1)
धर्म-प्रदूषण / डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी
उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।"
"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?" एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।
"लिखा है... बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।"
"लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं..."
"यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?"
वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।
"चल छोड़ सब बातें..." अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, "तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना..."
"लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?"
शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”
2)
उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।"
"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?" एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।
"लिखा है... बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।"
"लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं..."
"यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?"
वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।
"चल छोड़ सब बातें..." अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, "तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना..."
"लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?"
शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”
2)
विरोध का सच / डॉ .चंद्रेश कुमार छतलानी
"अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनेगा....देश का धर्म नहीं बदलेगा..." जुलूस पूरे जोश में था। देखते ही वह राष्ट्रभक्त समझ गया कि जुलूस का उद्देश्य देशप्रेम और स्वदेशी के प्रति जागरूकता फैलाना है और वह भी उसमें शामिल होकर नारे लगाते हुए चलने लगा।
उसके साथ के दो व्यक्ति बातें कर रहे थे,
"बच्चे को इस वर्ष विद्यालय में प्रवेश दिलाना है। कौनसा ठीक रहेगा?"
"यदि अच्छा भविष्य चाहिये तो शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दो।"
उसने उन्हें तिरस्कारपूर्वक देखा और नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां भी दो व्यक्तियों की बातें सुनीं,
"शाम का प्रोग्राम तो पक्का है?"
"हाँ! मैं स्कॉच लाऊंगा, चाइनीज़ और कोल्डड्रिंक की जिम्मेदारी तुम्हारी।"
उसे क्रोध आ गया, वह और जोर से नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां उसे फुसफुसाहट सुनाईं दीं,
"बेटी नयी जीन्स की रट लगाये हुए है..."
"तो क्या आजकल के बच्चों को ओल्ड फेशन सलवार-कुर्ता पहनाओगे?"
उत्तर सुनते ही वह हड़बड़ा गया। अब वह सबसे आगे पहुँच गया था, जहाँ खादी पहने एक हिंदी विद्यालय के शाकाहारी प्राचार्य जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। वह उनके साथ और अधिक जोश में नारे लगाने लगा।
तभी प्राचार्य का फ़ोन बजा, एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फ़ोन पर वह बात करने लगे। उसने सुना वह कह रहे थे, "हाँ हुज़ूर, सब ठीक है, लेकिन इस बार रुपया नहीं डॉलर चाहिये, बेटे से मिलने अमेरिका जाना है।"
सुनकर वह चुपचाप वहीँ खड़ा हो गया। जुलूस आगे निकल गया, लेकिन उसके मन में नारों की आवाज़ बंद नहीं हो रही थी। उसने अपनी जेब से बुखार की अंग्रेजी दवाई निकाली, उसे कुछ क्षणों तक देखा फिर उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव आये और उसने फिर से दवाई अपनी जेब में रख दी।
"अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनेगा....देश का धर्म नहीं बदलेगा..." जुलूस पूरे जोश में था। देखते ही वह राष्ट्रभक्त समझ गया कि जुलूस का उद्देश्य देशप्रेम और स्वदेशी के प्रति जागरूकता फैलाना है और वह भी उसमें शामिल होकर नारे लगाते हुए चलने लगा।
उसके साथ के दो व्यक्ति बातें कर रहे थे,
"बच्चे को इस वर्ष विद्यालय में प्रवेश दिलाना है। कौनसा ठीक रहेगा?"
"यदि अच्छा भविष्य चाहिये तो शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दो।"
उसने उन्हें तिरस्कारपूर्वक देखा और नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां भी दो व्यक्तियों की बातें सुनीं,
"शाम का प्रोग्राम तो पक्का है?"
"हाँ! मैं स्कॉच लाऊंगा, चाइनीज़ और कोल्डड्रिंक की जिम्मेदारी तुम्हारी।"
उसे क्रोध आ गया, वह और जोर से नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां उसे फुसफुसाहट सुनाईं दीं,
"बेटी नयी जीन्स की रट लगाये हुए है..."
"तो क्या आजकल के बच्चों को ओल्ड फेशन सलवार-कुर्ता पहनाओगे?"
उत्तर सुनते ही वह हड़बड़ा गया। अब वह सबसे आगे पहुँच गया था, जहाँ खादी पहने एक हिंदी विद्यालय के शाकाहारी प्राचार्य जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। वह उनके साथ और अधिक जोश में नारे लगाने लगा।
तभी प्राचार्य का फ़ोन बजा, एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फ़ोन पर वह बात करने लगे। उसने सुना वह कह रहे थे, "हाँ हुज़ूर, सब ठीक है, लेकिन इस बार रुपया नहीं डॉलर चाहिये, बेटे से मिलने अमेरिका जाना है।"
सुनकर वह चुपचाप वहीँ खड़ा हो गया। जुलूस आगे निकल गया, लेकिन उसके मन में नारों की आवाज़ बंद नहीं हो रही थी। उसने अपनी जेब से बुखार की अंग्रेजी दवाई निकाली, उसे कुछ क्षणों तक देखा फिर उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव आये और उसने फिर से दवाई अपनी जेब में रख दी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (04-10-2019) को "नन्हा-सा पौधा तुलसी का" (चर्चा अंक- 3478) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत आभार डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी सर।
हटाएं