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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 6 । लैंगिक समानता पर लघुकथा सर्जन

आदरणीय मित्रों,


वैश्विक मुद्दों पर लघुकथा सर्जन के इस भाग में लैंगिक समानता (Gender Equality) पर चर्चा कर रहे हैं। लैंगिक समानता एक महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दा है जो किसी भी देश के आर्थिक विकास से लेकर सामाजिक स्थिरता और व्यक्तिगत विकास तक समाज के हर पहलू को प्रभावित करता है। अधिकारों, अवसरों और संसाधनों तक पहुँच के मामले में पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर कई देशों में प्रगति में बाधा बन रहा है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2023 ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के अनुसार, यदि वर्तमान गति से प्रगति चलती रहे तो भी पूरी दुनिया में लैंगिक अंतर को पाटने में अनुमानित 131 साल लगेंगे। कार्यालयों व व्यवसायों में नेतृत्व करने में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है, दुनिया भर में केवल 28% प्रबंधकीय पद महिलाओं के पास हैं। प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और वित्त जैसे क्षेत्रों में, असमानता और भी अधिक स्पष्ट है। लिंग आधारित हिंसा, असमान वेतन व शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक सीमित पहुँच महिलाओं को प्रभावित करते ही हैं, विशेषकर कम आय वाले और संघर्षग्रस्त देशों में।

हालांकि आज की महाशक्ति और एक विकसित देश चीन की ही बात करें तो जनसंख्या नियंत्रण के लिए वहां की सरकार ने जब एक ही बच्चे का नियम बनाया था तो भ्रूण हत्याएं बहुत बढ़ गईं और तब लैंगिक असमानता भी काफी बढ़ी। जितना मुझे याद है उस वक्त शायद 1100 लड़कों पर 1000 लड़कियां रह गईं थीं। तब, इसके दुष्परिणामों को देखते हुए सरकार ने वह नियम समाप्त कर दिया और बाद में उचित शिक्षा देकर जनसंख्या नियंत्रण पुनः प्रारंभ किया। शिक्षा का बहुत प्रभाव पड़ा। सच है कि लैंगिक असमानता को संबोधित करना न केवल मानवाधिकार का मुद्दा है, बल्कि सामाजिक सौहार्द के वातावरण के लिए भी महत्वपूर्ण है।

लैंगिक असमानता की सबसे महत्वपूर्ण विसंगतियों में से एक शिक्षा और रोजगार के अवसरों तक महिलाओं की पहुँच सीमित होना है, जो समग्र आर्थिक विकास में बाधक है। मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अनुसार, human resource में लैंगिक अंतर को कम करने से 2025 तक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में $12 ट्रिलियन की वृद्धि हो सकती है और आज की स्थिति हम समझ ही सकते हैं। इसके अलावा, लैंगिक असमानता गरीबी और हिंसा को भी बढ़ावा देती है; महिलाओं को घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न का सामना करने की संभावना अधिक होती है, जो न केवल उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि कार्यबल सहित कई स्थानों पर उनकी भागीदारी को भी सीमित करता है और रूढ़िवादिता को भी बढ़ावा मिल सकता है। असमानता तब एक चक्र में घूमती रहती है।

समकालीन डेटा भी लैंगिक असमानता की गंभीरता को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, जैसे कि इस लेख में पूर्व में भी दर्शाया है कि विश्व आर्थिक मंच की 2023 वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर प्रबंधकीय पदों पर महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 28% है। इसके अतिरिक्त यूएन महिला रिपोर्ट से पता चलता है कि तीन में से एक महिला अपने जीवनकाल में शारीरिक या यौन हिंसा का अनुभव करती है। साथ ही पुरुषों की तुलना में महिलाओं का वेतन भी प्रत्येक डॉलर के लिए लगभग 77 सेंट है (देसी भाषा में सौ रुपए पर 77 रुपए), जो उनकी आर्थिक स्वतंत्रता में बाधक है।

हालांकि, सिक्के का एक पहलू यह भी है कि, लैंगिक असमानता या महिला सशक्तिकरण के नाम पर महिला के प्राकृतिक गुणों पर भी प्रहार किए गए हैं। नारी को पुरुष की तरह बनाने की होड़ में नारी सुलभ गुण, पुरुषों की प्रकृति की तरफ मुड़ सकते (रहे) हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखे जाने की ज़रूरत है कि कहीं ईश्वर प्रदत्त गुण नष्ट तो नहीं हो रहे। स्त्री, कई बातों में पुरुष से उच्च है, जैसे ममत्व, सहन शक्ति, स्वर का मृदु होना, सभी से प्रेम और सबसे बढ़कर जनन की शक्ति होना। इनके सरंक्षण की भी आवश्यकता है। इस बात पर एक कविता कही थी,


दोनों / चंद्रेश छ्तलानी

पुरुष रोता नहीं,

पुरुष लिख लेता है।


स्त्री रो लेती है,

लिख भी लेती है।


स्त्री के आंसुओं में शब्द होते हैं।


और, पुरुष शब्दों की कमी के साथ जीता है।


स्त्री के शब्द बह जाते हैं।


पुरुष के गुबार के शब्दों की कोई भाषा नहीं, लिपि नहीं।


दोनों भावबद्ध हैं। 

एक के पास लगातार भावनाएं हैं,

दूसरे के पास कठोरता।


कठोर जल्दी टूट जाता है,

खत्म हो जाता है।

कठोरता का अस्तित्व हमेशा लचीलेपन से कम होता है।


इसलिए पुरुष को सीख लेना चाहिए, स्त्री से, स्त्री सा रोना।


लेकिन, हो रहा है उल्टा,

अब 

स्त्री पुरुष दोनों कठोर हैं।

स्वार्थ जो द्विआयामी हो चुका है।

-0-


साथियों,

इन असमानताओं को संबोधित करने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें समान वेतन को बढ़ावा देने वाली नीतियों को लागू करना, सस्ती चाइल्डकैअर प्रदान करना आदि शामिल हैं। लेकिन, शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षित महिलाएँ पुरुषों के समान, और अधिक भी, आर्थिक और सामाजिक रूप से सक्षम हो सकती हैं।

 साहित्य में लैंगिक असमानता पर लेखन

जागरूकता को बढ़ावा देने और सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करने के लिए साहित्य में लैंगिक असमानता को निरंतर संबोधित किया जा रहा है। साहित्य सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने, हाशिए पर पड़ी आवाज़ों को उच्च करने और लैंगिक मुद्दों पर आलोचनात्मक चर्चाओं के लिए एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में कार्य कर सकता है। महिलाओं के अनुभवों और लैंगिक भेदभाव के परिणामों को प्रदर्शित करके, साहित्य, उनके प्रति केवल सहानुभूति ही नहीं बल्कि सही समझ को भी उत्पन्न कर सकता है। मार्गरेट एटवुड की "द हैंडमेड्स टेल" और ऐलिस वॉकर की "द कलर पर्पल" जैसी कृतियाँ लैंगिक उत्पीड़न के गहन प्रभावों को दर्शाती हैं।

इसी प्रकार चिमामांडा नगोजी अदिची का Essay and TED talk, "वी शुड ऑल बी फेमिनिस्ट", लैंगिक समानता पर महत्वपूर्ण कार्य हैं। साहित्य के माध्यम से लैंगिक असमानता को संबोधित करके, लेखक विभिन्न कार्रवाई को भी प्रेरित कर सकते हैं और अधिक न्यायसंगत समाज के लिए अपना योगदान दे सकते हैं। 

इस विषय पर लघुकथाएं

वरिष्ठ लघुकथाकार सुकेश साहनी जी  की लघुकथा 'तृष्णा' लैंगिक असमानता को दर्शाने में पूरी तरह सफल है, यह लघुकथा इस प्रकार है -

तृष्णा / सुकेश साहनी

पेड़ों से उड़कर आए सूखे पत्ते हल्की खड़खड़ाहट के साथ गलियारों में इधर-उधर सरक रहे थे। हादसे वाले दिन से रोहित को प्राइवेट वार्ड के गलियारे सांय-सांय करते मालूम देते थे और चारों ओर दिखाई देता था उकता देने वाला सन्नाटा---रिक्तता---शून्य---

उसकी नज़र लॉन की धूप में चटाई बिछाकर बैठी उस वृद्धा पर पड़ी, जिसकी गोद में एक खूबसूरत नवजात शिशु पड़ा सो रहा था। उसने बड़ी हसरत भरी नज़रों से उस गोल-मटोल बच्चे को देखा और धीरे-धीरे चलता हुआ उसके काफी नज़दीक आ गया। नज़दीक से बच्चे को देखते हुए उसे अपना बच्चा याद आ गया और उसकी आंखें भर आईं।

भइया, कौन से नम्बर के साथ हो? उसे अपने पास उदास मुद्रा में खड़े देख वृद्धा ने उससे पूछ लिया। तेरह नम्बर के साथ माँजी। ---कितनी अमूल्य देन है ईश्वर की---बुढ़िया की गोद में लेटी बच्ची को प्यार भरी नज़रों से देखते हुए उसने सोचा।

जच्चा बच्चा ठीक तो हैं?

जच्चा तो अब ठीक है पर--- बच्चा तो दो दिन बाद ही न जाने कैसे गुज़र गया था! कहते हुए उसकी आवाज़ भर्रा गई।

लड़का हुआ था कि लड़की? वृद्धा ने जल्दी से पूछा।

लड़का--- बुढ़िया की गोद में लेटा बच्चा नींद में मुस्कराया। रोहित को बच्चे के माँ-बाप से ईर्ष्या-सी हुई। काश ऐसा बच्चा उसकी गोद में भी---

च्च---च---च राम-राम! बहुत बुरा हुआ यह तो--- लड़का था, जभी तो रुका नहीं! अब देखो, मेरी बहू ने यह तीसरी लौंडिया जनी है!!--- दो क्या कम थीं बाप की छाती पर मूँग दलने के लिए--- भला बताओ--- इसकी क्या ज़रूरत थी ---यह तो न मरी ससुरी---

तभी बुढ़िया की गोद में लेटी बच्ची ने अँगड़ाई लेकर आँखें खोल दीं और बड़े ध्यान से टकटकी लगाकर वृद्धा की तरफ देखने लगी।

- सुकेश साहनी

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एक और सशक्त लघुकथा प्रस्तुत है, 'मर्दानी' इसके लेखक हैं, श्री सुनील वर्मा।

मर्दानी / सुनील वर्मा

एक ही गर्भ में पल रही दो बच्चियों का पहला परिचय होने पर दोनों एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्कुरायीं। पहली ने दूसरी से कहा "ओह, तो आप मेरी बहन हो।"

'हाँ, शायद भगवान ने हमें जुड़वाँ बनाया है।' दूसरी ने खुशी जताते हुए जवाब दिया।

'कहते हैं जब तक कोई नवजात अन्न नही खाता उसे पिछले जनम का सब कुछ याद रहता है। आपको कुछ याद है ?' पहली ने बात जारी रखने की गरज से आगे पूछा।

'हाँ, पिछले जनम में भी मैं एक लड़की ही थी और तुम?' दूसरी ने संक्षिप्त सा जवाब देकर प्रतिप्रश्न किया।

'मैं अपने पिछले जनम में एक लड़का थी। दिन भर बस मौज मस्ती होती थी। जिंदगी मजे से चल रही थी। एक दिन शराब के नशे में तेज रफ्तार से कार चलाते वक्त दुर्घटना हुई और अब लड़की का जनम लेकर तुम्हारे सामने हूँ।' पहली लड़की ने अफसोस जताते हुए कहा और दूसरी की तरफ देखते हुए पूछा 'और तुम, तुम कैसे मरी ?'

'मैं तो जन्म से पूर्व ही कोख में मार दी गयी थी। मरते वक्त भी मैंने ईश्वर से यही माँगा था कि 'भगवान अगले जनम में भी मुझे लड़की ही बनाना।'

'लड़की !! लड़की ही क्यूँ ?' पहली ने चौंकते हुए पूछा।

'क्यूँकि लड़कियाँ बहुत बहादुर होती हैं।' दूसरी ने गर्व जताते हुए कहा।

'लड़कियाँ कब से बहादुर होने लगी ?' पहली ने जवाब सुनकर हँसते हुए पूछा।

दूसरी लड़की उसे कोई जवाब देती उससे पहले ही उसने गर्भ में एक जानी पहचानी चुभन महसूस की। अपनी आरामगाह में धारदार हथियार के प्रवेश से दोनों लड़कियाँ सुन्न थी। पहली लड़की की आँखों में जहाँ डर नजर आ रहा था दूसरी ने शांत होकर अपना सिर गर्भ की दीवार पर टिका दिया। उसे यूँ शांत देखकर पहली ने हैरत से पूछा 'मौत हमारे सामने है, तुम्हें डर नही लग रहा ?'

दूसरी ने एक गहरी साँस ली और कहा 'नही, मैं तो पिछले जनम में भी लड़की ही थी...और लड़कियाँ तो बहादुर होती है न...'


-सुनील वर्मा, जयपुर

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लैंगिक असमानता को दर्शाती इन रचनाओं से मेरा मानना है कि आपका हृदय ज़रूर द्रवित हुआ होगा। इस विषय पर "उचित" रचनाकर्म ज़रूर करें। हालांकि आप कर ही रहे होंगे।


सादर,

-चंद्रेश कुमार छ्तलानी

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