रक्षा कवच
शहर की सबसे बड़ी होली के धधकते अंगारों से निकलती आसमान छूती लपटें पूर्णिमा के चाँद को जैसे लाल करने को आतुर थीं। उस दृश्य को देखने एक परिवार के तीन सदस्य पिता, माँ और उनकी बेटी भी होलिका दहन में आये हुए थे। लगभग 22 वर्षीया बेटी, जिसने एक वर्ष पूर्व ही एक नारी सशक्तिकरण संस्थान में कार्य करना प्रारम्भ किया था, उस दहकती अग्नि को गौर से देख रही थी और देखते-देखते उसकी आखों में आंसू आ गए। बेटी के आंसू माँ की नजरों से छिप नहीं सके। उसने अपनी बेटी को अपने पास लाकर प्यार से पूछा, “अरे! क्या हुआ तुझे?”
बेटी ने ना की मुद्रा में सिर हिला कर कहा, “कुछ नहीं माँ, लेकिन मुझे लगता है कि होलिका ने प्रह्लाद को खुद ही अपनी ना जलने वाली चादर दे दी होगी, ताकि उसका भतीजा नहीं जले। लेकिन अगर प्रह्लाद बेटी होता तो शायद वह अपनी चादर कभी नहीं देती।”
कहते-कहते उसका स्वर भर्रा गया।
उसके पिता ने यह बात सुनकर उसके कंधे पर हाथ रखा और गंभीर स्वर में कहा, “तब शायद उसका पिता हिरण्यकश्यप ही एक और चादर का इंतजाम कर देता। ना बुआ जलती और ना ही भतीजी।“
फिर एक क्षण चुप रहते हुए पिता ने अपनी बेटी को गौर से देखा और कहा,“प्रेम की चादर को क्रोध की अग्नि जला नहीं सकती।”
और बेटी की आखों में चमक आ गयी।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी