्प्रेषण हो जाता है l परिणामस्वरूप पाठक अथवा श्रोता को सहज ही रसानुभूति और भावानुभूति होती है जो एक नाटक, उपन्यास या लंबी कहानी में होती है l आज संचार और दृश्य - श्रव्य के रूप में मनोरंजन के साधनों की इतनी भरमार है कि पाठक, श्रोता अथवा दर्शक बस चैनल ही बदलता रहता है l वह ज्यादा समय एक स्थान पर रुकना ही नहीं चाहता l वह तो, कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा रोचक और उद्देश्य परक मनोरंजन जहाँ मिलता है, वहाँ जाकर रुकता है l और आज लघुकथा ने लुप्त होते जा रहे पाठकों को साहित्य की ओर मोड़ा है, रोका है तो इसके लिए वह बधाई की पात्र है l कुछ ही मिनटों में यदि वह कोई सीख, कोई तंज, कोई रहस्योद्घाटन, कोई विद्रूप यथार्थ, सभ्यता - संस्कृति अंधविश्वास, अनीति और भारतीयता की पहचान को उद्घाटित कर देती है तो, पाठक तो आकर्षित होगा ही l हाँ, विशेष बात यह है कि लघुकथा पढ़ने के बाद पाठक के मन में विचारों का एक सोता फूटता है जो उसे चिंतन - मनन के छींटों से भिगोकर तरो-ताजा करता है, क्योंकि एक अच्छी और प्रभावी लघुकथा जहाँ ख़त्म होती है वहीं से उसका अगला भाग पाठक के मानस में आकार लेने लगता है l

अब प्रश्न उठता है कि आख़िर यह लघुकथा है क्या? क्या यह एक छोटी-सी कहानी है?, क्या यह दादा-दादी की कहानियाँ हैं? लघु उपन्यास है, बोध - जातक कथाएँ हैं अथवा कुछ और?.. क्या हैं?

तो मैं बताता चलूँ कि लघुकथा उपर्युक्त वर्णित कथा - विधाओं से इतर अपने आप में एक स्वतंत्र पूर्ण विधा है जो क्षण - विशेष की घटना या प्रभाव को अभिव्यक्त करती है l यह कुछ वाक्यों से लेकर एक - डेढ़ पृष्ठ तक की हो सकती है l जहाँ तक इसके शब्द सीमा की बात है तो अभी तक लघुकथा के विशेषज्ञ - समीक्षक भी इसकी अंतिम और अधिकतम शब्द सीमा को लेकर एकमत नहीं हैं l फिर भी सामान्यतः जो एक राय बनती दिख रही है वह इसकी अधिकतम सीमा 350 से 500 शब्द तक होना मानती है l पर जिस तरह हर नाटक में उसका अपना रंगमंच निहित रहता है उसी प्रकार हर लघुकथा के कथानक में उसकी शब्द सीमा निहित रहती है l मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि किसी विसंगति पूर्ण क्षण - विशेष के प्रसंग या घटना या प्रभाव को कम से कम शब्दों में प्रभावी ढंग से कहना लघुकथा है, जिसमें लेखक को लेखकीय प्रवेश की अनुमति नहीं है, जिसमें कालखंड बदलने की इजाज़त नहीं है, जिसमें उपदेश देने की छूट नहीं है l छूट है तो उस 'अनकहे' की, जो कहा नहीं गया लेकिन लघुकथा में प्रतिध्वनित है l छूट है तो शब्दों की मितव्ययिता की, छूट है तो समस्या के समाधान की अनिवार्यता की l संवेदनाओं को झंकृत करना, थोड़े में अधिक कहना, सांकेतिकता, ध्वन्यात्मकता, बिम्बात्मकता, प्रतीकात्मकता आदि लघुकथा के प्रमुख तत्व कहे जा सकते हैं l संक्षेप में कहा जा सकता है कि कथानक, शिल्प, शैली, मारक पंक्ति (पंच), विसंगतिपूर्ण क्षण - विशेष, इकहरापन, भूमिकाविहीन, कालखंड दोष से रहित प्रेरक और सामाजिक महत्व को प्रकट करना लघुकथा के तत्व कहे जा सकते हैं l

इतना समझने के बाद इतना तो समझ आ ही जाता है कि लघुकथा - लेखन आम सामान्य लेखन नहीं है l लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसे लिखा ही न जा सके l सतत अभ्यास और सतर्कता बरती जाए और सिद्ध लघुकथाकारों की लघुकथाओं के अध्ययन - मनन किया जाए तो लघुकथा-लेखन में सफलता प्राप्त की जा सकती है l आजकल इन्टरनेट पर देश भर के अनेक लघुकथा को समर्पित पटल - मंच हैं, जो न केवल समय - समय पर लघुकथा-लेखन को प्रोत्साहित ही कर रहे हैं बल्कि देशभर के लब्धप्रतिष्ठ वरिष्ठ और प्रबुद्ध लघुकथाकारों के साथ लघुकथा पर गोष्ठियाँ आयोजित कर, नवोदित लघुकथाकारों को उनकी लघुकथाओं के वाचन, और उनकी समीक्षा द्वारा मार्गदर्शन, और प्रोत्साहन देने का मह्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं l कुछेक नाम देखें जा सकते हैं - ' लघुकथा के परिंदे', 'क्षितिज', 'कथा - दर्पण साहित्य मंच', ' साहित्य सम्वेद', 'लघुकथालोक' आदि आदि I

और जहाँ तक लघुकथा के वर्तमान प्रमुख हस्ताक्षरों की बात है तो श्री रमेश बत्रा जी, श्री जगदीश कश्यप जी, स्व. श्री सतीशराज पुष्करणा जी, श्री कृष्ण कमलेश जी, श्री भगीरथ परिहार जी, श्री सतीश दूबे जी, श्री योगराज प्रभाकर जी, श्री बलराम अग्रवाल जी, श्रीमती कांता राय जी, श्री संतोष सुपेकर जी, श्री चन्द्रेश छतलानी जी, श्री सुकेश साहनी जी, श्री कमल चोपड़ा जी, श्री सतीश राठी जी, श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी, डॉ. श्री अशोक भाटिया जी, श्री ओम नीरव जी, श्रीमती सुनीता मिश्रा जी आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं l और इनके लघुकथा पर विचार, इनके लघुकथा संग्रहों को पढ़कर लघुकथा को समझना - लिखना आसान होगा l

आख़िर में, इतना जरूर कहना चाहूँगा कि इक्कीसवीं सदी और आने वाली सदियों में लघुकथा एक स्थापित साहित्यिक विधा के रूप में और प्रतिष्ठा पायेगी, और प्रतिष्ठित होगी जिसकी शुभ शुरूआत हो भी चुकी है l हाल ही में अखिल भारतीय और प्रादेशिक स्तर पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने अकादमी पुरस्कारों में पहली बार लघुकथा को साहित्य के प्रतिष्ठित अकादमी पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल किया है जिसके अंतर्गत अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार एक लाख रुपये राशि का और प्रादेशिक लघुकथा पुरस्कार इक्यावन हज़ार रुपये राशि का निश्चित कर भोपाल के श्री घनश्याम मैथिल 'अमृत' जी को उनके लघुकथा संग्रह "... एक लोहार की " पर पहला जैनेन्द्र कुमार जैन पुरस्कार देने की घोषणा की l आशा है देश की अन्य राज्यों की साहित्य परिषद भी प्रेरित हों अपने यहाँ भी लघुकथा को शीर्ष साहित्यिक पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल करेंगी, क्योंकि अब लघुकथा की चमक को अनदेखा करना असंभव है l

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- नेतराम भारती

गाज़ियाबाद उत्तर प्रदेश


शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

लेख: क्या आप लघुकथा लेखक हैं? | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आप लघुकथा लेखक हैं! वाह! लेकिन कभी कोई कहानी या उपन्यास भी लिखा है? या सिर्फ आसान विधा तक ही...

इस तरह के या मिलते-जुलते प्रश्नों से, मेरे अनुसार, कई लघुकथाकार रूबरू हुए होंगे। इस प्रश्न के आधार में निहित प्रश्न यह भी है कि एक सुप्रसिद्ध विधा के लिए ऐसे प्रश्नों का उद्गम होता ही क्यों है? मेरे अनुसार शायद इसका एक कारण यह भी है कि लघुकथा जैसी श्रमसाध्य विधा में कितने ही व्यक्ति ऐसा (आसान) लेखन भी कर रहे हैं, जो लघुकथा होहो लेकिन उसे लघुकथा की संज्ञा ज़रूर मिल रही है। खैर, उन सभी को याद करने से अधिक आवश्यक यह है कि इस तरह के प्रश्नों का उन्मूलन आवश्यक है और आप एक लघुकथाकार हैं तो यह भी जानते हैं कि एक लघुकथा अपने पाठकों को रोमांचित कर सकती है, उन्हें वाह और आह कहने को विवश कर सकती है, सोचने के लिए प्रेरित भी कर सकती है, आक्रोश भी दिला सकती है और शांति भी। लेकिन अपवादों को छोकर, इस तरह के सृजन के लिए केवल कुछ घंटों की ब्रेनस्टॉर्मिंग पर्याप्त नहीं है। लघुकथा सहित किसी भी सृजन की सफलता जी कहो जी कहलाओ द्वारा या धन देकर प्रकाशित-प्रसारित होकर, यूट्यूब पर अपना ऑडियो-वीडियो डालकर ही नहीं है, बल्कि इस बात पर है कि सामान्य व्यक्तियों पर हमारी रचनाएँ कितना प्रभाव डाल सकती हैं? इस लेख में लघुकथा की सरंचना की बजाय एक अच्छी लघुकथा लिखने के लिए कुछ ऐसी युक्तियों पर बात की गयी है जो लघुकथाकारों के लिए उपयोगी हो सकती हैं, जिसे लघुकथाकार अपने सृजन को कुछ और बेहतर कर सकते हैं और प्रोत्साहित हो इस लेख की प्रथम पंक्ति में दर्शाये गये प्रश्न को उलट सकने का प्रयास भी कर सकते हैं

 

1. अवलोकन करते रहिए

 

किसी भी अन्य सृजन की तरह ही लघुकथा सृजन में भी लघुकथाकार की कल्पना-शक्ति की काफी बड़ी भूमिका है। सृजन के समय आपको पात्रों की कल्पना करनी होगी, उनकी व्यथा, उनके डर, उनकी जीत-हार, उनके चरित्र, उनकी भाषा, उनके हाव-भाव की कल्पना भी करनी होगी। वातावरण की कल्पना भी करें, कई बार वातावरण का संक्षिप्त विवरण ही बहुत कुछ कह जाता है। कल्पना-शक्ति उन्नत करने के लिए हमारा अवलोकन सूक्ष्म होना चाहिए। आप अपने आस-पास घट रही घटनाओं, चारों तरफ के व्यक्ति, बातें कर रहे लोग, खेल रहे बच्चे, इमारतें, लिफ्ट, सीढ़ियाँ, आदि-आदि का सूक्ष्म निरीक्षण नहीं करते हैं तो कृपया प्रारम्भ कर दीजिये, क्योंकि यही निरीक्षण शब्दों में ढल कर आपके सृजन को जीवंत बनाएगा।

 

प्रभावशाली बातों, हरकतों, संवादों आदि के बारे में नोट्स बना कर, उन्हें बाद में आप अपनी लघुकथाओं में शामिल कर सकते हैं। हालाँकि लघुकथा के मुख्य कथानक को अपने अवचेतन मन में ही तैयार होने  दें।

 

2. प्रेरणा प्राप्त करना

 

प्रेरणा कहीं से भी प्राप्त हो सकती है। एक उदाहरण देता हूँ, मैं मोबाईल फोन से कुछ समय दूर रहने के लिए अधिकतर बार बाग में घूमते वक्त फोन लेकर नहीं जाता। हालांकि बाग में घूम रहे अधिकतर लोग मोबाईल फोन पर या तो बातें करते हैं अथवा गाने सुनते हैंमुझे इस पर भी आश्चर्य होता है कि अन्य व्यक्ति मोबाइल की ध्वनी से परेशान न हों, इसलिए घूम रहे व्यक्ति ईयरफोन या ब्लूटूथ का इस्तेमाल क्यों नहीं करते! बहरहाल, एक दिन ऐसे ही घूमते समय पीपल के पेड़ से कुछ पत्तियां टूट कर मेरे सामने गिरीं और मुझे लघुकथा के इस प्लॉट का बोध करा गईं कि बाग़ में लगभग पूरे दिन कोई-न-कोई अपने फोन सहित आता रहता है। उनके मोबाईल फोन का (कु)प्रभाव पर्यावरण और वृक्षोँ आदि पर भी होता ही होगा, इस विषय पर रचना कही जा सकती हैइस लेख के लिखे जाने तक यह रचना फिलवक्त अवचेतन में ही हैइसी प्रकार प्रेरणा के लिए आवश्यक नहीं कि केवल मानवीय समाज से प्राप्त हो, सपनों से लेकर सुदूर सितारों की ऊर्जा प्रेरणा का स्त्रोत बन सकती है। इसके लिए ब्रह्माण्ड खुला है।

 

3. विषय का पर्याप्त अध्ययन

पाठकों को वही रचनाएँ प्रभावित करेंगी जो उनकी बुनियादी समस्याओं से जुड़ी हों। जिस समस्या अथवा विषय पर लघुकथा कहना चाह रहे हैं, उसका आपके पाठकों से कितना सम्बन्ध है, उसका पर्याप्त अध्ययन करें। हालांकि यह तुलना किस हद तक सही होगी यह विचारणीय है, लेकिन फिर भी, यह हम सभी को विदित है ही कि सुप्रसिद्ध कलाकार अमिताभ बच्चन की प्रथम सफलता का श्रेय आम व्यक्ति के आक्रोश को अपनी फिल्म में व्यक्त करना भी था।

 

विषय और समाज के सह-सम्बन्ध के अध्ययन के अतिरिक्त लघुकथा में तथ्यात्मक त्रुटि से बचने हेतु विषय से संबन्धित तथ्यों का अध्ययन ज़रूर कर लें। एक उदाहरण देता हूँ, 23 जनवरी 2020 को जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के पत्रकारिता विभाग में अखलाक अहमद उस्मानी ने "भारत के मुद्रित माध्यमों में अरब देशों से संबंधित समाचार समाचारों का विश्लेषणात्मक अध्ययन" विषय पर पीएच.डी. अर्जित की। उन्होंने कुछ देशों का भ्रमण तो केवल विषय की गंभीरता को समझने के लिये किया। हालांकि पीएच.डी. से एक लघुकथा सृजन की तुलना भी अतिशयोक्ति मानी जा सकती है, लेकिन मेरे अनुसार तथ्य और विषय समझने की गंभीरता इससे कम नहीं होनी चाहिए।

 

4. पर्याप्त लघुकथाओं को पढ़ना

 

सिक्खों के  दसवें गुरू गोबिंद सिंह जी ने कहा था कि, “आज्ञा भई अकाल दी, तबे चलायो पंथ, सब सिखन को हुक्म है गुरु मानयो ग्रंथउन्होंने ग्रन्थ को गुरु कहा। यही एक पुस्तक में लिखे की शक्ति है। अध्ययन करना और उस पर चिंतन करना कितना आवश्यक है, यह इस एक वाक्य से समझा जा सकता है। मूल रूप से पढ़ने का अर्थ पठन के अनुरूप अपना मस्तिष्क तीक्ष्ण करना और उचित मानसिक वातावरण तैयार करना है। प्रश्न यह है पर्याप्त पठन का अर्थ क्या? सांख्यिक तौर पर पर्याप्त की मात्रा ज्ञात करना असंभव है। यह लघुकथाकार और पढी जा रही लघुकथा पर निर्भर करता है। कभी सौ-पचास लघुकथाएं पढ़ कर भी उचित वातावरण नहीं बनता तो कभी एक-दो रचनाएं भी बहुत कुछ सिखा जाती हैं। सच यह है कि पठन कार्य ऐसा कार्य है जो लेखन से अधिक आवश्यक और अंतहीन है। जिस दिन आप पढ़ने से संतुष्ट हो गए, लेखन से विरक्ति होना शुरू हो जाएगी और यदि विरक्ति ना भी हुई तो भी लेखन धीरे-धीरे आत्मकेंद्रित होता जाएगा। लेखक अंतर्मुखी हो तो अच्छा लेकिन आत्मकेंद्रित हो तो ऊपर वाला ही मालिक है। एक और बात जिससे जितना अधिक बचा जाये उतना बेहतर कि, किसी भी लेखक को अधिक पढ़ने से उसकी शैली हमारे ऊपर हावी हो सकती है, अतः विविध साहित्य पढ़ें। प्रयास करें स्वयं की एक अलग ही शैली हो।

 

5. लघुकथा का एक रेखाचित्र तैयार करना

एक रेखाचित्र बना लें, चाहे मन में या चाहे लिख कर लघुकथा सृजन के किसी भी रेखाचित्र में निम्न तत्व हो सकते हैं (इनसे कम-अधिक भी हो सकते हैं, लेकिन न्यूनाधिक ये तो होंगे ही):

·        उद्देश्य

·        समस्या

·        परिदृश्य

·        मुख्य चरित्र एवं अन्य पात्र

·        कथानक

·        शैली

·        भाषा

·        प्रारंभ

·        समायोजन

·        समाधान (सीमित)

·        अंत

·        शीर्षक

रेखाचित्र के जिन तत्वों में आप सृजित हो रही लघुकथा से सम्बन्धित जो कुछ भर सकते हैं, भर दीजिए और जिनमें कुछ नहीं भर पा रहे, उन्हें छो दीजिए। जब लघुकथा अवचेतन में पक जाए, तब पहला ड्राफ्ट ही अपने इस रेखाचित्र के प्रति सचेत रहते हुए सृजित करें। हालाँकि कई बार सृजन के समय रचना कहीं और भटक सकती है। ध्यान रखिये कि यदि रचना प्राकृतिक रूप से कहीं और जा रही है तो जबरदस्ती रेखाचित्र के मार्ग पर लाना उचित नहीं लेकिन यदि अन्य किसी कारण से भटकाव हो रहा है, जैसे आपने रचना की शैली पत्र शैली सोची हो, लेखन के समय वह पत्र शैली से ही प्रारम्भ हो, लेकिन बाद में डायरी शैली जैसी होने लगे, तब उसे तय किये गए रेखाचित्र पर वापस लाने का प्रयास कीजिये।

 

चूँकि रेखाचित्र में वर्णित उपरोक्त तत्वों पर कई लेखों में कहा जा चुका है, यहाँ इन पर कु्छ और न कहते हुए, मैं आगे बढ़ता हूँ। हालांकि इनमें से कुछ तत्वों पर मेरे अनुसार कुछ टिप्स इस लेख में आगे बताई गयी हैं।

 

6. पास्ट/फ्यूचर लाईफ रिग्रेशन:

 

अपने पात्रों की पिछली ज़िंदगी का रिग्रेशन (प्रतीपगमन) कीजिए कि वे जैसे हैं वैसे क्यों हैं? उनके शरीर की बनावट, ज़ख़्मों के निशान, चश्मे की डंडी तक के बारे में सोचिए। उस समय यह भूल जाईये कि पात्र की किसी बात को अपनी लघुकथा में शामिल करना है अथवा नहीं। उनके बारे में गहराई से सोचने पर उनके सही चरित्र को उभारने में आपको मदद मिलेगी।

 

एक प्रयोग और है, अपने कंठ से पात्रों के लिए उनके भूतकाल, चरित्र, वातावरण आदि के अनुसार अलग-अलग स्वर में संवाद कह कर उन्हें महसूस करें। लेखन के समय पात्र के चरित्र के साथ न्याय करने के अलावा जब लघुकथा का एक ड्राफ्ट तैयार हो जाएगा और आप उसे कहने का प्रयास करेंगे, तब भी यह प्रयोग उपयोगी होगा।

 

और केवल पात्रों की ही नहीं, लघुकथा में जिस क्षण को उभार रहे हैं, उसके भूत और भविष्य के क्षणों को भी अपने मन में चित्रित कीजिये।

 

7. प्रारंभ

प्रारंभ दिलचस्प और दिलकश रखिए। पाठक को आकृष्ट करने के लिए ऐसे वाक्य कहिये, जो जिज्ञासा परक हों और कुछ अलग हों।

 

उदाहरणस्वरुप "आज मैं अकेला चाय पी रहा था" को यदि यों कहें कि "चाय की पहली चुस्की लेते ही मुझे समझ में आ गया ना तो मैं अच्छी चाय बना सकता हूँ और ना ही ये भरा हुआ कप मेरा खालीपन दूर कर सकता है।" दूसरे तरह की पंक्ति में शब्द ज़्यादा ज़रूर हैं, लेकिन कुछ कलात्मक हैं और पात्र के अकेलेपन व खालीपन को बेहतर दर्शा रहे हैं। अतः पाठकों का ध्यानाकर्षण कर सकते हैं।

 

8. संवाद टैग

 

लघुकथा में संवाद टैग्स यथा ज़ोर से कहा, ‘आँख चुराते हुए बोली, ‘उसके स्वर में जोश था आदि का प्रयोग करने भर से ही कई बातों को पाठकों को अधिक कुछ कहे बिना समझाया जा सकता है। हाँ! इन टैग्स को बहुत अधिक न भरें अन्यथा रचना बोझिल होने का खतरा है। 

 

9. अंत

कोशिश करें अंत प्राकृतिक हो लेकिन पाठकों के दिल तक पहुंचे। इसके लिए अलग-अलग अंत आजमाइए। भावनात्मक, आश्चर्यचकित करता, चौंकाता, रहस्योद्घाटन करता, सुखांत/दुखांत आदि आजमाएं और दृष्टिगोचर करें कि कैसा अंत आपकी रचना के साथ उचित प्रतीत हो रहा है। चाहे अंत में अनकहा हो लेकिन स्पष्टता अंत के साथ आवश्यक है।

 

किसी चुटकुले पर विचार करें तो उसके अंत में ही हास्य उत्पन्न होता है। चुटकुले और लघुकथा में एक अंतर यह भी है कि लघुकथा के अंत में हास्य नहीं बल्कि लघुकथा का वास्तविक दर्शन उत्पन्न होता है।

 

ऐसे अंत से बचें, जिसका अनुमान पाठक रचना पढ़ते हुए ही लगा लें, ना ही ऐसा अंत रखें जो एक झटके से लघुकथा को समाप्त कर दे और पाठक उलझते रहें कि इससे आगे कु्छ और होना चहिए। रचना की सफलता-असफलता अंत पर बहुत कुछ निर्भर करती है।

 

10. प्रयोग

बाइबल में कहा गया है कि आदम एक मशीन जैसा नहीं था, वह खुद चुनाव कर सकता था कि सही क्या है और गलत क्या और आदम ने परमेश्वर की आज्ञा न मानने का फैसला किया। उसने एक नई तरह की सृष्टि की रचना की, जिसमें वह खुद जीता भी और मरता भी। इस प्रयोग से मानव जाति को लाभ हुआ या हानि, यह एक अलग विषय है लेकिन बाइबल की मानें तो प्रयोग करना हमारे सबसे पहले पूर्वज का बताया हुआ मार्ग है।

 

पूरी लघुकथा में अपने पाठक का ध्यान न बंटने देने हेतु, उसे बेहतर और सामयिक बनाने हेतु अलग-अलग प्रयोग कीजिए। नए प्रयोगों से न केवल आप सीखेंगे अपितु रचना का शिल्प भी बेहतर होगा। शैली में प्रयोग करें। मधुदीप जी ने अपनी कुछ रचनाओं को पाठक के साथ परस्पर संवादात्मक बनाया है। मैंने एक लघुकथा में विभिन्न कालखंडों को दर्शाने हेतु पुलिस फाइल का सहारा लिया था। अंत के साथ भी प्रयोग करें। कभी अपनी कल्पना से भविष्य में आने वाले समय में जाएँ और वहां के बारे में लिखें। जिन क्षेत्रों में लघुकथा न लिखी गई हो, वहां कथा-तत्व ढूंढिए। किसी पौराणिक चरित्र का चित्रण कर देखिये कि लघुकथा में ढाल सकते हैं अथवा नहीं। इसी प्रकार अलग-अलग प्रयोग कीजिये।

 

प्रयोग करने के अनुशासन का ज़रूर ध्यान रखें। कुरान में एक स्थान पर लिखा है निराधार और अनजाने कामों से परहेज़ करो। हालाँकि प्रयोग ज़रूर कीजिये लेकिन निराधार नहीं। दूसरे कोई ऐसा प्रयोग आप कर रहे हैं जिसके विषय का आपको अधिक ज्ञान नहीं है तो प्रयोग से पूर्व उस विषय का अध्ययन कीजिये।

 

11. ओवरलोड

वाहन भरने के अतिरिक्त कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में भी ओवरलोडिंगका उल्लेख किया गया है। इसमें एक ही नाम से एक से अधिक कार्य किया जा सकता है। जैसे दो संख्याओं को जोड़ने के लिए जो प्रोग्राम (फंक्शन) लिखा गया है, उसी नाम से दो संख्याओं के गुणा आदि का फंक्शन भी लिखा जा सकता है। यहाँ यह फंक्शन एकांगी नहीं रहा। इस प्रकार की ओवरलोडिंग (एकांगी नहीं रहना) लघुकथा का मूल स्वरूप समाप्त कर देती है, इससे लघुकथा को बचा कर ही रखें।  लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में ओवरलोडिंग का अर्थ अनावश्यक विवरण भी है और पठन में बोझिलता भी है। इन्हें हटा कर लघुकथा को कसें। दृश्य, पात्र, विवरण जिन्हें हटाने के बाद भी लघुकथा की स्पष्टता और प्रवाह बरकरार रहता है, को हटा दें।

 

12. परिष्करण

 

अपनी लघुकथा को बोलकर देखिये, इसे दोहराइए भी। यदि वह स्वयं को समझा नहीं पा रही है अथवा बोलने के प्रवाह में भी कहीं अस्पष्ट है तो उस पर और कार्य करें।

 

ठेस लगे बुद्धि बढ़े वाली उक्ति लघुकथा सृजन में भी चारितार्थ होती है। अपनी लघुकथा अन्य लेखकों से पढ़ावें और उन्हें उचित व निष्पक्ष आलोचना करने को प्रेरित करें। उनसे यह भी पूछिए कि लघुकथा ने उन्हें किस हद तक प्रभावित/अप्रभावित किया। इसके लिए इन दिनों सोशल मीडिया उत्तम स्थान है। यह लेख लिखे जाने तक मुझे सोशल मीडिया पर इस तरह का कोई समूह ज्ञात नहीं है, जहां लघुकथा लेखक अपनी अप्रकाशित लघुकथा सुधार हेतु भेज कर अन्य रचनाकारों की प्रतिक्रिया प्राप्त सकें। लेकिन मुझे विश्वास है कि निकट भविष्य में ऐसे समूह सोशल मीडिया पर अवश्य ही होंगे। इसे कार्यशाला का रूप भी दिया जा सकता है।

 

अंत में योगराज प्रभाकर जी के लेख 'लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर'  का एक महत्वपूर्ण अंश, उन्होंने लिखा है कि "जल्दबाज़ी: काम शैतान का

 

जो विचार मन में आए उसको परिपक्व होने का पूरा समय दिया जाना चाहिए, पोस्ट अथवा प्रकाशन की जल्दबाज़ी से लघुकथा अपनी सुंदरता खो सकती है।"

 

जल्दबाज़ी न करने का अर्थ निरुत्साहित होना भी नहीं है। वाल्मीकि रामायण में एक श्लोक है:

उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्। सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम्॥

जिसका भावार्थ यह है कि 'यदि आप उत्साहपूर्वक किसी भी कार्य को करते हैं तो आपके लिए उसका संपन्न होना दुर्लभ नहीं है।' अतः उत्साहपूर्वक बिना जल्दबाज़ी के अपना रचनाकर्म कीजिये।

 

मैं यह दावा नहीं करता कि आपकी लघुकथा को बेहतर बनाने के लिए सभी युक्तियों को इस लेख में स्थान दे दिया है, किसी एक लेख में यह सम्भव भी नहीं। न सिर्फ ऐसी बल्कि इनसे बेहतर कई और युक्तियाँ आपको अन्य लेखों में, चर्चा से, साक्षात्कारों से और अपने स्वयं के मस्तिष्क-मंथन से प्राप्त हो सकती हैं। सबसे बड़ी युक्ति मैं यही मानता हूँ कि धैर्यपूर्वक अध्ययन करते रहिए, मस्तिष्क मथते रहिए और अभ्यासी बनिए।

 

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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

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सेक्टर-5, हिरण मगरी

उदयपुर - 313 002  - राजस्थान

चलभाष: 9928544749

ईमेल: chandresh.chhatlani@gmail.com


(मूल रूप से 'सेतु: कथ्य से तत्व तक 'पुस्तक स. शोभना श्याम व मृणाल आशुतोष में प्रकाशित)