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बुधवार, 23 अक्टूबर 2024

साक्षात्कार । लघुकथा: चिंतन और चुनौतियां । साक्षात्कारकर्ता : नेतराम भारती

'वर्तमान समय निरर्थक सर्जन पर अंकुश लगाने का समय'-चन्द्रेश कुमार छतलानी 


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! मेरा पहला प्रश्न है लघुकथा आपकी नज़र में क्या है ? 

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- चूँकि आपने नव-लघुकथाकारों के लिए प्रश्न किया है तो एक पंक्ति में ही कहना चाहूँगा। मेरे अनुसार भाई जी, लघुकथा का अर्थ है - न्यूनतम शब्दों में रचित एकांगी गुण की कथात्मक विधा। साथ ही यह न भूलें कि सर्जन में जितने शब्द कम उतना अधिक श्रम।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! आजकल कई प्रकार के लेखक हमें लघुकथा के क्षेत्र में देखने को मिल रहे हैं। जैसे कुछ , मात्र अपने ज्ञान , अपने पांडित्य- प्रदर्शन के लिए लिखते हैं, कतिपय समूह- विशेष को खुश करने के लिए लिखते हैं या पुरस्कार- लालसा के लिए लिख रहे हैं । वहीं, कुछ ऐसे भी लघुकथाकार हैं जो लघुकथा - लेखन को सरल विधा मान बैठे हैं जिसके कारण उनकी रचनाओं में न कोई शिल्प होता है और न ही कोई गांभीर्य। तो ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि साहित्य सर्जन का उद्देश्य क्या है?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- भाई जी, मेरे अनुसार तो जहाँ साहित्य होता है, वहां कोरा लालसा-लेखन निष्प्राण होता है और जहाँ लालसायुक्त-लेखन होता है, वहां साहित्य के लिए कोई स्थान नहीं। लघुकथा के प्रथम शोधग्रन्थ, जो डॉ. शकुन्तला 'किरण' द्वारा किया गया था, में लघुकथा को गंभीर विधा माना है। इसके लेखन में कहीं न कहीं गंभीर सामयिक विषय समाहित होने ही चाहियें, जिनके द्वारा समाज के हित की बात कही जाए। साहित्य के मुख्य उद्देश्य में सर्वहित समाहित है, जिसे स्वहित समझने वाले सिर्फ लेखन कर रहे हैं, किसी अन्य स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से। ऐसे लेखन एक समय के बाद किसी को याद नहीं रहते। 


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! मैं जानना चाहता हूंँ कि आप लघुकथा में भाषा के किस प्रयोग के पक्षपाती हैं?

चन्द्रेश कुमार छतलानी:- मैं कथानक, वातावरण, स्थान और पात्रों के अनुसार भाषा का पक्षधर हूँ। चित्रा मुद्गल जी की कितनी ही रचनाओं में स्थानीय भाषाओं का बहुत सुंदर प्रयोग किया गया है, लेकिन हिंदी पाठकों को समझ में आने तक। उदाहरणस्वरुप हम यदि किसी कॉर्पोरेट के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स की मीटिंग के कथानक को चुनते हैं तो संवादों की भाषा में अंग्रेजी का प्रयोग होना खलेगा नहीं, बल्कि अधिकतर बार क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग असामान्य प्रतीत हो सकता है। विपरीत इसके यदि किसी हिंदी सेवी व्यक्ति के उद्बोधन पर रचना है तो उसमें जनसामान्य की भाषा की बजाय अपेक्षाकृत उच्च कोटि की होनी लाज़मी है। साथ ही इसका ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि भाषा की क्लिष्टता के कारण यदि रचना समझ से परे हो रही है तो वह रचना अर्थहीन है। निःसंदेह टारगेट पाठकवर्ग का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। एक अन्य आवश्यक बात यह है कि नरेशन में लेखक की भाषा होती है, वह ऐसी हो कि जो साहित्य का सम्मान भी रख सके और ढंग से संप्रेषित भी हो पाए। कुल मिलाकर साहित्य की किसी भी विधा में शब्दों की भाषा का चयन बहुत मेहनत का कार्य है। एक उदाहरण और दूंगा, हमारे विश्वविद्यालय के संस्थापक मनीषी पंडित जनार्दनराय नागर स्वयं एक ख्यातनाम साहित्यकार थे। उन्होने कई ऐसे सृजन किए जो साहित्य में मील के पत्थर समान हैं। एक बार हमारे आज के वरिष्ठ लेखाधिकारी, जिनकी उस समय नई-नई नौकरी एक क्लर्क के रूप में लगी थी, पंडित नागर के घर पर बैठे थे। वहीं पंडित नागर ने उन्हें स्नेहवश अपनी एक कविता पढ़ाई और पूछा कि, "कैसी है? कोई कमी तो नहीं।" यूं तो हमारे वरिष्ठ लेखाधिकारी विद्वान पुरुष हैं लेकिन वे कभी साहित्य के विद्यार्थी नहीं रहे, तो पढ़ कर उन्होने अपना मत रखा कि, "कविता तो अच्छी है लेकिन भाषा थोड़ी क्लिष्ट है - आम आदमी को समझ आने में मुश्किल होगी।" यह सुनते ही पंडित नागर तिलमिला उठे, लेकिन अगले चार-पाँच क्षणों में ही उन्होने अपने आप को संयत कर लिया और बोले, "यह साहित्य है प्रिय पुत्र! कोई सामान्य उपन्यास नहीं, इसे ना तो सब लोग पढ़ते हैं और ना ही मैं सभी को पढ़ने देता हूँ।"  

कुल मिलाकर, यह कुछ इस तरह है कि, वैदिक काल में संस्कृत के भी दो प्रकार थे - वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। वैदिक संस्कृत साहित्य की भाषा थी और लौकिक संस्कृत जन सामान्य की। बावजूद उसके भी उस समय के साहित्य को जो लोकप्रियता प्राप्त हुई, उससे सामयिक साहित्य अछूता ही है।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी! अब लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर पूर्व की भांति सीमांकन नहीं है बल्कि एक लचीलापन देखने में आ रहा है । अब आकार की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल है। आप इसे किस रूप में देखते हैं ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- लम्बी या यूं कहें कि अधिक शब्दों की लघुकथाओं में अक्सर यह देखने को भी मिलता है कि वे, लघुकथा के मानकों के अनुरूप होते हुए भी, अपेक्षाकृत कम शब्दों वाली रचना से रुचिकर कम ही हो जाती हैं। हम रचना के कथ्य के अनुरूप रचना की लम्बाई निर्धारित करते हैं, तो साथ ही पाठकों के लिए रुचिकर भी हो, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। कम से कम पाठक उबें तो नहीं। इस प्रकार के निर्वहण में काफी समय लगता है। हालांकि कम शब्दों वाली रचना में भी यही निर्वहण करना पड़ता है, लेकिन कम शब्दों को पाठक जल्दी पढ़ लेते हैं, और यही तो लघुकथा के पाठक संख्या में निरंतर वृद्धि होने का एक कारण भी है।कुल मिलाकर, रचना सर्जन की शुरुआत में ही हमें रचना की सहजता को प्राथमिकता देते हुए, इस बात को भी ध्यान में रखा जा सकता है कि हमारा लेखकीय उद्देश्य क्या है? सामान्य पाठक वर्ग तक पहुँच, प्रबुद्ध पाठक वर्ग तक पहुँच, स्वांतसुखाय या अन्य साहित्यिक-गैरसाहित्यिक उद्देश्य। पुनः कहूँगा पाठक, जिन तक रचना पहुंचनी है, उबें नहीं। हालांकि, वावजूद इसके, बेहतर तो रचना का सहज सर्जन ही है। तब शब्द सीमा वाली बात स्वतः ही गौण हो जाती है। कला पक्ष व रचना की प्रभावित करने की क्षमता को ध्यान में रखते हुए, रचना में काट-छांट के समय हम शब्द सीमा पर भी विचार कर सकते हैं।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! कई बार लघुकथा पर सतही और घटना- प्रधान होने के आरोप लगते रहे हैं , इससे कैसे बचा जाए ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- किसी के रचनाकर्म को आरोपित करना तो उचित नहीं आलोचना कर लीजिए, सम्यक दृष्टि रख कर। मेरा मानना है भाई जी, कि कोई लघुकथा यदि मानकों से यदि थोड़ी सी विचलित भी है और अन्य किसी विधा में प्रवेश नहीं कर रही है तो उसे लघुकथा स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं। हालाँकि, उसे अच्छी रचना तभी कह सकते हैं, जब वह प्रभावित कर रही हो। दूसरे, हर वर्ग को एक ही रचना उचित लगे, यह हो भी नहीं सकता। आज के दल-प्रधान युग में संख्या को अधिक दृष्टिगत किया जाता है, गुणवत्ता को कम। यदि कोई आलोचक किसी एक राजनितिक दल विशेष से सम्बंधित हो और रचना उस दल के विचारों के विपरीत, तो आज के परिप्रेक्ष्य में उस रचना पर आरोप लगने के या खारिज तक होने की संभावना अधिक है। इस तरह के पक्षपाती विचारों में लघुकथा का सतही होना या लेखक विहीन न होना जैसे आरोप आसानी से लगाए जा सकते हैं। जबकि, सतही रचना भी यदि लघुकथा के मानकों का अनुसारण कर रही है तो उसे विधा को तो स्वीकारना पड़ेगा ही, वो बात और है कि कुछ पाठक वर्गों को या सभी पाठकों को वह प्रभावित न कर पाए। ऐसी रचनाएं किसी शोकेस में लघुकथा के नाम से रह सकती हैं ।रही बात आरोपों से बचने की तो, जिस रचना पर जितने अधिक कपड़े फटें, वह सफल भी उतनी ही है। एक शर्त यह ज़रूर है कि वह राष्ट्र, समाज, मानव और प्रकृति के विरोध में न हो।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! लघुकथा में लेखकों की संख्या लगातार बढ़ रही है परंतु उस अनुपात में समीक्षक- आलोचक दिखाई नहीं देते। यह चिंता की बात नहीं है?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- समीक्षा करना आसान कार्य नहीं है। हालाँकि लेखक से पहले पाठक और पठनीय-समीक्षक बनना आवश्यक है। अपनी पढ़ाई के पश्चात् जब मैंने सॉफ्टवेयर डवलपमेंट का कार्य प्रारम्भ करने की सोची थी, तो सॉफ्टवेयर निर्माण से पहले उसकी टेस्टिंग सीखी और की भी। तब यह समझ में आया कि बग्स (गलतियां) कहाँ-कहाँ हो सकती हैं। कैसे हो सकती हैं और उन्हें कैसे हटाया जाए – ये बाद की बातें थीं, जब मुझे सॉफ्टवेयर निर्माण करने थे। बहरहाल, इतनी ही अल्फा टेस्टिंग एक लेखक को आनी ही चाहिए, ताकि वह अपनी रचना में कुछ हद तक खुद परिमार्जन कर सके । 

अब यदि बात अन्य रचनाकारों की रचनाओं की समीक्षा करने की करें तो एक समय के गूढ़ अध्ययन के पश्चात् जब लघुकथाएं ढंग से समझ में आ जाती हैं, तो लेखक/लेखिका इस योग्य हो ही जाते हैं कि वे समीक्षा और संपादन कर सकें। लेकिन इस स्तर पर आने में वर्षों की साधना तो ज़रूरी है ही और साथ ही ज़रूरी है निष्पक्ष विश्लेषण, यहाँ तक कि खुद को भी अलग रखकर। कहीं पढ़ा था कि (सही) समीक्षक वही है जो रचनाकार के जूतों को खुदके पैरों में पहनने की क्षमता रखता हो। 

तीसरी बात जो मुझे यह दिखाई देती है कि, प्रकाशित करने से पूर्व कोई लघुकथा लिखकर हम अन्य रचनाकारों से संपर्क करते हैं और उनसे रचनाओं का परिमार्जन करवाते हैं। इस तरह हम खुद ही रचनाकारों को समीक्षक बना रहे हैं, लेकिन अघोषित तरीके से। आपके प्रश्न से थोड़ा अलग हट कर, यह भी समझने वाली बात है कि इस प्रकार कुछ लोगों द्वारा मिलजुल कर सर्जित की रचनाओं में लघुकथा के मूल तत्व तो बहुत अच्छे से उभर जाते हैं, रचना प्रभावित भी करती है लेकिन मौलिकता? ‘मौलिकता’ चर्चा का विषय है।

बहरहाल, आपने जो चिंता व्यक्त की, वह विचारणीय है ही कि ‘विधा के विस्तार के लिए, स्वस्थ विमर्श और कुशल विमर्शकारों का आगे न आना चिंता की बात तो नहीं है?’ – जी बिलकुल है। जब तक कुशल निष्पक्ष समीक्षा और स्वस्थ चर्चा नहीं होगी विधा की प्रगति धीमी गति से ही होगी। यह तभी हो पाएगा, जब लघुकथा अन्य विधाओं के समान ही वरिष्ठ साहित्यकारों के मस्तिष्क में पैठ बना पाए। फिलवक्त इसे पाठकीय प्रेम तो मिल रहा है, लेकिन साहित्यिक प्रेम इसके कद से कम। 


नेतराम भारती : - चन्द्रेश जी ! गुटबंदी, खेमेबंदी की बातें आजकल कोई दबे स्वर में तो कोई मुखर होकर कर रहा है । क्या वास्तव में लघुकथा में खेमे तन गए हैं ? निश्चित रूप से आप जैसे लघुकथा के शुभचिंतकों के लिए यह बहुत पीड़ाजनक है । आप इस पर क्या कहना चाहेंगे ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- गुटबंदी जाने क्यों साहित्य का स्वभाव जैसी प्रतीत होती रहती है। बावजूद इसके भी गुटबंदी साहित्य का स्वभाव ही नहीं साहित्य का अभाव ही है। हम जिस विसंगति पर लिखते हैं और वही हमने खुदने पाल रखी है तो उस विसंगति विशेष के लिए संवेदनशीलता का स्थान हमारे हृदय में होना असंभव ही है। ऐसा लेखन मृतप्रायः है। हालाँकि, यह भी विचारने योग्य है कि, जो खेमेबंदी के विरोध की बातें कर रहे हैं, कहीं वे भी तो तम्बू ताने नहीं बैठे हैं? ‘तेरे तम्बू में मेंरे तम्बू से ज़्यादा बम्बू कैसे!’ जैसी सोच वाले गुटबंदी को बुरा कहें भी तो उससे केवल ईर्ष्या झलकती है – गुटबंदी का विरोध नहीं। 


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! पाठकों तक लघुकथा की अधिकाधिक पहुँच और उनमें इसके प्रति जुड़ाव और जिज्ञासा को बढ़ाने के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- लघुकथा को पाठकों का प्रेम मिल ही रहा है। मुझे विश्वास है कि आपके पास भी पाठकों के सन्देश आते होंगे, जो आपके लेखन के फैन्स हैं। हालाँकि इसे शोध और अकादमिक में सही स्थान नहीं मिला है। मुझे लगता है कि, लघुकथा प्रकाशन से पूर्व खुद रचनाकार द्वारा ही लघुकथा की ढंग से अपनी क्षमतानुसार पड़ताल बहुत ज़रूरी है। फिलवक्त समाचार पत्रों से लेकर नामी गिरामी साहित्यिक पत्रिकाओं में लघुकथा के नाम पर कभी प्रेरक प्रसंग तो कभी छोटी कहानी तक भी प्रकाशित हो रही है। कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रूफ रीडिंग और सम्पादन का स्तर उस पत्र-पत्रिका के स्तर से बहुत छोटा है। पाठकों में भ्रम पैदा करने के लिए इतना काफी है और तिस पर पैबंद यह कि कुछ भी प्रकाशित होने को हम इसलिए बेहतर मानते हैं कि उसमें हमारा नाम है। न्यून स्तर की रचनाओं/सम्पादन को लेखकीय सरंक्षण मिल रहा है। यह आज तक नहीं देखा कि, वरिष्ठ/कनिष्ठ किसी की भी रचना प्रकाशित हुई हो, और उन्होंने विरोध में कहा हो कि, यह पुस्तक/पत्रिका/पत्र सही प्रकाशित नहीं कर रहा। मुआफी सहित, यह दुर्भाग्य है कि हम गलत को गलत नहीं कह पाते क्योंकि वे हमें जोड़ देते हैं। दूसरे, लघुकथाओं का सोशल व अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सही-सही प्रचार ज़रूरी है। फिलहाल फेसबुक से बाहर लघुकथा का प्रसार बहुत अधिक नहीं है। हमें यदि इसे भविष्य में अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करना है तो उस पीढ़ी तक इसे प्रसारित करना ही होगा। विकिपीडिया तक में एक समय लघुकथा को छोटी कहानी बताया जा रहा था। मुझे इसे ही सही करवाने के लिए कुछ संघर्ष तो करना ही पड़ा। इसके अलावा, Quora, LinkedIn, Instagram, Pinterest, Twitter जैसी लोकप्रिय साइट्स का प्रयोग करना चाहिए, उन पर लघुकथा के प्रति पाठकीय प्रेम और जागरूकता हेतु कार्य भी करना चाहिए, यह लेखकीय तो नहीं लेकिन विधा की उन्नति के प्रति हमारा दायित्व है ही।

आने वाले वक्त में ईबुक्स, ऑडियोबुक्स की मांग और भी बढ़ने की संभावना है। इन फोर्मेट्स में भी हमें अपनी पुस्तकों को तैयार रखना चाहिए। समय के साथ चलेंगे तो भविष्य में लघुकथा सर्वाधिक लोकप्रिय विधा हो ही सकती है।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी! लघुकथा के ऐसे कौन-से क्षेत्र हैं जिन्हें देखकर आपको लगता है कि अभी भी इनपर और काम करने की आवश्यकता है ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- विषय। सबसे पहले सामयिक विषयों पर ध्यान देना आवश्यक है। ग्लोबल वॉर्मिंग, पेयजल में हो रही कमी, सड़क सुरक्षा, वित्त या अर्थव्यवस्था सम्बंधित, साइबर सुरक्षा, गामीण विकास, ऑर्गेनिक खेती, सांस्कृतिक परिवर्तन आदि ऐसे विषय हैं, जिन पर लेखन न के बराबर हो रहा है। मेरे कहने का अर्थ यह है कि साहित्य हमेशा सामयिक विषयों पर केन्द्रित होना चाहिए। जब लड़की का पिता उतना लाचार नहीं रहा, जितना आज से 50 वर्ष पहले था, तो दहेज़ न दे पाने के लिए गिड़गिड़ाने सरीखे विषयों को सामयिक बता कर साहित्य सृजन क्या ठीक होगा? 

खेतिहारों की हालत देख कर तुलसी ने कहा था कि, "कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिन्नु अन्न दुखीं सब लोग मरै।।" यह पढ़ते ही तुलसी के समय की एक समस्या की जानकारी हो जाती है और यह साहित्य का दायित्व है। 

चीन में रिझाओ नामक शहर एक ऐसा पहला शहर बन गया है जो पूरा का पूरा सौर ऊर्जा से संचालित है। खंगालिए वहाँ के साहित्य को, किसी न किसी ने तो इसका सपना देखा होगा, इस पर लिखा होगा, तब जाकर यह मूर्त रूप ले पाया। यह साहित्य की शक्ति है।

यदि साहित्य को साधना है तो उसकी वो भक्ति करनी होगी, जिस भक्ति में व्यक्तिगत मुक्ति ही न हो बल्कि अपने समय की अमानवीयता से संघर्ष की युक्ति भी हो और निर्बल के लिए शक्ति भी।

विषय के अतिरिक्त हमें भाषा की उन्नति पर भी काम करना चाहिए। पुराने कितने ही मुहावरे व कहावतें ऐसी हैं, जिन्हें आज की पीढ़ी प्रयोग में नहीं ले रही, ले भी नहीं सकती। एक मुहावरा है, "न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।" हम में से कितने हैं, जो एक मन में कितने लीटर होते हैं, यह बता सके? 

इसी प्रकार सोलह आने सच में ‘आने’ का अर्थ आज की पीढ़ी को पता नहीं है। यह मुहावरा बदला होगा सौ टका सच से, लेकिन टके का मतलब भी नहीं जानते फिर यह मुहावरा बदला सौ फीसदी सच और अब इसे सौ प्रतिशत सच कहा जा रहा है। ऐसे बदलाव भाषा को सामयिक बनाते हैं। निःसंदेह यह बात गौर करने की है कि लघुकथा इस प्रकार के बदलाव के लिए बहुत उपयोगी है।

साहित्यकार का दायित्व भविष्य की अच्छाई लिखना भी हो जाता है। क्योंकि ऐसा साहित्य ही समाज को दिशा देता है। उन विषयों पर कार्य करें जो अनसुलझे हैं और अपनी कल्पना से भविष्य के विषयों का सृजन भी करें।

लघुकथा को वैश्विक स्तर पर जाने के लिए अनुवाद की भी बहुत आवश्यकता है। फिलवक्त कुछ विद्वान् अनुवाद कर रहे हैं लेकिन या तो सीमित तौर पर या फिर मित्रतास्वरुप। ख़ास तौर पर लघुकथाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद जब तक नहीं होगा यह अन्य देशों की सीमाओं के भीतर कैसे जा पाएगी?

एक आखिरी बात मैं कहना चाहूंगा भाई जी कि, लघुकथा में लघुकथा के लिए लघुकथा के द्वारा ही काम हो सकता है। लोकतंत्र की अवधारणा जैसी पंक्ति का इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ क्योंकि किसी लोकतांत्रिक प्रणाली की तरह ही कुछ व्यक्ति तो इसका उचित दिशा में लेखन/सम्पादन/प्रकाशन कर रहे हैं और कुछ नहीं भी। जो कुछ भी ठीक नहीं हो रहा, उस पर अंकुश कैसे लग सकता है, यह कहना मेरे लिए बहुत मुश्किल है, लेकिन उस अंकुश की ज़रूरत है। क्योंकि, यही विधा को कमज़ोर बना रहा है।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! आज भी लघुकथा में अक्सर कालखंड को लेकर बातें चलती रहती हैं,कालखंड दोष को लेकर विद्वानों में मतैक्य देखने में नहीं आता है । लघुकथा अध्येता को कभी इसकी शास्त्रीय व्याख्या सुनने को मिलती है तो कभी सीधे-सीधे लघुकथा ही ख़ारिज कर दी जाती है । उसे इस दुविधा और भ्रम से निकालते हुए सरल शब्दों में बताएं कि यह कालखंड दोष क्या है और इससे कैसे बचा जा सकता है ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- हम सभी जानते हैं भाई जी कि लघुकथा का विशेष गुण एकांगी स्वभाव है। लघुकथा यदि किन्हीं कारणों से एकांगी नहीं हो पा रही है तो वह कहानी में तब्दील हो सकती है। यदि लेखक इस तब्दीली को एक ही घटनाक्रम में नहीं ले पा रहा तो रचना एक से अधिक कालखंडों में विभक्त हो छोटी कहानी की तरफ मुड़ सकती है। हालांकि, इसमें कोई दोष नहीं और रचनाकार को रचना की सहजता के साथ समझौता करना भी नहीं चाहिए। असहज लघुकथा से सहज कहानी बेहतर।

हाँ! अपने लेखकीय कौशल से कोई रचनाकार रचना को एकांगी बना कर रख सकता है। एक उदाहरण देना चाहूँगा, मानव विकासक्रम का चित्र हम बचपन ही से किताबों में देखते आए हैं। इसमें शताब्दियों को एक ही चित्र में चित्रकार ने बहुत ही कुशलता से दर्शाया है। चौपाये से विकसित हो, दो पैरों पर खड़ा पर थोड़ा झुका हुआ पशु, झुके हुए पशु से सीधा खड़ा हुआ पशु, फिर चेहरे का विकास और अंत में आज का मानव खड़ा है। लाखों वर्षों को एक ही चित्र में समेट दिया जाना इतना आसान नहीं था, लेकिन चित्रकार ने यह कार्य बखूबी कर दिखाया है। इस चित्र के एकांगी स्वरुप पर विचार करें तो यह कहा जा सकता है कि इसमें केवल ‘मानव विकासक्रम’ ही मौजूद है। अब सोचिये, इस पर एक लघुकथा कहनी हो तो आप कैसे कहेंगे?


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! 'श्री 420' का एक लोकप्रिय गीत है-'प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।' इसके अंतरे की एक पंक्ति 'रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ' पर संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति की। उनका खयाल था कि दर्शक 'चार दिशाएँ' तो समझ सकते हैं-'दस दिशाएँ' नहीं। लेकिन शैलेंद्र परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए। उनका दृढ़ मंतव्य था कि दर्शकों की रुचि की आड़ में हमें उथलेपन को उन पर नहीं थोपना चाहिए। कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह उपभोक्ता की रुचियों का परिष्कार करने का प्रयत्न करे। क्या एक लघुकथाकार के लिए भी यह बात सटीक नहीं बैठती?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- इसी उदाहरण पर दो अन्य उदाहरणों का जिक्र करना चाहूँगा। परिंदे पत्रिका के फरवरी-मार्च 2019 के लघुकथा केन्द्रित अंक में वरिष्ठ लघुकथाकार बलराम ने अपने साक्षात्कार में एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि "समाज के सब लोग साहित्य नहीं पढ़ते।" 

दूसरा उदाहरण हमारे विश्वविद्यालय के संस्थापक मनीषी पंडित जनार्दनराय नागर का मैं पूर्व भाषा वाले प्रश्न में दे ही चुका हूँ कि उन्होंने कहा था कि "यह साहित्य है प्रिय पुत्र! कोई सामान्य उपन्यास नहीं, इसे ना तो सब लोग पढ़ते हैं और ना ही मैं सभी को पढ़ने देता हूँ।"

पंडित नागर का यह वृतांत और बलराम जी द्वारा कही हुई बात दोनों एक ही सी प्रतीत होती हैं। हालांकि साहित्य कितना समृद्ध है, उसके पाठक कैसे होते हैं और उसकी सक्षमता क्या हो? ये प्रश्न मेरे अनुसार कुछ ऐसे हैं जिन पर चर्चा करना बहुत आवश्यक है और यही महत्वपूर्ण प्रश्न आपने भी किया है। एक तो जिस बात में समाज का हित छिपा हो वो कई वर्षों से इस तरह से सृजित हो रही है, कि आम पाठक नहीं जुड़ पा रहा और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है जिसे पंडित नागर ने इशारों ही इशारों में कहा कि आम पाठक से जुडने के लिए एक अलग किस्म का साहित्य लिखना पड़ता है। लेकिन वैसा अलग किस्म का साहित्य समाज को कैसी दिशा दे रहा है, इससे हम अनभिज्ञ नहीं है। हालांकि, मेरे अनुसार इन सभी बातों का समाधान है – सामयिक भाषा में कथ्य के अनुसार तथ्य कहना। दिशाएं दस ही होती हैं लेकिन मुख्यतः चार होती हैं। यह दो-आयामी और त्रिआयामी दृष्टिकोण की तरह ही तो है। इन दोनों दृष्टिकोणों में से किसी का भी महत्व कम नहीं है। हम अपनी बात किस तरह समझा सकते हैं, यह लेखकीय निर्णय है।

इस निर्णय से पूर्व, उथलेपन को स्वपरिभाषित करना भी ज़रूरी है। इसके लिए रचनाकर्म से पूर्व कथ्य और विषय में निहित तथ्य को जानना आवश्यक है। एक फिल्म के ही गीत की पंक्ति //शोर नहीं बाबा सोर// में सही शब्द क्या है और उथला कौनसा, इस पर विचार करते हैं। एक सामान्य भाषा की दृष्टि से सही है तो दूसरा आंचलिक भाषा की दृष्टि से। रचनाकार जिस दृष्टि से रचना कह रहा है, उसमें ‘सोर’ कहीं भी अनुचित नहीं। हालाँकि, सर्जन से पूर्व उसके मस्तिष्क में शोर भी था और सोर भी। यही होना चाहिए।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! असल में प्रयोग है क्या ? लोग प्रयोग के नाम पर प्रयोग तो कर रहे हैं ,पर क्या वास्तव में वे प्रयोग हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अंधेरे में ही तीर चलाया जा रहा है l अगर ऐसा है ,तो निशाना तो दूर की बात नुकसान होने की संभावना अधिक है l आप इसपर क्या कहना चाहेंगे ? साहित्य में सार्थक प्रयोग किस प्रकार किया जाए ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- सार्थक प्रयोग का उदाहरण बल्ब की इजाद है, भाई जी। थॉमस अल्वा एडिसन के हज़ार बार असफल होने के बाद फिर कहीं जाकर बल्ब बन पाया। लेकिन उन्होंने ही कहा था कि इससे पिछले हज़ार असफल प्रयोगों का महत्व कम नहीं हो गया, क्योंकि उन्हें ही दिमाग में रखकर, उन प्रयोगों को दुहराया नहीं गया। प्रयोग हैं तो सार्थकता अधिकतर बार बहुत सारी असफलताओं के बाद ही आएगी। 1880 के बल्ब निर्माण के प्रयोगों से आज 2023 में भी सीख नहीं ले पाएं, हम इतने तो आलसी नहीं।

लघुकथा के अनुसार प्रयोगों की बात करें तो, लघुकथा के हर तत्व पर और तत्वों के आपस में युग्म व मिश्रण पर प्रयोग हो सकता है। सार्थक और निरर्थक की परवाह किये बिना प्रयोग करने चाहिए, और निरर्थक-असफल प्रयोगों को डस्टबिन की बजाय वहां रखना चाहिए, जहाँ सभी यह देख पाएं कि इस प्रयोग को दुहराना नहीं है। यह बिलकुल उसी प्रकार है, जैसा कोई वैज्ञानिक विश्लेषण होता है। उसमें हाइपोथीसिस होता है, जिसका यह पता लगाया जाता है कि वह स्वीकृत रेंज में है अथवा अस्वीकृत। यदि अस्वीकृत रेंज में है तो भी शोध का महत्व कम नहीं होता। प्रयोग करते समय, प्रयोगों की असफलता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी सफलता। हाँ! बाद में, सफल प्रयोगों पर ही रचनाकर्म होगा और असफल पर नहीं।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! कुछ साहित्यकार लघुकथा को लेखक-विहीन विधा कहते हैं परंतु लेखक तो किसी भी विधा के प्रत्येक शब्द- भाव में उपस्थित रहता ही है , फिर ऐसा कहना विधा के प्रति नकारात्मक भाव को पोषण देना नहीं है ? इस पर आपका क्या विचार है ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- आपका कहना सत्य है l प्रत्येक शब्द और भाव में रचनाकार उपस्थित रहता ही है। मैं यह समझता हूँ कि लेखक-विहीन सर्जन का अर्थ यह है कि अपना निर्णय पाठकों पर न थोपनाl इसे विस्तृत करूं तो, हम सभी के अपने-अपने व्यक्तिगत विचार होते हैंl उदाहरणस्वरुप, यदि मैं किसी एक विशेष राजनैतिक दल का पक्षधर हूँ और उसे प्रोमोट भी करता हूँl यह व्यक्तिगत रूप से तो ठीक है, लेकिन मेरे लेखन में उसी दल और विचारों का गुणगान है और अन्य दलों के सही विचारों का भी विरोध, तो ऐसा लेखन चाटुकारिता और मेरी मूढ़ता के अतिरिक्त कुछ नहींl मैं उस लेखन से अपने दल को बढ़ावा दे रहा हूँ, साहित्य को नहींl जबकि, उचित यह है कि, अपने व्यक्तिगत विचार यदि किसी अन्य के भी सही विचारों से टकरा रहे हों, तो इस स्थिति में तटस्थ लेखन हो और पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया जाएl लेखन किसी लेखक का अधिकार व दायित्व ही नहीं, बल्कि धर्म भी है और लेखकीय धर्म कभी भी समाज के हित से विचलित नहीं होने देताl हालांकि, किसी विशेष समुदाय में फैली विसंगतियों या उनके उत्थान की बात करने में कोई बुराई नहीं क्योंकि यह उस समुदाय विशेष को सर्वसमाज के साथ आगे बढाने के उद्देश्य से कही गई हैl किसी बुराई का विरोध करना भी ज़रूरी है, रुढियों का परिष्करण भी आवश्यक है, लेकिन किसी अन्य व्यक्ति से लेकर समुदाय को अकारण किसी भी तरह से कमतर करने की बात कही जाए, वह साहित्य नहीं, केवल किसी प्रकार के स्वार्थ या कुंठा से निहित लेखन हैl


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! सिद्ध लघुकथाकारों को पढ़ना नए लघुकथाकारों के लिए आप कितना जरूरी समझते हैं , जरूरी है भी या नहीं ? क्योंकि कुछ विद्वान कहते हैं कि यदि आप पुराने लेखकों को पढ़ते हैं तो आप उनकी लेखन शैली से प्रभावित हो सकते हैं और आपके लेखन में उनकी शैली का प्रतिबिंब उभर सकता है जो आपकी मौलिकता को प्रभावित कर सकती है l इस पर आपका दृष्टिकोण क्या है?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- मैं पूरी तरह सहमत हूँ l प्रारम्भिक लेखन में शैली तो प्रभावित होगी ही l स्वयं की शैली बनने में समय लगता है l मेरे अनुसार, यदि इससे बचना है तो एक से अधिक रचनाकारों को समान रूप से पढ़ें l हालाँकि मेरा मानना है कि यदि प्रारम्भिक लेखन के समय शैली पर किन्हीं सिद्ध रचनाकारों का प्रभाव आ रहा है तो इस अभ्यास में अधिक बुराई नहींl लेखन शैली में मौलिकता समय के साथ परिपक्वता आने पर आ ही जाती है l उस समय तक अध्ययन भी विस्तृत हो जाता है l भारतेंदु हरिशचंद्र की इन पंक्तियों को यदि आपकी इस बात से जोड़ें तो

"लीक-लीक गाड़ी चलै, लीकहि चले कपूत।

लीक छोड़ तीनूं चलै, सायर, सिंघ, सपूत।।"

जब तक हम कपूत (नौसिखिए) हैं या केवल गाड़ी चलानी है तो किसी की बनाई लीक पर चलते रहें, हमें अगर सपूत या सिद्ध बनना है तो लीक छोड़नी पड़ेगी।


नेतराम भारती :- अंतिम प्रश्न :- चन्द्रेश जी ! यदि आपसे यह पूछा जाए कि आने वाले दस सालों में लघुकथा को आप कहाँ देखते हैं ,तो आपका उत्तर क्या होगा ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- भाई जी, कुछ दिनों पूर्व ही एक कार्यक्रम में यह प्रश्न उठा कि लघुकथा में शोध की क्या संभावनाएं हैं। उत्तर देने वाले वरिष्ठ साहित्यकार व शिक्षाविद थे, उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि, “शोध किसी लोकप्रिय विधा में ही हो तो सही है। फिलहाल लघुकथा उपयुक्त नहीं।“

मैं इस बात से न केवल चौंका बल्कि आहत हुआ, जो स्वाभाविक ही था कि लघुकथा और अलोकप्रिय?, फिर मुझे समझ में आया कि वे साहित्य की उस दुनिया की बात कर रहे थे, जिन पर वरिष्ठता का तमगा लगा है और जिन्होंने लघुकथाओं को हमेशा उपविधा या निम्न विधा माना। 

खैर, जब यदि आगामी दस सालों की बात करें तो यह मानसिकता विपरीत होगी, ऐसा मेरा विश्वास है और साथ ही शोध में लघुकथा का एक सम्मानजनक स्थान होगा, यह भी मुझे प्रतीत होता है।

इनके अतिरिक्त दस वर्षों में ऐसे लघुकथाकार ज़्यादा हो सकते हैं जो पारिवारिक और सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय और वैश्विक मुद्दों पर भी सर्जन करने में सक्षम होंl लघुकथा में कुछ स्वतंत्र आलोचक भी आ जाने चाहिएंl

विधा की उन्नति की बात करें तो नए शिल्प, नए कथ्य, सामयिक भाषा और लघुता के लिए नए मुहावरे और कहावतों के साथ सर्जन होना प्रारम्भ हो जाए l

राजस्थानी में एक लोकोक्ति है – “गज सूं उतर गधे नहीं चढस्याँ” अर्थात हाथी से उतर कर गधे पर नहीं चढ़ते l इसी के अनुसार मैं यह प्रार्थना करूंगा, लघुकथा हाथी पर सवार है और उसी पर सवार ही रहे l ज़रूरी हो तो, गधे को, हाथी पर बैठ कर देख लिया जाए, उस पर सवारी न करेंl

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बुधवार, 16 मार्च 2022

समीक्षा | लघुकथा-संग्रह " ब्रीफ़केस" | लेखक: नेतराम भारती | हिन्दी दैनिक समाचार- पत्र "इंदौर समाचार" में प्रकाशित | समीक्षाकार: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी





पुस्तक: ब्रीफ़केस (लघुकथा- संग्रह )

लघुकथाकार : नेतराम भारती

प्रकाशक : अयन प्रकाशन, दिल्ली

पृष्ठ :160

मूल्य : 315/-


समकालीन संवेदनाओं के ओजपूर्ण कथन

- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी 


नेल्सन मंडेला ने कहा था कि, "यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जो वो समझता है तो बात उसके दिमाग में जाती है, लेकिन यदि आप उससे उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं तो बात सीधे उसके दिल तक जाती है।" साहित्य भी इसी प्रकार के दृष्टिकोण से निर्मित किया जाता है और साहित्य की एक विधा - लघुकथा चूँकि न्यूनतम शब्दों में अपने पाठकों को दीर्घ सन्देश दे पाती है। अतः ऐसा वातावरण, जो मानवीय संवेदनाओं और समकालीन विसंगतियों को दिल तक उतार पाए, का निर्माण करने में लघुकथा का दायित्व अन्य गद्य विधाओं से अधिक स्वतः ही हो जाता है।

हिन्दी शिक्षक, गद्य व पद्य दोनों ही की विभिन्न विधाओं में समान रूप से सक्रिय युवा लेखक श्री नेतराम भारती के लघुकथा संग्रह 'ब्रीफ़केस' में भी सामयिक भाषा व समकालीन विषय, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक यथार्थ की पृष्ठभूमि से जुड़े हैं, की एक सौ एक रचनाएं संगृहीत हैं। लघुकथा लघु और कथा की मर्यादाओं के साथ-साथ जिस क्षण विशेष की बात कर रही होती है, वह, पूरी रचना में हाथों से फिसलना नहीं चाहिए अन्यथा लघुकथा के भटक जाने का खतरा होता है। नेतराम भारती की लघुकथाएं इन दृष्टिकोणों से आश्वस्त करती हैं, इनके अतिरिक्त उनकी कलम किसी नोटों से भरे ब्रीफ़केस से ऊपर उठी दिखाई देती है। इस संग्रह की ‘ब्रीफ़केस’ लघुकथा इसी विचार पर केन्द्रित है। जमील मज़हरी का एक शे'र है,

 "जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर, 

ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की।" 

इस संग्रह की एक अन्य लघुकथा 'रसीदी टिकट' भी भोगवादिता और भाववादिता के अंतर को दर्शाती एक ऐसी रचना है जो चरागों को रोशन करने का पैगाम दे रही है। लघुकथा 'सदमा' के मध्य की यह पंक्ति //वे ही अगर जीवित होती तो, पिताजी के जाने का इतना दुःख नहीं होता।//, न केवल उत्सुकता बढ़ाती है बल्कि रचना का अंत आते-आते यह पञ्चलाइन भी बन जाती है। संस्कृत में एक श्लोक है - "भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।" अर्थात भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं। रचना 'नये पिता' भारतवर्ष की इसी संस्कृति को उद्घाटित कर रही है। 'फ़रिश्ता' की बात करें तो यह नारी सशक्तिकरण की उन रचनाओं में से एक है जिनका विषय समकालीन व उत्कृष्ट है। 'इडियट को थैंक्स' मित्रता का सन्देश दे रही है और 'आख़िरी पतंग' पिता-पुत्र के प्रेम का। 'पत्नी ने कहा था' का अंत मार्मिक है और निष्ठपूर्ण आचरण का द्योतक है। 'बुज़ुर्ग का चुंबन' प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती एक रचना है, जिन्होंने अपने स्वदेश को देखा भी नहीं है। 'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में कुत्तों के एक युगल के मध्य प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति है। 'मैडम सिल्विया' में संवादों की लम्बाई रचना को थोडा उबाऊ ज़रूर कर रही है, परन्तु रचना का शीर्षक व प्रारम्भ उत्सुकता बढ़ाने वाला है। 'कान और मुँह' एक अनछुए विषय पर कही गई रचना है। 'बेड नंबर 118' मेडिक्लेम इंश्योरेंस के प्रति हस्पताल के लालच से परिचय करवाती है तो 'ऑनलाइन - ऑफलाइन' आभासी और भौतिक रिश्तों में अंतर को दर्शाती है। 'एक सत्य यह भी' एक पूर्ण रचना है, इसका शिल्प और अधिक उत्तम होने की सम्भावना है। 'संवेदना की वेदना' वास्तविक वेदना पर हावी टीवी सीरियल की स्क्रिप्टिड वेदना को बहुत अच्छे तरीके से दर्शा रही है। 'सफ़ेद कोठी' अपने संघर्ष के दिनों को न भूलने की सलाह देती हुई है। 'मुहिम' पद से हटाने की रणनीति बताती है। 'क्रॉकरी या जीवन' अपने जीवन काल में स्वअर्जित वस्तुओं के उपभोग का सन्देश दे रही है तो 'यूज एंड थ्रो' लिव-इन-रिलेशनशिप के कटु सत्य को दर्शा रही है। 'गाँधारी काश! तू मना कर देती' एक बेहतरीन शीर्षक की बेमेल विवाह से मना करने की राह दिखाती रचना है। 'अफ़सोस' मृत्यु के समय मनुष्य का अन्तिम वेदोक्त का कर्तव्य अर्थात्

 "वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तंशरीरम्। ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतंस्मर।।" 

को याद दिला रही है। 'औज़ार...' लघुकथा सत्य को कहने का साहस और 'टायर-पंचर' परेशानी में मदद करने का सन्देश दे रही है।

लेखक की कई रचनाओं में किसी न किसी पात्र का नाम 'दिवाकर' है। पढ़ने-लिखने और प्रश्न करने वाले व्यक्ति की बुद्धि के बारे में कहा गया है कि "दिवाकरकिरणैः नलिनी, दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥" अर्थात वह बुद्धि ऐसे बढ़ती है जैसे कि 'दिवाकर' की किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ। इस पुस्तक रुपी रचनाकर्म में भी समाज में सनातन नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने हेतु जिस निष्ठा और समर्पण से सन्देश दीप्तिमान किया गया है वह प्रज्ञा संवृद्धि करता है। अधिकतर रचनाएं सौहार्दपूर्ण सकारात्मक दृष्टिकोण से कही गई हैं। शिल्प उत्तम है और जिस बात की भूरी-भूरी सराहना की जानी चाहिए वह है श्री भारती द्वारा विषय की गूढ़ अध्ययनशीलता और उस अध्ययन को कलमबद्ध करने की क्षमता। कहीं-कहीं जैसे,'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में 'भाई सहाब' आदि को छोड़कर वर्तनी की त्रुटियाँ नहीं हैं। भाषा आम बोलचाल की है। कुछ रचनाओं के शीर्षक उत्तम होने की संभावना रखते हैं। समग्रतः, प्रबुद्ध सोच के पश्चात समकालीन मानवीय संवेदनाओं, चिन्तन हेतु आवश्यक विषयों से ओतप्रोत लघुकथाओं का यह संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है।


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

अध्यक्ष, राजस्थान इकाई, विश्व भाषा अकादमी

ब्लॉगर, लघुकथा दुनिया ब्लॉग

सहायक आचार्य (कम्प्यूटर विज्ञान)

बुधवार, 8 दिसंबर 2021

लेख: 'लघुकथा : एक रोचक विधा' | नेतराम भारती

हर काल अपने पूर्वकाल से भिन्न होता है l हर काल की अपनी कुछ विशेषताएं तो कुछ समस्याएं होती हैं l उन विशेषताओं और समस्याओं को स्वर देने का कार्य साहित्य करता है l साहित्य ही उन्हें दिशा देता है, हवा देता है l और साहित्यकारों की जनमानस तक पहचान का माध्यम भी वही बनता है l इसके लिए हमेशा से ही कलमकारों ने अपने दायित्वों का निर्वहण कभी बेबाकी से, तो कभी, अत्यंत सतर्कता से किया है l और इसके लिए उन्होंने साहित्य की किसी न किसी विधा को अपने लेखन का आधार बनाया, फिर चाहे वह छन्दोबद्ध काव्य हो या पाठकों को झकझोरता गूढ़ गद्य l

वर्तमान समय में साहित्य की जिस विधा ने साहित्यकारों को सर्वाधिक आकर्षित और पाठकों के निकट पहुँचाया है और पहुँचा रही है, वह है लघुकथा l आज यदि यह कहा जाए कि सर्वाधिक साहित्य किस विधा में लिखा - छपा और पढ़ा जा रहा है तो निस्संदेह निस्संकोच रूप से कहा जा सकता है कि वह लघुकथा है l कारण, आकार में लघु होने के साथ ही कम समय में सुपाच्य और शीघ्र भाव - सम्प्रेषण हो जाता है l परिणामस्वरूप पाठक अथवा श्रोता को सहज ही रसानुभूति और भावानुभूति होती है जो एक नाटक, उपन्यास या लंबी कहानी में होती है l आज संचार और दृश्य - श्रव्य के रूप में मनोरंजन के साधनों की इतनी भरमार है कि पाठक, श्रोता अथवा दर्शक बस चैनल ही बदलता रहता है l वह ज्यादा समय एक स्थान पर रुकना ही नहीं चाहता l वह तो, कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा रोचक और उद्देश्य परक मनोरंजन जहाँ मिलता है, वहाँ जाकर रुकता है l और आज लघुकथा ने लुप्त होते जा रहे पाठकों को साहित्य की ओर मोड़ा है, रोका है तो इसके लिए वह बधाई की पात्र है l कुछ ही मिनटों में यदि वह कोई सीख, कोई तंज, कोई रहस्योद्घाटन, कोई विद्रूप यथार्थ, सभ्यता - संस्कृति अंधविश्वास, अनीति और भारतीयता की पहचान को उद्घाटित कर देती है तो, पाठक तो आकर्षित होगा ही l हाँ, विशेष बात यह है कि लघुकथा पढ़ने के बाद पाठक के मन में विचारों का एक सोता फूटता है जो उसे चिंतन - मनन के छींटों से भिगोकर तरो-ताजा करता है, क्योंकि एक अच्छी और प्रभावी लघुकथा जहाँ ख़त्म होती है वहीं से उसका अगला भाग पाठक के मानस में आकार लेने लगता है l

अब प्रश्न उठता है कि आख़िर यह लघुकथा है क्या? क्या यह एक छोटी-सी कहानी है?, क्या यह दादा-दादी की कहानियाँ हैं? लघु उपन्यास है, बोध - जातक कथाएँ हैं अथवा कुछ और?.. क्या हैं?

तो मैं बताता चलूँ कि लघुकथा उपर्युक्त वर्णित कथा - विधाओं से इतर अपने आप में एक स्वतंत्र पूर्ण विधा है जो क्षण - विशेष की घटना या प्रभाव को अभिव्यक्त करती है l यह कुछ वाक्यों से लेकर एक - डेढ़ पृष्ठ तक की हो सकती है l जहाँ तक इसके शब्द सीमा की बात है तो अभी तक लघुकथा के विशेषज्ञ - समीक्षक भी इसकी अंतिम और अधिकतम शब्द सीमा को लेकर एकमत नहीं हैं l फिर भी सामान्यतः जो एक राय बनती दिख रही है वह इसकी अधिकतम सीमा 350 से 500 शब्द तक होना मानती है l पर जिस तरह हर नाटक में उसका अपना रंगमंच निहित रहता है उसी प्रकार हर लघुकथा के कथानक में उसकी शब्द सीमा निहित रहती है l मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि किसी विसंगति पूर्ण क्षण - विशेष के प्रसंग या घटना या प्रभाव को कम से कम शब्दों में प्रभावी ढंग से कहना लघुकथा है, जिसमें लेखक को लेखकीय प्रवेश की अनुमति नहीं है, जिसमें कालखंड बदलने की इजाज़त नहीं है, जिसमें उपदेश देने की छूट नहीं है l छूट है तो उस 'अनकहे' की, जो कहा नहीं गया लेकिन लघुकथा में प्रतिध्वनित है l छूट है तो शब्दों की मितव्ययिता की, छूट है तो समस्या के समाधान की अनिवार्यता की l संवेदनाओं को झंकृत करना, थोड़े में अधिक कहना, सांकेतिकता, ध्वन्यात्मकता, बिम्बात्मकता, प्रतीकात्मकता आदि लघुकथा के प्रमुख तत्व कहे जा सकते हैं l संक्षेप में कहा जा सकता है कि कथानक, शिल्प, शैली, मारक पंक्ति (पंच), विसंगतिपूर्ण क्षण - विशेष, इकहरापन, भूमिकाविहीन, कालखंड दोष से रहित प्रेरक और सामाजिक महत्व को प्रकट करना लघुकथा के तत्व कहे जा सकते हैं l

इतना समझने के बाद इतना तो समझ आ ही जाता है कि लघुकथा - लेखन आम सामान्य लेखन नहीं है l लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसे लिखा ही न जा सके l सतत अभ्यास और सतर्कता बरती जाए और सिद्ध लघुकथाकारों की लघुकथाओं के अध्ययन - मनन किया जाए तो लघुकथा-लेखन में सफलता प्राप्त की जा सकती है l आजकल इन्टरनेट पर देश भर के अनेक लघुकथा को समर्पित पटल - मंच हैं, जो न केवल समय - समय पर लघुकथा-लेखन को प्रोत्साहित ही कर रहे हैं बल्कि देशभर के लब्धप्रतिष्ठ वरिष्ठ और प्रबुद्ध लघुकथाकारों के साथ लघुकथा पर गोष्ठियाँ आयोजित कर, नवोदित लघुकथाकारों को उनकी लघुकथाओं के वाचन, और उनकी समीक्षा द्वारा मार्गदर्शन, और प्रोत्साहन देने का मह्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं l कुछेक नाम देखें जा सकते हैं - ' लघुकथा के परिंदे', 'क्षितिज', 'कथा - दर्पण साहित्य मंच', ' साहित्य सम्वेद', 'लघुकथालोक' आदि आदि I

और जहाँ तक लघुकथा के वर्तमान प्रमुख हस्ताक्षरों की बात है तो श्री रमेश बत्रा जी, श्री जगदीश कश्यप जी, स्व. श्री सतीशराज पुष्करणा जी, श्री कृष्ण कमलेश जी, श्री भगीरथ परिहार जी, श्री सतीश दूबे जी, श्री योगराज प्रभाकर जी, श्री बलराम अग्रवाल जी, श्रीमती कांता राय जी, श्री संतोष सुपेकर जी, श्री चन्द्रेश छतलानी जी, श्री सुकेश साहनी जी, श्री कमल चोपड़ा जी, श्री सतीश राठी जी, श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी, डॉ. श्री अशोक भाटिया जी, श्री ओम नीरव जी, श्रीमती सुनीता मिश्रा जी आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं l और इनके लघुकथा पर विचार, इनके लघुकथा संग्रहों को पढ़कर लघुकथा को समझना - लिखना आसान होगा l

आख़िर में, इतना जरूर कहना चाहूँगा कि इक्कीसवीं सदी और आने वाली सदियों में लघुकथा एक स्थापित साहित्यिक विधा के रूप में और प्रतिष्ठा पायेगी, और प्रतिष्ठित होगी जिसकी शुभ शुरूआत हो भी चुकी है l हाल ही में अखिल भारतीय और प्रादेशिक स्तर पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने अकादमी पुरस्कारों में पहली बार लघुकथा को साहित्य के प्रतिष्ठित अकादमी पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल किया है जिसके अंतर्गत अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार एक लाख रुपये राशि का और प्रादेशिक लघुकथा पुरस्कार इक्यावन हज़ार रुपये राशि का निश्चित कर भोपाल के श्री घनश्याम मैथिल 'अमृत' जी को उनके लघुकथा संग्रह "... एक लोहार की " पर पहला जैनेन्द्र कुमार जैन पुरस्कार देने की घोषणा की l आशा है देश की अन्य राज्यों की साहित्य परिषद भी प्रेरित हों अपने यहाँ भी लघुकथा को शीर्ष साहित्यिक पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल करेंगी, क्योंकि अब लघुकथा की चमक को अनदेखा करना असंभव है l

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- नेतराम भारती

गाज़ियाबाद उत्तर प्रदेश