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सोमवार, 24 नवंबर 2025

पुस्तक समीक्षा । लघुकथा संग्रह: पावन तट पर । समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप

पावन तट पर: आस्था, मानवता और विवेक का उजला संग

संपादक सुरेश सौरभ हिंदी साहित्य जगत में एक प्रतिष्ठित और बहुआयामी रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। उनकी भाषा में गहन संवेदना है, तो विचारों में सामाजिक यथार्थ का तीक्ष्ण दृष्टिकोण। वे उन साहित्यकारों में से हैं जिनके लेखन में न केवल कलात्मकता बल्कि मानवता की सच्ची पुकार सुनाई देती है। एक शिक्षक के रूप में वे नई पीढ़ी को साहित्यिक चेतना से जोड़ने का कार्य कर रहे हैं, तो एक कथाकार के रूप में वे समाज की विडंबनाओं को शब्दों के माध्यम से उजागर कर रहे हैं। "पावन तट पर" का संपादन उनके इसी संवेदनशील और सजग साहित्यकार रूप का प्रमाण है। इस साझा लघुकथा-संग्रह में उन्होंने विभिन्न दृष्टिकोणों से कुंभ जैसे विशाल सांस्कृतिक आयोजन को देखने की एक ईमानदार और बहुआयामी कोशिश की है।

यह संग्रह केवल कुंभ मेले का साहित्यिक दस्तावेज नहीं, बल्कि यह भारतीय जनमानस की आस्था, विश्वास, विरोधाभास और विवेक का प्रत्यक्ष चित्रण है। कुंभ, जो सदियों से हमारी आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक रहा है, जहाँ लाखों-करोड़ों लोग पुण्य स्नान के लिए एकत्र होते हैं, वहाँ मानवता की असंख्य कहानियाँ भी जन्म लेती हैं- कुछ श्रद्धा से भरी, कुछ पीड़ा से सराबोर, कुछ प्रश्नों से दग्ध। “पावन तट पर” इन सबको अपने भीतर समेटे हुए है।



संपादक सुरेश सौरभ ने इस संग्रह के माध्यम से केवल धार्मिक आस्था का उत्सव प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि उन्होंने उन सामाजिक सच्चाइयों को भी स्वर दिया है जिन्हें अक्सर धार्मिक आवरण के नीचे दबा दिया जाता है। वे इस बात को भली-भांति समझते हैं कि आस्था और अंधविश्वास के बीच एक बेहद महीन रेखा है, और इसी रेखा पर यह संकलन चलता है, कभी श्रद्धा की उजली रोशनी में, तो कभी पाखंड की काली छाया में।

इस संग्रह की विशेषता यह है कि इसमें सम्मिलित प्रत्येक लघुकथा अपने आप में एक अलग दृष्टि, एक अलग संवेदना और एक अलग समाज-सत्य को उद्घाटित करती है। डॉ. रशीद गौरी की ‘निपटारा’ में हम देखते हैं कि कैसे आधुनिक समाज में कुछ लोग आपदा में भी अवसर तलाश लेते हैं। कुंभ जैसे पवित्र अवसर को भी स्वार्थ और छल का माध्यम बना देना, यह रचना हमें भीतर तक झकझोर देती है। वहीं सूर्यदीप कुशवाहा की ‘पुण्य फल’ में मानवीय करुणा का उज्ज्वल उदाहरण मिलता है। रचना यह संदेश देती है कि सच्चा पुण्य किसी तीर्थ या स्नान में नहीं, बल्कि मनुष्य की सहायता में निहित है।

डॉ. पूरन सिंह की ‘ये माँ ही हो सकती है’ पाठक को भावनाओं के ऐसे संसार में ले जाती है, जहाँ मातृत्व की ममता धर्म, दूरी, और वृद्धावस्था के हर बंधन को तोड़ देती है। वृद्धाश्रम की दीवारों के भीतर भी आस्था का दीप जलता है, जो इस लघुकथा को अनमोल बनाता है। डॉ. अंजू दुआ जैमिनी की ‘मोक्ष बनाम मुक्ति’ आधुनिकता और परंपरा के टकराव पर एक साहसिक प्रश्न उठाती है कि क्या केवल स्नान से मुक्ति संभव है, जब जल ही रोग का कारण बन जाए? यह लघुकथा धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति प्रश्नाकुल दृष्टि प्रस्तुत करती है। वहीं मनोरमा पंत की ‘मुक्ति की खुशी’ में कुंभ की भीड़ में उमड़ती श्रद्धा की सहजता और नादान हृदय की मासूमता का चित्रण है, जो दिखाता है कि आस्था आज भी भारतीय मन में गहराई से रची-बसी है।

रमाकांत चौधरी की ‘पूर्व जन्म के पाप’ एक मार्मिक लघुकथा है उन ठगों पर जो श्रद्धा का शोषण कर धर्म की गरिमा को कलंकित करते हैं। यह रचना धर्म के बाजारीकरण पर करारा प्रहार करती है। इसी क्रम में गुलज़ार हुसैन, सेवा सदन प्रसाद, चित्रगुप्त, अरविंद असर आदि लघुकथाकारों ने भी समाज में फैली कुरीतियों और विसंगतियों को गहरी संवेदनशीलता और विचारशीलता से उजागर किया है। इन सभी रचनाओं के बीच “पावन तट पर” एक ध्रुव तारे की भांति चमकता है, जो आस्था और विवेक, परंपरा और आधुनिकता, भावना और तर्क, सभी के बीच संतुलन साधता है। इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह किसी धर्म या विचारधारा का पक्ष नहीं लेता, बल्कि मानवता के पक्ष में खड़ा होता है। यही इसे कालजयी बनाता है।

सुरेश सौरभ की भूमिका में व्यक्त विचार संग्रह की आत्मा हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि साहित्यकार का कार्य किसी विशेष पंथ, जाति या विचारधारा का प्रचार करना नहीं, बल्कि सत्य और मानवता की खोज करना है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि दरबारी लेखकों और एजेंडा-चालित रचनाकारों के बीच सच्चे साहित्यकार का दायित्व और भी बढ़ जाता है। सौरभ जी इस बात पर बल देते हैं कि साहित्य वही शाश्वत होता है जो निष्पक्ष, मानवीय और जन-सरोकारों से जुड़ा हो। उनका यह कथन अत्यंत सार्थक है कि “आस्था और अंधविश्वास में एक महीन रेखा है, जिसे समझना और परखना आवश्यक है।” यही बात इस संग्रह को विचारशील बनाती है। “पावन तट पर” न केवल कुंभ के दृश्यात्मक संसार को उकेरता है, बल्कि वह यह भी पूछता है कि क्या हमारी आस्था मानवता को सशक्त बना रही है या उसे अंधकार की ओर धकेल रही है।

यह संग्रह पाठक को बार-बार सोचने पर मजबूर करता है, कुंभ का मेला केवल आस्था का प्रतीक है या यह हमारे समाज की व्यवस्था का आईना भी है? भीड़ में उमड़ती संवेदनाएँ, भक्ति में लिपटा व्यवसाय, स्नान में छिपा स्वार्थ और त्याग- इन सबका सम्मिलित चित्र यह पुस्तक अत्यंत सजीवता से प्रस्तुत करती है। संपादक के रूप में सुरेश सौरभ ने रचनाकारों का चयन अत्यंत सजग दृष्टि से किया है। उन्होंने अनुभवी लेखकों के साथ-साथ नवोदित प्रतिभाओं को भी समान मंच दिया है। यह उनकी लोकतांत्रिक संपादकीय दृष्टि का परिचायक है। उन्होंने केवल कथाओं को संकलित नहीं किया, बल्कि उन्हें एक वैचारिक सूत्र में पिरोया है, जिससे पूरी पुस्तक एक संपूर्ण दार्शनिक विमर्श का रूप ले लेती है।

भाषा की दृष्टि से भी यह संग्रह उल्लेखनीय है। प्रत्येक लघुकथा में एक विशिष्ट शैली, एक अलग लय, और एक सजीव चित्रात्मकता दिखाई देती है। कहीं आस्था का पवित्र जल बहता है, तो कहीं समाज के मलिन जल की गंध आती है। किंतु हर रचना का अंत पाठक के मन में कोई न कोई सवाल, कोई चुभन या कोई आलोक छोड़ जाता है। यही एक सफल लघुकथा-संग्रह की पहचान है। “पावन तट पर” का महत्व केवल धार्मिक या सामाजिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और साहित्यिक दोनों है। यह पुस्तक बताती है कि भारतीय आस्था केवल अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों की पवित्रता में निहित है। यह संग्रह पाठक को एक ऐसी यात्रा पर ले जाता है जहाँ स्नान केवल जल में नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर होता है, मलिनताओं से मुक्ति का, और विवेक की ओर अग्रसर होने का।

इस तरह से यह कहा जा सकता है कि “पावन तट पर” एक ऐसा साहित्यिक संकलन है जो अपने समय का साक्षी भी है और समाज का दर्पण भी। यह न केवल पढ़ने योग्य, बल्कि संभालकर रखने योग्य पुस्तक है- एक दस्तावेज, जो आने वाले समय में भी यह बताएगा कि साहित्यकार केवल शब्दों का जादूगर नहीं होता, वह युग का मूक इतिहासकार होता है। सुरेश सौरभ और सभी रचनाकारों को इस उत्कृष्ट साहित्यिक प्रयास के लिए साधुवाद। यह संग्रह न केवल कुंभ मेले की कथा कहता है, बल्कि मानवता के कुंभ की भी व्याख्या करता है, जहाँ हर मन, हर विश्वास, हर संवेदना एक साथ स्नान करती है सत्य और करुणा के पावन जल में।

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समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप

पुस्तक: पावन तट पर

संपादक : सुरेश सौरभ

प्रकाशन: समृद्ध पब्लिकेशन, दिल्ली

मूल्य: 250 रुपये

रविवार, 8 दिसंबर 2024

पुस्तक समीक्षा | घरों को ढोते लोग | समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप

वंचित वर्गों का दर्द बयां करता "घरों को ढोते लोग"


साहित्य में लघुकथाओं का महत्व इस बात में है कि वे कम शब्दों में गहरी संवेदनाओं और विचारों को व्यक्त करने में सक्षम होती हैं। लघुकथा का यह गुण सुरेश सौरभ द्वारा संपादित संग्रह “घरों को ढोते लोग” में बखूबी देखने को मिलता है। यह संग्रह समाज के उन हाशिए पर खड़े लोगों की कहानियों को सामने लाता है, जिनकी उपस्थिति हमारे जीवन में तो निरंतर होती है, लेकिन जिनके संघर्ष और जीवन की कठिनाइयों पर हम अक्सर ध्यान नहीं देते। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों की 71 लघुकथाओं का संकलन है, जो मजदूरों, किसानों, कामकाजी महिलाओं, और समाज के मेहनतकश तबकों की जिन्दगी को मार्मिकता से उकेरता है।

संग्रह का केंद्रीय विषय समाज के मेहनतकश वर्ग का जीवन और संघर्ष है। इन लघुकथाओं में दैनिक जीवन की कठिनाइयों, आर्थिक संकट, सामाजिक असमानता, और मेहनत के बावजूद मिलने वाली तिरस्कारपूर्ण दृष्टि को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया गया है। ये कहानियां उन लोगों की हैं, जो हमारे घरों, फैक्ट्रियों, खेतों और सड़कों पर काम करके समाज को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिनके खुद के जीवन में शांति और सम्मान की कमी होती है।

इन लघुकथाओं में ऐसी कहानियों को पेश किया गया है, जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि समाज में किस तरह से असमानता व्याप्त है। उदाहरणस्वरूप, एक कहानी में एक घरेलू कामगार की रोजमर्रा की जिंदगी को दिखाया गया है, जिसमें उसकी कड़ी मेहनत के बावजूद उसे उचित सम्मान और वेतन नहीं मिलता। वहीं, दूसरी कहानी में एक किसान के संघर्ष को दिखाया गया है, जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए दिन-रात मेहनत करता है, लेकिन बाजार की बेरहम व्यवस्था उसकी मेहनत को नकार देती है।

“घरों को ढोते लोग” भावनात्मक रूप से अत्यधिक संवेदनशील और उद्वेलित करने वाला संग्रह है। प्रत्येक लघुकथा समाज की उस सच्चाई को उजागर करती है, जिसे हम नजरअंदाज करते हैं। यह संग्रह हमारे समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियों को भी दिखाता है, जो हमें आत्ममंथन करने पर विवश करती हैं। हर कहानी में एक ऐसी पीड़ा और संघर्ष छिपा है, जो पाठक को उन लोगों के जीवन के साथ एक गहरे स्तर पर जुड़ने का अवसर प्रदान करती है।

इस संग्रह की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें मेहनतकश वर्ग की इच्छाओं, सपनों और मानवीय संवेदनाओं को भी प्रमुखता दी गई है। ये कहानियां केवल कठिनाइयों और दुखों का चित्रण नहीं करतीं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि किस प्रकार ये लोग अपने सपनों को जीने के लिए लगातार संघर्ष करते रहते हैं।

संग्रह की भाषा सरल और सहज है, जो हर पाठक के लिए सुलभ है।  लघुकथाकारों ने जटिल सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को आसान और मार्मिक भाषा में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा में सादगी के साथ-साथ एक गहरा प्रभाव भी है, जो पाठक को कथाओं से जोड़ता है। सरल शब्दों के माध्यम से गहरी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है, और इस संग्रह में यह बखूबी किया गया है।

लघुकथाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में व्याप्त असमानता और अन्याय की ओर ध्यान आकर्षित करना है। भाषा की सहजता और कथाओं की गहराई इसे एक ऐसा संग्रह बनाती है, जिसे पढ़ने के बाद पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है।

सुरेश सौरभ ने इस संग्रह को संपादित करके साहित्य की दुनिया में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने न केवल एक विविधतापूर्ण लघुकथा संग्रह प्रस्तुत किया है, बल्कि उन आवाजों को मंच प्रदान किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रहती हैं। यह संग्रह एक प्रयास है उन मेहनतकश लोगों की जिंदगी को सम्मान और पहचान दिलाने का, जो समाज की रीढ़ होते हुए भी अक्सर अनदेखे रह जाते हैं।

संपादक की दृष्टि और उनकी साहित्यिक समझ के कारण यह संग्रह एक बेहतरीन दस्तावेज बन पाया है। उन्होंने समाज के उस वर्ग की आवाज को साहित्य में स्थान दिलाया है, जिसे अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। यह न केवल एक साहित्यिक कृति है, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज भी है, जो हमारे समाज की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करता है।

इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह समाज में संवेदनशीलता और जागरूकता को बढ़ावा देता है। यह उन कहानियों को प्रस्तुत करता है, जिन्हें सुनने और समझने की आवश्यकता है। संग्रह की लघुकथाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि हम अपने समाज के कमजोर तबकों के प्रति कितने उदासीन हो गए हैं। यह संग्रह हमारे समाज के उस वर्ग के लिए एक आवाज बनकर उभरता है, जो बिना किसी शिकायत के अपने जीवन की कठिनाइयों को झेलता रहता है।

पाठक को यह संग्रह केवल मनोरंजन के लिए नहीं पढ़ना चाहिए, बल्कि इसे एक आईने के रूप में देखना चाहिए, जो हमारे समाज की सच्चाई को उजागर करता है। यह संग्रह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि अगर हम एक समानता और सम्मान से भरा समाज चाहते हैं, तो हमें इन मेहनतकश लोगों के संघर्षों और उनकी जरूरतों को समझने और उन्हें सम्मान देने की आवश्यकता है।

“घरों को ढोते लोग” एक ऐसा संग्रह है, जो न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि समाजिक दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। यह हमें हमारे चारों ओर की दुनिया को समझने और उसे बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करता है। इस संग्रह की लघुकथाएं न केवल मेहनतकश वर्ग के संघर्षों को उजागर करती हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि उनके जीवन में कितना साहस, धैर्य और मानवीयता है।

सुरेश सौरभ ने इस संग्रह के माध्यम से एक ऐसा साहित्यिक योगदान दिया है, जो लंबे समय तक पाठकों के दिलों में बसेगा। यह संग्रह न केवल एक किताब है, बल्कि यह समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारियों और हमारी उदासीनता का आईना है। “घरों को ढोते लोग” एक ऐसा साहित्यिक प्रयास है, जिसे न केवल पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि इस पर गहन चिंतन भी किया जाना चाहिए।

समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक: घरों को ढोते लोग
संपादक: सुरेश सौरभ
प्रकाशन: समृद्ध प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 245 रुपये
वर्ष-2024