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सोमवार, 20 जनवरी 2020

श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक - 2

सम्माननीय मित्रों,
सादर नमस्कार।

"श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक" नामक श्रृंखला के क्रम को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ लघुकथाकारा सुश्री विभा रश्मि जी की लघुकथा वर्चस्व पर चर्चा करते हैं। हालाँकि मुख्य पोस्ट पर मेरे विचार ही हैं, सभी वरिष्ठजन और मित्र कमेंट में अपने विचार को प्रकट करने हेतु पूर्ण स्वतंत्र हैं।  पहले इस रचना को पढ़ते हैं:


वर्चस्व / विभा रश्मि

पुरुष स्वर—संसार को मैं चलाने वाला…। 
गर्वीली मुस्कान!
हुम्म… लापरवाही का स्त्री स्वर उभरा। 
पुरुष­­—मंगल पर फ़तह की तैयारी, अब आगे-आगे देखती चलो ।
स्वर दर्प से लबरेज़ था।
हो…गा। मुझे क्या?  स्वर में लापरवाही।
मैं श्रेष्ठ हूँ। तुम तो सदियों से मेरे इशारों पर नाचती एक बाँदी…।
स्वर में सामंती शासकों जैसी तर्ज़ सुनाई दी।
परछाई फिर बोली—मेरे बस्स, दो हाथ एक मन, एक मुस्कान…एक कोख।
मेरी शक्ति…तुम्हारी धरा पर चौखट तक।
भारी स्वर के साथ  पुरुषत्व फैल गया, बस्स…इस पर इतना गुमान।
मेरे अविष्कारों-खोजों का तो तुम्हें गुमान ही नहीं…।
वो बोलता रहा तब तक, जब तक थक ना गया।
और स्त्री चिरमयी मुस्कान के साथ नन्ही पुरुष आकृति को स्तनपान करा जीवनदान देती रही।

-0-
इस लघुकथा पर मैं अपने अनुसार कुछ बातें कहना चाहूंगा।  कोई भी सुधिजन अपनी राय कमेंट में दे सकते हैं।


लघुकथा का उद्देश्य: मेरे अनुसार नारी के मूलभूत गुणों को बढ़ावा देना ही सही मायनों में नारी सशक्तिकरण है। स्त्री के प्रकृति प्रदत्त मूलभूत गुणों में से जनन, पालन और ममता को यहाँ दर्शाया गया है। उचित नारी शक्ति और प्रकृति ने स्त्री को पुरुष से कहीं काम नहीं बनाया, इसे भी उचित तरीके से दर्शाना, इस लघुकथा का उद्देश्य है। 

विसंगति: लैंगिक असमानता एक ऐसा दंश  है, जिसे हटा दिया जाए तो हमारे देश का काफी बेहतर विकास हो सकता है। हालाँकि यह समझते-बूझते भी कि पुरुष अपनी शारीरिक क्षमता का मूल, अपनी जीवन-शक्ति, माँ का दूध, स्वयं उत्पन्न नहीं कर सकता,  अपनी सामजिक, वैज्ञानिक, शारीरिक और मानसिक श्रेष्ठता साबित करने का असफल प्रयास कर रहा है। अपने अंत तक पहुँचते-पहुँचते यह रचना समझा देती है कि जनन की क्षमता के साथ पालन की क्षमता स्त्री में ही है। इसके अतिरिक्त अंत में 'चिरमयी मुस्कान' शब्दों का जो प्रयोग किया है वह स्त्री के अंतर्मन में स्थायी रूप से रहती हुई शांति का प्रतीक है, जो ममतामयी मुस्कराहट बनी है। 

लाघवता: 119 शब्दों की इस रचना में मुझे कहीं शब्दों को घटाने की ज़रूरत नहीं दिखाई दी। इसके अतिरिक्त यह रचना इतनी स्पष्ट है कि इसके कथानक के बारे में कुछ अधिक समझाने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हो रही। 
  
कथानक: लघुकथा में पुरुष और स्त्री दोनों अपनी बात रख रहे हैं। पुरुष स्वर और भाव जहाँ दर्प और गर्व से लबरेज हैं, वहीँ स्त्री लापरवाह है और चिरमयी मुस्कान लिए नन्ही पुरुष आकृति को स्तनपान करा जीवनदान दे रही है। लघुकथा का यह कथानक ना सिर्फ आज के समाज का यथार्थ है वरन हमारा दायित्व क्या हो, यह भी सोचने के लिए मजबूर करता है। 

शिल्प: मेरे अनुसार उत्तम शिल्प से सजी यह लघुकथा, संवाद शैली के साथ अपनी बात कहने में पूरी तरह सक्षम है। //'संसार को मैं चलाने वाला' पुरुष स्वर// से  प्रारम्भ हो रचना के अंत में शिशु बन अपने जीवन को सुदृढ़ बनाने के लिए मुस्कुराती स्त्री की गोद में दुग्धपान कर रहा है। लघुकथा को अंत तक लाकर पाठकों को प्रभावित कर देना अच्छे शिल्प की निशानी है। 

शैली: संवादों से अपनी बात कहती यह लघुकथा, अंत में एक पंक्ति के विवरण से अपने उद्देश्य की पूर्ती कर रही है। मिश्रित शैली की इस रचना में विवरण और संवाद दोनों को चुस्त रखा गया है।

भाषा एवं संप्रेषण: रचना की भाषा आज के समाज की आम भाषा है जिससे लघुकथा आसानी से समझ में आती है। सम्प्रेषण भी कथानक को चुस्त-दुरुस्त रख रहा है। शब्दावली सटीक है, संवादों के शब्द पात्रों के अनुसार अनुकूल हैं और कम से कम शब्दों का प्रयोग कर स्पष्ट बात कही गयी है। प्रयुक्त  भाषा ने रचना की स्वाभाविकता को बनाये रखा है। यही स्वाभाविकता ही इस रचना की भाषायी गुण भी है। 


शीर्षक: 'वर्चस्व' शीर्षक इस रचना के कथानक के मर्म 'लैंगिक असमानता' को तो नहीं दर्शा रहा, लेकिन पुरुष का अपने वर्चस्व का मिथक विचार और स्त्री का अपने स्त्रीत्व गुणों पर वर्चस्व को तो कह ही रहा है। 

पात्र और चरित्र-चित्रण: लघुकथा में दो पात्र हैं - पुरुष और स्त्री। किसी पात्र का नामकरण नहीं है। पात्रों का सामान्यीकरण किया गया है। मेरा मानना है कि केवल नामकरण नहीं है, इसलिए पात्रों को अस्वीकार करना ठीक भी नहीं। यहाँ स्त्री स्वयं ही पात्र है, जो दुनिया की लगभग सभी (अपवादों को छोड़कर) स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कर रहे है। 

कालखंड: यह लघुकथा एक ही कालखंड में सृजित की गयी है। रचना एक से अधिक कालखंडों में बँटी हुई नहीं है।

संदेश / सामाजिक महत्व: लघुकथा का मूल उद्देश्य,  उचित नारी सशक्तिकरण, अर्थात नारी के प्रकृति प्रदत्त जो गुण हैं,  पुरुष उनकी बराबरी नहीं कर सकता, यह दर्शाना है। पुरुष अपने गुणों के साथ है और स्त्री अपने गुणों के साथ। दोनों को बराबरी का सन्देश देती यह रचना अपने उद्देश्य में सफल है। 

अनकहा : इस लघुकथा का अंत //और स्त्री चिरमयी मुस्कान के साथ नन्ही पुरुष आकृति को स्तनपान करा जीवनदान देती रही।// एक ही पंक्ति में बिना अधिक कहे बहुत कुछ समझा रहा है। लघुकथा का उद्देश्य, सन्देश एवं सार्थकता भी इस पंक्ति में निहित हैं।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

पठन योग्य:

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक - 1

सम्माननीय मित्रों,
सादर नमस्कार। 

आज से लघुकथा दुनिया पर एक नई श्रृंखला का प्रारम्भ कर रहे हैं। "श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक" नामक इस श्रृंखला में बेहतर लघुकथाओं में से किसी एक को चुन कर, वह बेहतर क्यों है, इस पर वार्ता करेंगे। हालाँकि मुख्य पोस्ट पर मैं मेरे विचार दूंगा, सभी वरिष्ठजन और मित्र कमेंट में अपने विचार को प्रकट करने हेतु पूर्ण स्वतंत्र हैं।  

इस क्रम को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम वरिष्ठ लघुकथाकार और लघुकथा के सशक्त हस्ताक्षर श्री योगराज प्रभाकर की लघुकथा अपनी–अपनी भूख पर चर्चा करते हैं। पहले इस रचना को पढ़ते हैं, 

अपनी–अपनी भूख / योगराज प्रभाकर

पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थी। कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाता। दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा था। घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थी। घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहती। कई बार उसने पूछना भी चाहा  किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थे। रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया:
"बीबी जी! क्या हुआ है छोटे बाबू को ?"
"देखती नहीं कितने दिनों से तबीयत ठीक नहीं है उसकी?" मालकिन ने बेहद रूखे स्वर में कहा।
"मगर हुआ क्या है उसको जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा?" 
"बहुत भयंकर रोग है!" एक गहरी सांस लेते हुए मालिकन ने कहा ।
"हाय राम! कैसा भयंकर रोग बीबी जी?" नौकरानी पूछे बिना रह न सकी । 
मालकिन ने अपने कमरे की तरफ मुड़ते हुए एक गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया:
"उसको भूख नहीं लगती री।"
मालकिन के जाते ही अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई नौकरानी बुदबुदाई:               
"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी।"

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इस लघुकथा पर मैं अपने अनुसार कुछ बातें कहना चाहूंगा।  कोई भी सुधिजन अपनी राय कमेंट में दे सकते हैं।

लघुकथा का उद्देश्य: ऐसे परिवारों की स्थिति को दर्शाना, जो अपने बच्चों के पेट भरने में भी असमर्थ है और पाठकों को इस तरह के परिवारों के न्यूनतम सरंक्षण (भूखे न रहें) हेतु प्रेरित करना। 

विसंगति: सामाजिक और आर्थिक असमानता एक ऐसा दंश  है, जिसे हटा दिया जाए तो हमारे देश का काफी बेहतर विकास हो सकता है। इस लघुकथा का अंतिम वाक्य इस विसंगति को उभार देने में सक्षम है, जब  माँ रुपी नौकरानी अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई बुदबुदाती है, "मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी।"

लाघवतालघुकथा में शब्द ना तो कम हों ना ही अधिक। मैंने इस लघुकथा में अतिरिक्त शब्द नहीं जोड़े क्योंकि यह वैसे ही सुस्पष्ट है लेकिन कुछ शब्दों को हटा कर पढ़ा,  हालाँकि ऐसे (शब्दों को हटा कर) पठन पर हर बार मुझे अधूरी ही प्रतीत हुई। दो उदाहरण देना चाहूंगा:

1. इस लघुकथा में //घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थी//  पंक्ति हटा कर मैंने फिर पढ़ा तो जो लघुकथा की पहली पंक्ति है - //पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थीI//वह  ही सार्थक नहीं हो पा रही थी। मेरे अनुसार दोनों पंक्तियाँ मिलकर पूर्ण होती हैं। 

2. इस रचना में मालकिन दबंग स्वभाव की हो ना हो क्या फर्क पड़ता है? फिर यह विचार आया कि यदि मालकिन तेज़ न होती तो अंतिम पंक्ति में मालकिन के जाने के बाद नौकरानी का बुदबुदाना इतना प्रभावी नहीं हो पाता। 

कथानक: लघुकथा दो परिवारों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति दर्शाते हुए दोनों परिवारों की माओं के हृदय में बेटे की भूख की चिंता को दर्शा रही है। जहाँ मालकिन को भूख ना लगने की चिंता है, वहीँ नौकरानी को भूख लगने की। लघुकथा का यह कथानक ना सिर्फ आज के समाज का यथार्थ है वरन हमारा दायित्व क्या हो, यह भी सोचने के लिए मजबूर करता है। 

शिल्प: इस लघुकथा के शिल्प की सच कहूँ तो जितनी तारीफ़ की जाए कम है। यह लघुकथा यों तो मुझे पूरी पसंद आई, लेकिन जो सबसे ज़्यादा अच्छा लगा वो इस रचना का शिल्प ही है। सामान्य से वार्तालाप में विशिष्ट को ढूंढ निकाल कर उभारने का बेहतरीन उदाहरण है पाठक इससे खुदको जुड़ा हुआ पाता है और रचना को प्रवाह के साथ पढ़ते हुए जब अंत तक आता है तो बरबस ही द्रवित हो उठता है। यदि पाठक चिंतन प्रवृत्ति का है तो उसके चिंतन के लिए यह रचना एक हल्का सा झटका उत्पन्न करने में सक्षम है और यदि पाठक सामान्यतः अधिक चिंतन प्रवृत्ति का नहीं है तो भी आह और वाह दोनों ही उसके मुंह से निकल ही जाएगा। 

लघुकथा सृजन के समय लघुकथा के प्रारम्भ और अंत पर बहुत ध्यान देना होता है। रचनाकार का कौशल यों तो शीर्षक पढ़ते ही समझ में आ जाता है लेकिन लघुकथा प्रारम्भ करना और उसे अंत तक लाकर पाठकों को प्रभावित कर देना अच्छे शिल्प की निशानी है। रचना का प्रारंभ इस पंक्ति से हो रहा है कि //पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थी।// जो पढ़ते ही उत्सुकता जगाता है कि आखिर बात क्या है? अंत पर हम चर्चा कर ही चुके हैं। हरिशंकर परसाई ने मुकेश शर्मा द्वारा लिए गए उनके एक साक्षात्कार में कहा था कि, "लघुकथा में कम–से–कम शब्द होने चाहिए। विशेषण–क्रिया–विशेषण नहीं हों और चरम बिन्दु तीखा होना चाहिए।" यह रचना इस सन्दर्भ में कसौटी पर खरी उतरती है। 

लघुकथा का मध्य भाग ऐसा हो जो पाठक को अंत तक ले जाने में सक्षम हो, रचना की कसावट सर्वाधिक इसी भाग में देखी जाती है। कम या अधिक शब्द रचना के पठन को बाधित कर सकते हैं। इस लघुकथा में शब्दों की उत्तम लाघवता पर मैं अपने विचार रख ही चुका हूँ। 


शैली: मिश्रित शैली की इस रचना में विवरण और संवाद दोनों को चुस्त रखा गया है।


भाषा एवं संप्रेषण: इस रचना की भाषा आज के समाज की आम भाषा है जिससे लघुकथा आसानी से समझ में आती है। सम्प्रेषण भी कथानक को चुस्त-दुरुस्त रख रहा है। शब्दावली सटीक है, संवादों के शब्द पात्रों के अनुसार अनुकूल हैं और कम से कम शब्दों का प्रयोग कर स्पष्ट बात कही गयी है। प्रयुक्त  भाषा ने रचना की स्वाभाविकता को बनाये रखा है। यही स्वाभाविकता ही इस रचना की भाषायी गुण भी है। 

लघुकथा का आकार: लघुकथा का आकार इसमें निहित वस्तु का सही-सही प्रतिनिधित्व कर पा रहा है। इससे अधिक होने पर कहीं लघुकथा की कसावट में कमी होने की गुंजाइश भी थी और कम पर मैं अपने विचार पूर्व में रख चुका हूँ। 

शीर्षक: अपनी-अपनी भूख शीर्षक इस रचना के कथानक के मर्म 'सामाजिक एवं आर्थिक असमानता' को दर्शाने में पूरी तरह सफल है। साथ ही यह न सिर्फ कलात्मक है बल्कि पाठक के मस्तिष्क में उत्सुकता जगाने में भी समर्थ है। 

पात्र और चरित्र-चित्रण: इस लघुकथा में पात्रों को इस खूबसूरती से ढाला गया है कि प्रारम्भ में पता ही नहीं चल पाता है कि वास्तविक पात्र तो दो ही हैं। आइये प्रारम्भ से पात्रों की गिनती करते हैं: नन्हा दीपू, डॉक्टर, घर के सभी सदस्य, नौकरानी, मालकिन और नौकरानी के बच्चे। लेखक इनमें से किसी भी अथवा सभी पात्रों को उभार सकते थे लेकिन उन्होंने केवल दो ही पात्रों के संवादों पर रचना का आधार रख दिया और अपनी बात कह डाली।

लघुकथा में दीपू के अतिरिक्त और किसी भी पात्र का नामकरण नहीं हुआ है, इससे यह रचना वैश्विक स्तर पर अनुवाद भी की जा सकती है और वैश्विक स्तर के पाठकों से जुड़ सकती है। पाठकों के समाज से जुड़ने के लिए अनुवाद करते समय दीपू के स्थान छोटा बेटा या जिस भाषा में अनुवाद किया जा रहा है, उस भाषा के वर्ग अनुसार कोई अन्य नाम भी रखा जा सकता है।

डॉ. अशोक भाटिया ने अपने लेख "लघुकथा: लघुता में प्रभुता" में कहा है कि //आप जो भी लिखें, उसका प्रमुख पात्र यदि किसी वर्ग कहा हो तो आपकी रचना का वजन बढ जाएगा। प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ का नायक हल्कू एक गरीब किसान है। इसलिए उसकी कथा सारे गरीब किसानों की व्यथा-कथा है। यानी लिखते समय रचना को किसी वर्ग की रचना बना सकें तो उसकी ताकत और असर बहुत बढ जाएंगे।// - यहाँ इस रचना में आप यह बात देख सकते हैं। 

कालखंड: यह लघुकथा अपने पहले अनुच्छेद में //पिछले कई दिनों ... हिम्मत ही नहीं हुई।// तक कथानक को स्पष्ट करते हुए उसके बाद एक ही कालखंड में सृजित की गयी है। रचना एक से अधिक कालखंडों में बँटी हुई नहीं है।

संदेश / सामाजिक महत्व: यह लघुकथा समाज के उस वर्ग की स्थिति को दर्शा रही है, जिसे सरंक्षण की ज़रूरत है। भूख आरक्षण नहीं देखती ना ही सामान्य जनता होने के नाते हम उस हर एक व्यक्ति को आरक्षण दिला सकते हैं,  जिसे हम चाहते हैं, लेकिन हम एक हद तक सरंक्षण तो कर ही  सकते हैं। कम से कम हम से सम्बंधित कोई भूखा ना सोए, इस हेतु प्रयास किये जा सकते हैं और करने भी चाहिएं। मालकिन चाहती तो नौकरानी के बच्चे भूखे न रहते। यहां बात उनके सिर पर हाथ घुमा कर भूख ख़त्म करने वाली नहीं है बल्कि उचित सरंक्षण से जुडी हुई है अन्यथा नौकरानी बुदबुदाती नहीं, शायद मुंह पर कह डालती कि मेरे बच्चे भी कहीं-न-कहीं भूखे रहते हैं। यह सन्देश मुझे इस रचना में निहित लगा। इस आवश्यक सन्देश को देना ही इस रचना का महत्व भी है। 

अनकहा : इस लघुकथा का अंत एक ही पंक्ति में बिना अधिक शब्द कहे बहुत कुछ समझा रहा है। लघुकथा का उद्देश्य, सन्देश एवं सार्थकता भी इस पंक्ति में निहित हैं। 

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

पठन योग्य:

हरिशंकर परसाई से मुकेश शर्मा की बातचीत



मेरी इस समझ पर कोई कमी किसी को भी प्रतीत हो तो अपनी राय देने हेतु पूरी तरह स्वतंत्र हैं। कृपया अपनी राय कमेंट में प्रेषित करें।