26 नवम्बर 1969 को जन्मे आलोक कुमार सातपुते ने एम.कॉम. तक शिक्षा प्राप्त की है। भारत पाकिस्तान और नेपाल के प्रगतिशील हिन्दी,उर्दू, एवं नेपाली पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। इसके अतिरिक्त शिल्पायन प्रकाशन समूह दिल्ली के नवचेतन प्रकाशन से आपका लघुकथा संग्रह 'अपने-अपने तालिबान' व दलित कहानी संग्रह 'देवदासी', सामयिक प्रकाशन समूह दिल्ली के कल्याणी शिक्षा परिषद से लघुकथा संग्रह 'वेताल फिर डाल पर', डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली से कहानियों का संग्रह 'मोहरा' व किस्से-कहानियों का संग्रह 'बच्चा लोग ताली बजायेगा' प्रकाशित हो चुके हैं। अपने-अपने तालिबान का उर्दू संस्करण भी आकिफ बुक डिपो, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है तथा इस संग्रह की अंग्रेजी एवं मराठी अनूदित पुस्तकें भी प्रकशित हुई हैं। एक कहानी संग्रह 'रेशम का कीड़ा' प्रकाशनाधीन है। आइए पढ़ते हैं लघुकथा पर उनका लिखा एक लघु आलेख:
मैं यूँ तो लघुकथाओं से सम्बन्धित किसी भी आयोजन में भाग नहीं ले पाता,पर मेरी कोशिश होती है कि इन आयोजनों पर बारीक नज़र रखूं। मैंने पाया है कि ये आयोजन सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने जन-सम्पर्क बढ़ाने का माध्यम बन गये हैं।
आजकल सपाटबयानी को लघुकथा कहा जा रहा है,जिसे पढ़कर समझ में नहीं आता है कि यह लघुकथा है या समाचार। घटनाओं का ज्यों का त्यों विवरण मात्र परोस दिया जा रहा है। इस तरह की लघुकथाएं उत्पादित करने की बहुत सी फेक्टरियाँ खुल गयी हैं और उनमे धकाधक उत्पादन हो रहा है।
लघुकथाओं से सम्बन्धित विभिन्न आयोजन इन उत्पादों की ब्रांडिंग करते हुए प्रतीत होते हैं।इन आयोजनों के प्रायोजक उर्फ़ "लघुकथाओं के मठाधीश" कभी लघुकथा की साईज़ को लेकर मगज़मारी करते हैं,तो कभी उसके भाषा- शिल्प को लेकर ज्ञान बघारने लगते हैं।
मेरा मानना है कि लघुकथा 'अच्छी' न होकर 'प्रभावी' होनी चाहिए। किसी व्यक्ति के दिमाग में जब कोई विचार उत्पन्न होता है तो वह विचार अपने पूरे स्वरूप में ही होता है।जब इस विचार को दिमाग में ही लगातार तीन-चार माह तक पकाया जाये तो यह विचार खुद ही तय करता है कि उसे कविता के रूप में, कहानी के रूप में या फिर लघुकथा के रूप में प्रकट होना है। इस सारी प्रक्रिया के दौरान यदि वह विचार कमज़ोर हो, तो उसकी मृत्यु हो जाती है।
जहाँ तक मेरा सवाल है, यदि मेरे मन में उपजने वाला विचार सामाजिक सरोकारों से अछूता है, तो मैं तो उस विचार की बेदर्दी से हत्या कर देता हूँ।
मनोविज्ञान कहता है कि हर व्यक्ति अपने-अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होता है। 'अच्छा' कहना मतलब आपके पूर्वाग्रह को तुष्ट करना है। मेरा मानना है कि प्रभावी लघुकथाएँ आपको कभी भी अच्छी नहीं लग सकतीं।
प्रभावी लघुकथाएं आपको उद्वेलित करती हैं, उत्तेजित करती हैं आपको तमाचे मारती हैं। आपको झकझोर कर सोचने के लिये बाध्य करती है।
दर-अस्ल आज के दौर में सोचने की ज़हमत कोई भी नहीं उठाना चाहता। संभवतः यही कारण है कि बदसूरत से बदसूरत आदमी भी जब फेसबुक पर अपनी फोटो डालता है,तो सैकड़ों लाइक्स मिल जाती हैं,क्योंकि फोटो कुछ सोचने को नहीं कहती है।
'प्रभावी' लघुकथाएं स्वयंसिद्ध होती हैं और लेखक के नाम के साथ आपके दिमाग पर छप जाती हैं। उसे चीख-चीखकर अपने होने का अहसास नहीं कराना पड़ता है।
- आलोक कुमार सातपुते
(संग्रह-मोक्ष से)
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