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रविवार, 30 जून 2019

मेरी लघुकथा "ईलाज" पर रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा


लघुकथा: ईलाज

स्टीव को चर्च के घण्टे की आवाज़ से नफरत थी। प्रार्थना शुरू होने से कुछ वक्त पहले बजते घण्टे की आवाज़ सुनकर वह कितनी ही बार अशांत हो कह उठता कि, "पवित्र ढोंगियों को प्रार्थना का टाइम भी याद दिलाना पड़ता है।" लेकिन उसकी मजबूरी थी कि वह चर्च में ही प्रार्थना कक्ष की सफाई का काम करता था। वह स्वभाव से दिलफेंक तो नहीं था, लेकिन शाम को छिपता-छिपाता चर्च से कुछ दूर स्थित एक वेश्यालय के बाहर जाकर खड़ा हो जाता। वहां जाने के लिए उसने एक विशेष वक्त चुना था जब लगभग सारी लड़कियां बाहर बॉलकनी में खड़ी मिलती थीं। दूसरी मंजिल पर खड़ी रहती एक सुंदर लड़की उसे बहुत पसंद थी।

एक दिन नीचे खड़े दरबान ने पूछने पर बताया था कि उस लड़की के लिए उसे 55 डॉलर देने होंगे। स्टीव की जेब में कुल जमा दस-पन्द्रह डॉलर से ज़्यादा रहते ही नहीं थे। उसके बाद उसने कभी किसी से कुछ नहीं पूछा, सिर्फ वहां जाता और बाहर खड़ा होकर जब तक वह लड़की बॉलकनी में रहती, उसे देखता रहता।

एक दिन चर्च में सफाई करते हुए उसे एक बटुआ मिला, उसने खोल कर देखा, उसमें लगभग 400 डॉलर रखे हुए थे। वह खुशी से नाच उठा, यीशू की मूर्ति को नमन कर वह भागता हुआ वेश्यालय पहुंच गया।

वहां कीमत चुकाकर वह उस लड़की के कमरे में गया। जैसे ही उस लड़की ने कमरे का दरवाज़ा बन्द किया, वह उस लड़की से लिपट गया। लड़की दिलकश अंदाज़ में मुस्कुराते हुए शहद जैसी आवाज़ में बोली, "बहुत बेसब्र हो। सालों से लिखी जा रही किताब को एक ही बार में पढ़ना चाहते हो।"

स्टीव उसके चेहरे पर नजर टिकाते हुए बोला, "हाँ! महीनों से किताब को सिर्फ देख रहा हूँ।"

"अच्छा!", वह हैरत से बोली, "हाँ! बहुत बार तुम्हें बाहर खड़े देखा है। क्या नाम है तुम्हारा?"

"स्टीव और तुम्हारा?"

"मैरी"

जाना-पहचाना नाम सुनते ही स्टीव के जेहन में चर्च के घण्टे बजने लगे। इतने तेज़ कि उसका सिर फटने लगा। वह कसमसाकर उस लड़की से अलग हुआ और सिर पकड़ कर पलँग पर बैठ गया।

लड़की ने सहज मुस्कुराहट के साथ पूछा, "क्या हुआ?"

वहीँ बैठे-बैठे स्टीव ने अपनी जेब में हाथ डाला और बचे हुए सारे डॉलर निकाल कर उस लड़की के हाथ में थमा दिए। वह लड़की चौंकी और लगभग डरे हुए स्वर में बोली, "इतने डॉलर! इनके बदले में मुझे क्या करना होगा?"

स्टीव ने धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "बदले में अपना नाम बदल देना।"

कहकर स्टीव उठा और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया। अब उसे घण्टों की आवाज़ से नफरत नहीं रही थी।
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रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा 

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "इलाज" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

#लेखक - चंद्रेश छतलानी जी
#लघुकथा - इलाज
#शब्द_संख्या - 430

अगर सही अर्थों में देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति नास्तिक नहीं होता है। कम से कम यह बात हमारे भारत में तो लागू होती ही है। हमारे देश में ज्यादातर तथाकथित नास्तिक मानते हैं कि उसी धर्म के होकर, उसी धर्म और उनके ईश्वर की बुराई करना और दूसरे धर्म के बारे में अच्छा बोलना ही नास्तिकता है। दरअसल वे राजनीति से प्रेरित जो होते हैं। हमारे देश में धर्म, राजनीति में घुस गया है और विचारधाराएं इसे अपने नफा-नुकसान की तरह प्रयोग करती हैं। यह मुझे तबतक पता न चलता जबतक मैं एक ऐसे देश में नहीं गया जहाँ के अधिकतर लोग नास्तिक हैं और वह भी वास्तविक वाले नास्तिक। हालांकि, उस देश में आस्तिक भी हैं जो बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं लेकिन 20-25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं। मैंने इसकी तह में जाना चाहा तो पता चला कि बाकी के 75-80 प्रतिशत वास्तव में असली वाले नास्तिक हैं। मैंने जब उन नास्तिकों से उनकी धार्मिक मान्यताओं के बारे में जानना चाहा तो उनके हावभाव ऐसे थे जैसे कि मैंने कोई फालतू सा सवाल पूछा हो। वे बिल्कुल ही धार्मिक जैसे शब्द से अनभिज्ञ लगे। उन्हें कुछ भी नहीं पता। यहाँ तक कि यह भी नहीं कि उनके देश में पूजा पाठ की कोई परंपरा भी है। इनके व्यवहार में कोई कटुता, विद्वेष या विकार मुझे नजर ही नहीं आया। बड़े मिलनसार, सह्रदय और बिल्कुल उस परिभाषा से भिन्न जो हमें भारत के तथाकथित नास्तिकों में दिखाई देती है। निश्चित रूप से हमारे देश के अनेक नास्तिक मनोरोगी हैं जिन्हें बड़े 'इलाज' की जरूरत है। यहाँ यह कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि हर देश के तथाकथित आस्तिकों को किसी इलाज की आवश्यकता नहीं है। अर्थात, उन्हें भी है।

...यह तो सर्वविदित है कि किसी भी स्थान पर चल रहे कार्यकलापों का वहाँ के वातावरण में, वहाँ की फिजा में उसका अपना प्रभाव रहता है। यह प्रभाव वहां पर उपस्थित या उससे संबंधित सभी मनुष्यों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों पर समान रूप से अपना असर करता है लेकिन यह निर्भर करता है कि किसमें कितनी ग्राह्य क्षमता है। किसकी कैसी भावना है और किसका क्या उद्देश्य है? हमारे देवालयों में बहुत लोग जाते हैं जिसमें कोई भगवान को धन्यवाद कहने जाता है, कोई माफी मांगने जाता है, कोई आशीर्वाद, कृपा के लिए जाता है, कोई जेब काटने के लिए और कोई जूते-चप्पल की फिराक में।

रामचरित मानस में गोस्वामी तुसलीदास जी कहते हैं:
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

....तो वहाँ के वातावरण का असर लोगों की अपनी सोच और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि उन्हें वहाँ से क्या हांसिल हुआ, होता है या होगा?

प्रस्तुत लघुकथा में भी गिरजाघर में सफाई के काम में कार्यरत स्टीव का भी ऐसा ही कुछ हाल था। उसे ईश्वर पर कितना विश्वास था यह अलग बात है लेकिन उसे उस रूढ़ि से नफरत थी कि लोगों को घंटी बजाकर प्रार्थना की याद दिलानी पड़ती है। संभवतः यह उसकी अपनी सोच थी लेकिन मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर के संचालन के अपने नियम होते हैं और सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे कायदे होते हैं जिन्हें वहाँ की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए यह सब करना पड़ता है। खैर....अक्सर जिन्हें नियम, कायदे कानूनों से खासी परेशानी होती है उनके अपने कुछ अलग ही चरित्र होते हैं। स्टीव का भी यही हाल था। लेखक ने भले ही उसे दिलफेंक न कहा हो लेकिन जब-तब प्राकृतिक/अप्राकृतिक, अभिलाषायें/कुंठाएं सतह पर आ ही जाती हैं। इन्हीं कुंठाओं को शांत करने के लिए वह चला जाता था उस वैश्यालय में जहाँ नियत समय पर सारी लड़कियां बालकनी में खड़ी होती होंगी। शायद ग्राहकों को आमंत्रित करने का समय होता होगा। अब जब स्टीव एक नियत समय पर पहुंचता था तो घटना तो आगे के चरण पर जाना ही चाहेगी। उसे उस समूह की सबसे सुंदर लड़की बहुत पसंद थी और उसके साथ समय बिताने की कीमत थी 55 डॉलर। उसकी अंटी में 10-15 डॉलर से ज्यादा काब्यहि हुए ही नहीं। इतनी रकम उस सफाई कर्मचारी के पास शायद बड़ी थी। तो क्या करे? फिलहाल तो बस उसके दर्शन मात्र से ही सुख पा रहा था। कहते हैं कि आकर्षण के नियम (लॉ ऑफ अट्रैक्शन) का एक सिद्धान्त है कि जो आप चेतन मन से अधिक सोचते हैं वह धीरे-धीरे आपके अचेतन मन में प्रवेश कर जाता है और फिर अचेतन मन उसे आपके लिए उपलब्ध कराने में जुट जाता है। ध्यान रहे, अचेतन मन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी सोच अच्छी है ये बुरी। उसे तो हुक्म की तामील करनी होती है।

जब व्यक्ति का अंतर्मन अनुचित विचारों में लगा रहता है तो फिर किसी बाह्य देवालय के वश की बात नहीं होती है कि आपका आचरण बदल पाए। क्योंकि कि हर व्यक्ति का पहला देवालय उसके अंदर होता है और दूसरा बाहर। जब अंतर्मन ही आपने शुद्ध नहीं किया तो फिर बाहर के मंदिर से जुड़ना असंभव होता है।

स्टीव के अचेतन मन के प्रयासों से उसके विकारों को साकार करने के लिए उसे एक दिन सफाई करते हुए उसी गिरजाघर में किसी का बटुआ मिल गया जिसमें 400 डॉलर की बड़ी रकम थी। स्टीव को तो जैसे इन्हीं की दरकार थी। उसने यह परवाह भी नहीं की कि इस तरह से किसी के बटुए को हड़प लेना कितना बड़ा पाप है। हालांकि उसने चोरी नहीं की थी मगर यह किसी चोरी से कम भी नहीं थी। और जैसे उसकी मुराद पूरी हो गई थी। और फिर वह रकम लेकर वैश्यालय की ओर दौड़ गया, उसी सुन्दर लड़की के पास जिसे उसने बहुत समय से केवल देखकर संतोष किया था। हालांकि उसे पता था कि वह क्या करने जा रहा था, लेकिन किसी का बटुआ हड़पने और वैश्यालय की ओर कदम बढ़ाने से पहले वह प्रभु यीशु को मथ्था टेकना नहीं भूला। अब वह बिना देर किए, उस लड़की को पाना चाहता था और वासना से लथपथ सारी हदें पार करना चाहता था।

....एकतरफा ही सही, उसकी अपनी स्वप्न सुंदरी से मुलाकात और वार्तालाप शुरू हुआ। इससे पहले कि 'मिलन' की बहुप्रतीक्षित घड़ी आती, स्टीव को पता चला कि उसका नाम "मैरी" है। शायद बुराइयों से लदे उस व्यक्ति में गिरजाघर में सफाई के दौरान कहीं न कहीं दुआओं, प्रार्थनाओं, उद्घोषों से छन-छन कर आने वाला पवित्र नाम "मैरी" आज ऊपरी सतह पर आ गया था। आज गिरजाघर में सुने उस "मैरी" शब्द की आवृत्ति (frequency) संभवतः इस वैश्यालय में सुने शब्द से मेल खा गई थी। मन के किसी कौने से आवाज आई और हृदय परिवर्तन हो गया उसका। आखिर रोज-रोज की प्रार्थनाओं, घंटियाँ और वैश्यालय की ओर चलने से पहले प्रभु की चरण वंदना का कुछ तो असर होना ही था। इससे पहले कि वह उस खाई में गिरता, उसने अपने पास उपलब्ध सारे पैसे उस हसीन लड़की को दे दिए। स्टीव के मन में चल रहे झंझावतों से अनभिज्ञ वह सुंदरी तो जैसे घबरा ही गई थी कि इतने ज्यादा पैसे देकर अब उसे और न जाने क्या अनैतिक करना पड़ेगा? पूछने पर स्टीव इतना ही कह सका, "अपना नाम बदल लेना"...और फिर वह वैश्यालय, उस लड़की से दूर आ गया।

आज उसके अंतर्मन ने अनजाने ही सही, उसका 'इलाज' कर दिया था। अब उसके मन में मैरी और गिरजाघर से दूर भी वहाँ की पवित्र घंटियाँ सुनाई दे रही थीं। अब उसे उन आवाजों से कोई नफरत नहीं हो रही थी। मन से काले बादल छँट गए थे।

मैं छतलानी साहब को अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

#रजनीश_दीक्षित

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह जी। लघुकथा और समीक्षा दोनों ही बेहतरीन

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-07-2019) को "संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या बढ़ी है " (चर्चा अंक- 3384) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी सर।

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