डॉ. बलराम अग्रवाल देश के जाने-माने लघुकथा के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं, कल फेसबुक के लघुकथा को समर्पित "लघुकथा के परिंदे" समूह में "सवाल-जवाब" इवेंट के अंतर्गत उनके बारे में लिखने का मौका मिला, कुछ इस तरह से
डॉ. बलराम अग्रवाल से मेरी पहचान
किसी रचनाकार की सबसे बड़ी पहचान उनकी रचनाएँ होती हैं। डॉ. बलराम जी अग्रवाल से कभी रूबरू मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, अलबत्ता उनकी रचनाओं और लेखों से उनके व्यक्तित्व को जानने का मेरा निरंतर प्रयास अवश्य रहा है। उनसे मेरी पहचान उनकी रचनाओं के द्वारा ही हुई है। सर्वप्रथम इन्टरनेट पर लघुकथा सर्च करते हुए गद्य कोश नामक वेबसाइट में एक व्यक्ति की 20-25 लघुकथाओं की लिस्ट दिखाई दी। 'गद्य कोश' वेबसाइट का नाम भी आकर्षक है, अतः लघुकथा कहने-सीखने की पहली स्टेज पर खड़ा मैं, उस वेबसाइट में एक ही व्यक्ति की इतनी रचनाओं को देखकर आकर्षित हुआ था और तब पहली बार परिचय हुआ बलराम जी अग्रवाल से। वह लिस्ट उन्हीं की रचनाओं की थी। मेरे द्वारा पढी गयी उनकी पहली लघुकथा है - "अकेला कब तक लड़ेगा जटायु"। गद्य कोश की उस लिस्ट में यह शीर्षक पढ़ते ही उत्सुकता जाग उठी कि यह रचना कैसी होगी? यह कालजयी रचना मैनें आज तक सहेज कर रखी है। उसके कथानक से इस रचना का उद्देश्य मुझे समाज को यह समझाना प्रतीत हुआ कि 'जटायु तो अकेला ही था और अकेला ही है लेकिन आज के युग में रावणों की संख्या बढ़ गयी है। गुंडों के गुट बन गए हैं और गुट का हर व्यक्ति रावण का कर्तव्य अदा कर रहा है, परन्तु नारी रुपी सीता की रक्षा में जटायु का साथ देने की बजाय लोग शांति से रहना पसंद करते हैं।' यह रचना समाज के अजटायु रूप के प्रति हृदय में आक्रोश भर देती है।
सौभाग्यवश इन दिनों पड़ाव और पड़ताल, जिसे मैं 'लघुकथा का बाइबिल' मानता हूँ और अपने मित्रों से भी ऐसे ही परिचय करवाता हूँ, का खंड 17 ही पढ़ रहा हूँ, जिसमें बलराम अग्रवाल जी की 66 लघुकथाएं हैं और उनकी पड़ताल की गयी है। खंड के प्रारंभ में 'मेरी लघुकथा यात्रा' के अंतर्गत डॉ. बलराम जी ने "लघुकथा हमें साथ लेकर चलती है" शीर्षक के अंतर्गत अपनी लघुकथा यात्रा के विस्तृत वर्णन के प्रारंभ में गीता को उद्धृत करते हुए कुछ इस तरह से कहा है कि "व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ ग्रहण करता है वह 'आहार' है और जो कुछ भी देता है वह 'विहार' है"। गीता के अध्याय 6 के श्लोक संख्या 7 "युक्ताहार विहारस्य...भवति दू:खहा" का उल्लेख करते हुए उन्होंने अन्न को स्थूल से सूक्ष्म तक परिभाषित भी किया। हालाँकि यह बात लघुकथा मानकों के लिए इतनी महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन महत्वपूर्ण है बलराम जी का अध्ययन। उन्होंने इसे इस तरह भी ग्रहण किया कि व्यक्ति जिस तरह के साहित्य को पढ़ेगा - वैसा ही उसकी बुद्धि का विकास भी होगा। उन्होंने गीता का इतना गहन अध्ययन किया है तो किस तरह के ज्ञान ने उनके मन-मस्तिष्क का विकास किया होगा यह तो हम समझ ही सकते हैं; साथ ही गीता स्वयं भी सरल भाषा में कही गयी वह लघु पुस्तक है जिसका अर्थ तो आसानी से समझा जा सकता है लेकिन भावार्थ बहुत मुश्किल से। यही तो लघुकथा भी है सरल शब्दों में कही गयी लघु रचना जिसका विस्तार अनंत तक हो सकता है। लघुकथा शब्द किसी ने न सुना हो - गीता समझने का प्रयास किया हो तो लघुकथा यात्रा अपने-आप ही शुरू हो जाती है। पड़ाव और पड़ताल के खंड 17 में बलराम जी ने अपनी लघुकथा यात्रा के बारे में बताने से पहले एक ऐसा सन्देश दिया है जो न केवल लघुकथा का एक दृश्य खींचने का सामर्थ्य रखता है वरन उनके व्यक्तित्व के बारे में भी एक गहरा सन्देश देकर जाता है।
लघुकथाओं के प्रेमियों ने यदि बलराम जी अग्रवाल की रचना "नया नारा" नहीं पढ़ी तो उनसे बहत कुछ छूटा हुआ है। दोगली मानसिकता के विरोध में जंगी "इन्कलाब जिंदाबाद" के स्थान पर "इन-की-लाश झंडाबाद" का नारा लगाता है यह कह कर कि //नारे बनाये जाते हैं - रटे नहीं जाते, दमन के खिलाफ सिर्फ आवाज़ ही नहीं तलवार भी उठाऊंगा... मांगे नहीं मानी गयी तो इन-की-लाश ही करूंगा और झंडे पर लटका दूंगा।// आक्रोश में डूबी यह पंक्ति कितने ही प्रश्न छोड़ जाती है - जंगी "इन्कलाब जिंदाबाद" क्यों नहीं कह रहा?, अपनी मांगे मनवाने के लिए तलवार उठाने की बात उसके दिमाग में क्यों आई, उसने कितना शोषण सहा या देखा होगा? और झन्डे पर लटका दूंगा - झंडे अर्थात प्रशासन/सरकार का व्यक्ति की बजाय झंडे के मोह के प्रति विरोध का सटीक चित्रण एक पंक्ति द्वारा किया है।
मैनें विधा के प्रारंभिक अध्ययन के समय कुछ नोट्स बनाये थे, उनमें इन्टरनेट के जरिये ही बलराम अग्रवाल जी सर के विचारों को भी एकत्रित किया था, लघुकथा विधा में परिवर्धन का आकलन करते हुए वे कहते हैं कि, "आरम्भिक लघुकथाएँ आम तौर पर उपदेश और उद्बोधन की मुद्रा में नजर आती हैं या फिर व्यंग्य व कटाक्षपरक पैरोडी कथा के रूप में, जबकि समकालीन लघुकथा मानवीय संवेदना को प्रभावित करने वाली बाह्य भौतिक स्थिति अथवा आन्तरिक मनःस्थिति के चित्रण मात्र से पाठक मन में आकुलता उत्पन्न करने का, मस्तिष्क में द्वंद्व उत्पन्न करने का दायित्व-निर्वाह करती है। अध्ययन से सिद्ध होता है कि समकालीन लघुकथा पाठक के समक्ष सिर्फ निदान प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं।"
केवल रचनाएँ ही नहीं डॉ. बलराम जी अग्रवाल की रचनाओं के शीर्षक भी मनन करने योग्य हैं - 'अकेला कब तक लड़ेगा जटायु' के अतिरिक्त 'कंधे पर बेताल', 'एल्बो', 'और जैक मर गया', 'अलाव के इर्द-गिर्द', 'अज्ञात-गमन', 'बदलेराम', 'अथ ध्यानम', 'ब्रह्म सरोवर के कीड़े', 'कसाईघाट', 'आखिरी उसूल' आदि कई लघुकथाओं के शीर्षक ही अपने आप में इतना सामर्थ्य रखते हैं कि पाठक का ध्यान स्वतः ही आकर्षित हो जाये।
अंत में एक साक्षात्कार में बलराम अग्रवाल जी के द्वारा कहे गए शब्द उद्धृत करना चाहूँगा,
"लघुकथाकार के रूप में मैं केवल हिन्दी समाज से ही नहीं समूचे मानव समुदाय से मुखातिब हूँ और अपनी बात को ‘प्रवचन’, ‘सैद्धांतिक आदेश’ या ‘नैतिक निर्देश’ के रूप में बोलने की बजाय रचनात्मक लघुकथा के रूप में ही रखना ज्यादा पसन्द करूँगा।"
"लघुकथाकार के रूप में मैं केवल हिन्दी समाज से ही नहीं समूचे मानव समुदाय से मुखातिब हूँ और अपनी बात को ‘प्रवचन’, ‘सैद्धांतिक आदेश’ या ‘नैतिक निर्देश’ के रूप में बोलने की बजाय रचनात्मक लघुकथा के रूप में ही रखना ज्यादा पसन्द करूँगा।"
- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी