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बुधवार, 6 मई 2020
शनिवार, 28 सितंबर 2019
अब लघुकथा संकलन भी विश्वविद्यालयों के पाठ्क्रमों में शामिल | अनघा जोगलेकर
साहित्य से नई पीढ़ी को परिचित करवाने के लिए साहित्य की विभिन्न विधाएँ विद्यार्थियों को पाठ्क्रम के अंतर्गत पढ़ाई जाती हैं। इसी उपक्रम में अब साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा लघुकथा को भी मान्य विधा के रूप में स्वीकृत करते हुए विश्वविद्यालयों में लघुकथा को लघुकथा की पूर्ण पुस्तक के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। अभी तक छुटपुट लघुकथाओं का उपयोग पाठ्यक्रम में होता आया है, लेकिन यह पहली बार ही हुआ है कि, लघुकथा की पूरी पुस्तकों को उसी तरह पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है जिस तरह से कविता और कहानी की पुस्तकें पाठ्यक्रम में शामिल होती आई हैं।
इस वर्ष के बी.बी.ए. एवम बी.ए. के प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में दो लघुकथा संकलन पढ़ाये जा रहे हैं। कथाकार बलराम द्वारा संपादित इन दोनों ही संकलनों, 'लघुकथा लहरी' व 'छोटी बड़ी कथाएँ', का रशियन कल्चरल अकादमी में भव्य लोकार्पण किया गया ।
यह बहुत ही हर्ष का विषय है कि अब लघुकथा भी अपनी सशक्तता के कारण एक विधा के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल हो गई है और आशा है कि आने वाले समय में अन्य विश्वविद्यालयों में भी लघुकथा की और पुस्तकें पाठ्यक्रम में शामिल की जायेंगी। कथाकार बलराम द्वारा संपादित लघुकथा की इन पुस्तकों को राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा प्रकाशित किया गया है।
इन पुस्तकों में लघुकथाओं के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चन्द्र, प्रेमचंद, विष्णु प्रभाकर, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, हरिशंकर परसाई आदि के साथ वर्तमान लघुकथाकार चित्रा मुद्गल, सुकेश साहनी, रामेश्वर कम्बोज हिमांशु, बलराम, मधुदीप गुप्ता, अशोक भाटिया, अशोक जैन, सुभाष नीरव, सूर्यकांत नागर, सतीश राठी, राकेश शर्मा, चैतन्य त्रिवेदी, चेतना भाटी, अंतरा करवड़े, अनघा जोगलेकर आदि की लघुकथाएँ शामिल हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के काल से ही लघुकथा लेखन आरंभ हो चुका था परन्तु पिछले 40-45 वर्षों से लघुकथा पर गहन शोध कार्य एवम निरंतर लेखन शुरू हो चुका है। वर्तमान में मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश आदि में लघुकथा पर विशेष कार्य किया जा रहा है। गत वर्ष इंदौर में 'क्षितिज' संस्था द्वारा अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन का भव्य आयोजन किया गया। क्षितिज संस्था पिछले 36 वर्षों से लघुकथा विधा के विकास के लिए सतत कार्यरत रही है। गत वर्ष सिरसा में भी लघुकथा सम्मेलन का सफल आयोजन किया गया। कान्ता राय के नेतृत्व में भोपाल लघुकथा शोधकेंद्र भी सक्रियता से लघुकथा के विकास में कार्यरत है।
इसी कड़ी में श्याम सुंदर अग्रवाल के सम्पादन में पंजाब से प्रकाशित पत्रिका 'मिन्नी', सतीश राठी के सम्पादन में 'क्षितिज', अशोक जैन के सम्पादन में 'दृष्टि', योगराज प्रभाकर के सम्पादन में 'लघुकथा कलश', मधुदीप गुप्ता की लघुकथा पुस्तक श्रृंखला 'पड़ाव और पड़ताल' व स्वयं कथाकार बलराम का लघुकथा को एक विधा के रूप में प्रतिष्ठित कराने में विशेष योगदान रहा है। श्री बलराम के संपादन में अभी तक लघुकथा कोश, लघुकथा विश्वकोश और लघुकथा के लिए ढेर सारी पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। उन्हीं के सतत प्रयासों ने आज लघुकथा को इस स्थान पर लाकर विराजित कर दिया है।
इसी कड़ी में श्याम सुंदर अग्रवाल के सम्पादन में पंजाब से प्रकाशित पत्रिका 'मिन्नी', सतीश राठी के सम्पादन में 'क्षितिज', अशोक जैन के सम्पादन में 'दृष्टि', योगराज प्रभाकर के सम्पादन में 'लघुकथा कलश', मधुदीप गुप्ता की लघुकथा पुस्तक श्रृंखला 'पड़ाव और पड़ताल' व स्वयं कथाकार बलराम का लघुकथा को एक विधा के रूप में प्रतिष्ठित कराने में विशेष योगदान रहा है। श्री बलराम के संपादन में अभी तक लघुकथा कोश, लघुकथा विश्वकोश और लघुकथा के लिए ढेर सारी पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। उन्हीं के सतत प्रयासों ने आज लघुकथा को इस स्थान पर लाकर विराजित कर दिया है।
अनघा जोगलेकर
सोमवार, 22 अप्रैल 2019
शकुंतला कपूर स्मृति अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2019 में द्वितीय स्थान विजेता लघुकथा | लघुकथाकारा: अनघा जोगलेकर
जिंदगी का सफर
"ये क्या हो गया मेरी फूल-सी बच्ची को। मैंने तो अभी इसकी विदाई के सपने सजाना शुरू ही किया था। क्या पता था कि इसे इस तरह हमेशा के लिए विदा...." माँ फूट-फूटकर रो रही थी। पिताजी उन्हें ढांढस बंधा रहे थे।
मुझे ब्लड केंसर हो गया था लेकिन मैंने कीमोथेरेपी करवाने से इंकार कर दिया था। मैं तिल-तिलकर मरते हुए जीना नही चाहती थी। ऐसी स्थिति में मेरे पास मात्र छः महीने का समय बचा था जिसे मैं जी भर कर जी लेना चाहती थी।
माँ जब मेरे कमरे में चाय का कप लेकर पहुँचीं तो उनकी आँखों की लाली देख मैं 'आनंद' फ़िल्म की स्टाइल में बोली, "माँss, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नही। मौत तो एक पल है बाबुमौशाय....." और मैं जोर का ठहाका लगाकर हँस पड़ी।।
मेरी नौटंखी देख माँ भी मुस्कुरा दीं लेकिन वे अपनी आँख में आई पानी की लकीर न छुपा सकीं। उन्होंने दो-तीन बार पलकें झपकायीं फिर बोलीं, "आज मौसम बहुत अच्छा है। चल, झील के किनारे चलकर बैठते हैं।" इतना कह उन्होंने मुझे शॉल ओढाई और हम निकल पड़े।
झील किनारे लगे फूलों को देख माँ फिर उदास हो उठीं। बोलीं, "इन फूलों की जिंदगी भी कितनी छोटी होती है न!"
"हाँ माँ, लेकिन इस थोड़े से समय मे भी ये दुनिया को कितना कुछ दे जाते हैं। अपनी खुशबू, अपना पराग, अपने बीज....," इतना कह मैं यकायक माँ की ओर पलटी। मेरी आँखों में चमक थी, "माँ, मेरे जाने के बाद मेरा शरीर मेडिकल कॉलेज को दान कर देना। हो सकता है मेरी देह पर कुछ नए प्रयोग कर वे इस जानलेवा कैंसर का इलाज ढूंढ सकें।"
मेरी बात सुन एक पल को तो माँ कांप गई फिर मेरे सर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, "इसका इलाज मिले-न-मिले मेरी बच्ची....लेकिन जब वे तेरे दिल को छुयेंगे न.....तो जीवन जीने की कला जरूर सीख जायेंगे।" इतना कह माँ ने अपना सर मेरे कांधे पर टिका दिया। मेरी बांह माँ के आँसुओं से भीगती चली गई।
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©अनघा जोगलेकर
गुरुवार, 11 अप्रैल 2019
पुस्तक समीक्षा | श्रापित योद्धा की कष्ट कथा | सतीश राठी
महाभारत हमारे प्राचीन इतिहास की एक ऐसी कथा है, जिसमें धर्म भी है धर्मराज भी है और अधर्म भी है, कृपा भी है पीड़ा भी है, स्वार्थ भी है सेवा भी है, वैमनस्य भी है प्रेम भी है, राजनीति भी है त्याग भी है ,प्रतिशोध भी है दया भी है, कपट भी है निश्चलता भी है, छल भी है और ईमानदारी भी । यह कथा जीवन का एक ऐसा सत्य है जिसमें सारे सुख भी हैं ,सारे दुख भी और इसी कथा का एक पात्र ऐसा भी है जिसके क्रोध ने उसके जीवन को ऐसा नष्ट किया कि वह अपनी यातना, अपनी पीड़ा को सहते हुए आज तक भटक रहा है। ऐतिहासिक किंवदंती को उपन्यास का मुख्य विषय बना कर अश्वत्थामा जैसे खलनायक पात्र को नायक बनाकर श्रीमती अनघा जोगलेकर ने अपना उपन्यास रचा है, 'अश्वत्थामा: यातना का अमरत्व'।
जीवन में सुख का घंटों का समय भी क्षण मात्र लगता है और दुख का क्षण भी व्यतीत ही नहीं होता । यदि किसी व्यक्ति को दुख और यातना का जीवन भर का श्राप मिल जाए और जीवन अमर हो जाए, तो फिर उसका भटकाव कैसा होगा, इसे शब्द देना शायद बड़ा कठिन है और एक कड़ी परीक्षा भी। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मुझे यह लगा कि अनघा जी इस कड़ी परीक्षा में मेरिट लिस्ट में पास हुई हैं। उन्होंने महाभारत के इस सूक्ष्म से विषय को उठाकर विस्तार दिया है। उनकी भाषा पर पकड़ और लेखन के शिल्प पर उनका आधिपत्य ,इतना अधिक तैयारी से परिपूर्ण है कि उपन्यास को पढ़ते हुए कहीं पर भी यह नहीं लगा कि हम कहीं उससे अलग हो रहे हैं। एक चुनौतीपूर्ण बात थी कि अनघा जी ने अश्वत्थामा पर उपन्यास लिखने का विचार बना लिया और यह विचार पूरे शोध के साथ प्रस्तुत भी किया।
ऐसा कहा जाता है कि जब कोई व्यक्ति लिखने बैठता है, तो पात्र उसके सामने जीवंत हो जाते हैं। यहां पर अश्वत्थामा जैसे पात्र पर उसे जीवंत कर लिखना कितना पीड़ादायक होगा यह समझा जा सकता है। उपन्यास का प्रारंभ शारण देव नामक एक ब्राह्मण को कथा का सूत्रधार बनाकर किया गया है। शारण देव, उसका पुत्र शत और उसकी पत्नी भगवती इस कथा के सूत्रधार पात्र हैं जो कहीं ना कहीं अपनी भावनाओं के साथ इसमें जुड़ भी जाते हैं। यह तो दंतकथा है कि अश्वत्थामा जो दुर्योधन के अंतिम सेनापति रहे कृष्ण के श्राप से आज भी वन वन भटक रहे हैं, लेकिन क्या वाकई में श्राप होता है या फिर कर्मफल जीवन के साथ यात्रा करते हैं।लेखिका ने प्रत्येक अध्याय के पहले ऐसे कुछ प्रश्न भी उठाए हैं और उनके समाधान भी दिए हैं। महाभारत में कई सारी चमत्कारिक घटनाएं वर्णित है, उनके पीछे के तथ्य और तर्क को विभिन्न अध्यायों के पूर्व तार्किक समाधान के साथ प्रस्तुत किया गया है ।
आचार्य द्रोणाचार्य का पुत्र, आचार्य कृपाचार्य का भांजा ,दुर्योधन और कर्ण का प्रिय मित्र अश्वत्थामा जब अपनी कथा खुद शारण देव के सामने वर्णित करता है तो अध्याय दर अध्याय उसका दुख, उसका पश्चाताप उसके शरीर से निकल रहे मवाद की तरह सामने बहता हुआ दिखता है। जन्म के समय अश्व की तरह हिनाहिनाने की आवाज करते हुए पैदा होने से पिता ने उनका नाम अश्वत्थामा रख दिया और यह अभिशापित नाम इतिहास का एक ऐसा हिस्सा बना जो दर-दर भटकने के लिए शापित हो गया है। इसकी पूर्व पीठिका के रूप में कृपा कृपी के जन्म की भी कथा है और वहीं से सूत्र जोड़कर कथा को विस्तार दिया है। अनावश्यक हिस्से को बड़ी कुशलता के साथ उपन्यास का हिस्सा बनने से हटा दिया गया है। कृष्ण भी हर पृष्ठ पर विद्यमान होते हुए शायद कहीं नहीं है। यह लेखिका की कुशलता की बात है। कौरव और पांडव और महाभारत के पात्र इतने महत्वपूर्ण रहे हैं कि, उनकी छाया में कोई दूसरा पात्र खड़ा ही नहीं हो सकता, पर यह अनघा जी का लेखकीय कौशल्य है कि उन्होंने अन्य समस्त महत्वपूर्ण पात्रों को छाया रूप में रखते हुए अश्वत्थामा का अंतर्मन यहां पर प्रस्तुत किया है ।क्रोध भी आता है और दया भी पैदा होती है। उसका दुख एक खलनायक का दुख है, पर पाठक वहां पर भी जाकर जुड़ता है। खलनायक को कहीं पर भी नायक बनाने की कोशिश नहीं की गई है पर रचना कौशल से उसका पश्चाताप भी सामने आया है और उसका क्रोध तथा अहंकार भी । यह सब एक साथ किसी पुस्तक में रखना जिस अतिरिक्त कौशल की जरूरत की ओर इशारा करता है वह इस युवा लेखिका के पास है, और इसी कौशल के साथ लिखे जाने से यह उपन्यास विश्वसनीय भी हो गया है।
उस समय के सारे तथ्यों पर खोजबीन के साथ प्रत्येक अध्याय के पहले जो समाधान टिप्पणियां दी गई हैं वह सारी टिप्पणियां अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण हैं ,क्योंकि उनमें उठाए गए प्रश्न और उनके समाधान फिर कुछ नए प्रश्न भी खड़े कर देते हैं, और पाठक की सोच को विस्तार भी देते हैं। शायद यह विस्तार पाना ही तो किसी उपन्यासकार की इच्छा होती है, और उसके लिखे जाने की सफलता भी। इस मायने में अनघा जी पूरी तरह सफल हैं और बधाई की हकदार भी।
यह पुस्तक अमेज़ॉन पर उपलब्ध है। इसे लेखिका से सीधे प्राप्त करने हेतु नीचे दिये ईमेल पर सम्पर्क कर सकते हैं
anaghajoglekar@yahoo.co.in
- सतीश राठी
आर 451, महालक्ष्मी नगर ,
इंदौर 452 010
मोबाइल 94250 67204
-------------
जीवन में सुख का घंटों का समय भी क्षण मात्र लगता है और दुख का क्षण भी व्यतीत ही नहीं होता । यदि किसी व्यक्ति को दुख और यातना का जीवन भर का श्राप मिल जाए और जीवन अमर हो जाए, तो फिर उसका भटकाव कैसा होगा, इसे शब्द देना शायद बड़ा कठिन है और एक कड़ी परीक्षा भी। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मुझे यह लगा कि अनघा जी इस कड़ी परीक्षा में मेरिट लिस्ट में पास हुई हैं। उन्होंने महाभारत के इस सूक्ष्म से विषय को उठाकर विस्तार दिया है। उनकी भाषा पर पकड़ और लेखन के शिल्प पर उनका आधिपत्य ,इतना अधिक तैयारी से परिपूर्ण है कि उपन्यास को पढ़ते हुए कहीं पर भी यह नहीं लगा कि हम कहीं उससे अलग हो रहे हैं। एक चुनौतीपूर्ण बात थी कि अनघा जी ने अश्वत्थामा पर उपन्यास लिखने का विचार बना लिया और यह विचार पूरे शोध के साथ प्रस्तुत भी किया।
ऐसा कहा जाता है कि जब कोई व्यक्ति लिखने बैठता है, तो पात्र उसके सामने जीवंत हो जाते हैं। यहां पर अश्वत्थामा जैसे पात्र पर उसे जीवंत कर लिखना कितना पीड़ादायक होगा यह समझा जा सकता है। उपन्यास का प्रारंभ शारण देव नामक एक ब्राह्मण को कथा का सूत्रधार बनाकर किया गया है। शारण देव, उसका पुत्र शत और उसकी पत्नी भगवती इस कथा के सूत्रधार पात्र हैं जो कहीं ना कहीं अपनी भावनाओं के साथ इसमें जुड़ भी जाते हैं। यह तो दंतकथा है कि अश्वत्थामा जो दुर्योधन के अंतिम सेनापति रहे कृष्ण के श्राप से आज भी वन वन भटक रहे हैं, लेकिन क्या वाकई में श्राप होता है या फिर कर्मफल जीवन के साथ यात्रा करते हैं।लेखिका ने प्रत्येक अध्याय के पहले ऐसे कुछ प्रश्न भी उठाए हैं और उनके समाधान भी दिए हैं। महाभारत में कई सारी चमत्कारिक घटनाएं वर्णित है, उनके पीछे के तथ्य और तर्क को विभिन्न अध्यायों के पूर्व तार्किक समाधान के साथ प्रस्तुत किया गया है ।
आचार्य द्रोणाचार्य का पुत्र, आचार्य कृपाचार्य का भांजा ,दुर्योधन और कर्ण का प्रिय मित्र अश्वत्थामा जब अपनी कथा खुद शारण देव के सामने वर्णित करता है तो अध्याय दर अध्याय उसका दुख, उसका पश्चाताप उसके शरीर से निकल रहे मवाद की तरह सामने बहता हुआ दिखता है। जन्म के समय अश्व की तरह हिनाहिनाने की आवाज करते हुए पैदा होने से पिता ने उनका नाम अश्वत्थामा रख दिया और यह अभिशापित नाम इतिहास का एक ऐसा हिस्सा बना जो दर-दर भटकने के लिए शापित हो गया है। इसकी पूर्व पीठिका के रूप में कृपा कृपी के जन्म की भी कथा है और वहीं से सूत्र जोड़कर कथा को विस्तार दिया है। अनावश्यक हिस्से को बड़ी कुशलता के साथ उपन्यास का हिस्सा बनने से हटा दिया गया है। कृष्ण भी हर पृष्ठ पर विद्यमान होते हुए शायद कहीं नहीं है। यह लेखिका की कुशलता की बात है। कौरव और पांडव और महाभारत के पात्र इतने महत्वपूर्ण रहे हैं कि, उनकी छाया में कोई दूसरा पात्र खड़ा ही नहीं हो सकता, पर यह अनघा जी का लेखकीय कौशल्य है कि उन्होंने अन्य समस्त महत्वपूर्ण पात्रों को छाया रूप में रखते हुए अश्वत्थामा का अंतर्मन यहां पर प्रस्तुत किया है ।क्रोध भी आता है और दया भी पैदा होती है। उसका दुख एक खलनायक का दुख है, पर पाठक वहां पर भी जाकर जुड़ता है। खलनायक को कहीं पर भी नायक बनाने की कोशिश नहीं की गई है पर रचना कौशल से उसका पश्चाताप भी सामने आया है और उसका क्रोध तथा अहंकार भी । यह सब एक साथ किसी पुस्तक में रखना जिस अतिरिक्त कौशल की जरूरत की ओर इशारा करता है वह इस युवा लेखिका के पास है, और इसी कौशल के साथ लिखे जाने से यह उपन्यास विश्वसनीय भी हो गया है।
उस समय के सारे तथ्यों पर खोजबीन के साथ प्रत्येक अध्याय के पहले जो समाधान टिप्पणियां दी गई हैं वह सारी टिप्पणियां अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण हैं ,क्योंकि उनमें उठाए गए प्रश्न और उनके समाधान फिर कुछ नए प्रश्न भी खड़े कर देते हैं, और पाठक की सोच को विस्तार भी देते हैं। शायद यह विस्तार पाना ही तो किसी उपन्यासकार की इच्छा होती है, और उसके लिखे जाने की सफलता भी। इस मायने में अनघा जी पूरी तरह सफल हैं और बधाई की हकदार भी।
यह पुस्तक अमेज़ॉन पर उपलब्ध है। इसे लेखिका से सीधे प्राप्त करने हेतु नीचे दिये ईमेल पर सम्पर्क कर सकते हैं
anaghajoglekar@yahoo.co.in
- सतीश राठी
आर 451, महालक्ष्मी नगर ,
इंदौर 452 010
मोबाइल 94250 67204
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Note:
हालांकि अश्वत्थामा: यातना का अमरत्व एक उपन्यास है लेकिन लेखिका ने उपसंहार में एक लघुकथा को उद्धरित किया है। एक उपन्यास और लघुकथा में सहसंबंध स्थापित करना स्वागत योग्य है।बुधवार, 27 मार्च 2019
लघुकथा वीडियो : संरक्षक | अनघा जोगलेकर | आरजे अमित वधवा
नववर्ष , विक्रम संवत शायद इसीलिए भी मनाया जाता है कि हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें, क्योंकि कहा जाता कि जडें ही एक पेड़ की संरक्षक होती हैं, इंसान के जीवन का संरक्षक कौन होते हैं ? आज इस नववर्ष पर इस कहानी के साथ सुनिये - समझिये उनका महत्व।
शनिवार, 10 नवंबर 2018
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