लघुकथा: मुर्दों के सम्प्रदाय
"पापा, हम इस दुकान से ही मटन क्यों लेते हैं? हमारे घर के पास वाली दुकान से क्यों नहीं?" बेटे ने कसाई की दुकान से बाहर निकलते ही अपने पिता से सवाल किया।
पिता ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया, "क्योंकि हम हिन्दू हैं, हम झटके का माँस खाते हैं और घर के पास वाली दुकान हलाल की है, वहां का माँस मुसलमान खाते हैं।"
"लेकिन पापा, दोनों दुकानों में क्या अंतर है?" अब बेटे के स्वर में और भी अधिक जिज्ञासा थी।
"बकरे को काटने के तरीके का अंतर है..." पिता ने ऐसे बताया जैसे वह आगे कुछ बताना ही नहीं चाह रहा हो, परन्तु बेटा कुछ समझ गया, और उसने कहा,
"अच्छा! जैसे मरने के बाद हिन्दू को जलाते हैं और मुसलमान को जमीन में दफनाते हैं, वैसे ही ना!"
बेटे ने समझदारी वाली बात कही तो पिता ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, "हाँ बेटे, बिलकुल वैसे ही।"
"तो पापा, यह कैसे पता चलता है कि बकरा हिन्दू है या मुसलमान?"
यह प्रश्न सुन पिता चौंक गया, जगह-जगह पर दी जाने वाली अलगाव की शिक्षा को याद कर उसके चेहरे पर गंभीरता सी आ गयी और उसने कहा,
"बकरा गंवार सा जानवर होता है, इसलिए उसे हिन्दू कसाई अपने तरीके से काटता है और मुसलमान कसाई अपने तरीके से। सच तो यह है कि कटने के बाद जब बकरा मरता है उसके बाद ही हिन्दू या मुसलमान बनता है... जीते-जी नहीं।"
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत खूब
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