लघुकथा कलश द्वितीय महाविशेषांक :
लघुकथा के क्षेत्र में अद्यतन उपलब्ध उन तमाम अंकों से शर्त्तिया शर्त्त जितने वाले दावों की मानिंद है जिनका लघुकथाओं के स्थापन्न में महती योगदान गिनाया जाता रहा है।
प्रस्तुत अंक के संपादक योगराज प्रभाकर इस कारण से एक अलहदा किस्म के संपादक करार दिए जा सकते हैं गो कि एक संपादक के नाते उनकी निश्चयात्मक शक्ति न तो किसी असमंजस से बाधित है और न ही उदारता का कोई चोला पहिन कर रचना के मापदंड को दरकिनार कर समझौतापरस्त होकर मूल्यहीन रचनाओं को प्रकाशित करने में उतावलापन दिखाती है।
निष्कर्ष रूप में यह बात फ़क़त 'विशेषांक' के मय कव्हर 364 पेजों पर हाथ फेर कर कोरी हवाईतौर पर नहीं कही गई हैं, प्रत्युत इस बात को शिद्दत के साथ कहने में विशेषांक में समाहित सम्पूर्ण सामग्री से आँखें चार कर के कही गई है। मौजूदा विशेषांक पर ताबड़तोड़ अर्थ में कुछ कहना होता , तो यक़ीनन कब का कह चुका होता। क्योंकि मुझको अंक मिले काफी अरसा बीत चुका है। अंक प्राप्ति के पहले दिन से लेकर अभी-अभी यानी समझिए कल ही अंक को पढ़कर पूर्ण किया है और आज अंक पर लिखने को हुआ हूँ। इसलिए अंक को पचाकर , अंक पर अपनी कैफ़ियत उगल रहा हूँ।
वैसे तो कई-एक लघुकथाकार , जिनको यह अंक प्राप्त हुआ है या जिनकी लघुकथा इस अंक में छपी है , अंक पर उनके त्वरित विचार गाहेबगाहे पढ़ने को मिले भी हैं , लेकिन अपनी बात लिखने में इस बात को लेकर चौकस हूँ कि जो भी अंक पर कहने जा रहा हूँ, वह अंक पर पढ़ी अन्यान्यों की टिप्पणी से सर्वदा अलहदा ही होगी। प्रस्तुत अंक पर किसी के लिखे आयातीत विचारों का लबादा ओढ़कर यहाँ अपनी बात रखना कतई नहीं चाहूँगा, चाहे फिर अंक पर अपना विचार-मत संक्षिप्त ही क्यों न रखूँ ?
श्री योगराज प्रभाकर एक अच्छे ग़ज़लगो हैं और अपनी इसी प्रवृत्ति का दोहन वे प्रस्तुत अंक के संपादकीय की शुरुआत 'अर्ज़ किया है ' के अंदाज़ में मशहूर शायर जनाब जिगर मुरादाबादी के कहे ' शेर ' से करते हैं ; " ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे। एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।" वाक़ई योगराज sir आप इस अंक को सजाने,संवारने, निखारने और हमारे बीच लाने में बड़े जटिल पथों से गुजरे हैं, इसकी गवाही खुद आपके संपादकत्व में निकला यह अंक भी दे रहा है और हम भी । यह अंक नहीं था आसां तैयार करने में। कर दिया आपने हम गवाह बने हैं। अपने संपादकीय में अंक के संवर्द्धन में एक बड़ी बेलाग बात संपादक योगराज जी ने कही है , " बिना किसी भेदभाव के सबको साथ लेकर चलने की पूर्व घोषित नीति का अक्षरशः पालन करने का प्रयास इस अंक में भी किया गया है। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि ' सबको साथ लेकर ' चलने की अवधारणा तब पराभूत हो जाती है जब अगड़े -पिछडे तर्ज़ पर रचनाकारों का वर्गीकरण कर दिया जाता है। अतः लघुकथा कलश के प्रवेशांक से ही हमने ऐसी रूढ़ियाँऔर वर्जनाएँ तोडना प्रारम्भ कर दिया था । " यह वक्तव्य सूचित करता है कि संपादक लघुकथा के प्रति आग्रही तो है मगर लघुकथा की शर्तों पर लिखी लघुकथाओं के प्रति।
प्रस्तुत अंक में पठनीय संपादकीय के बावजूद सामयिक लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर दृष्टिसम्पन्न आलोचकों के गंभीर विचारों के अलावा लघुकथा के तमामं आयामों,उसका वुजूद,उसका सफरनामा,उसकी बनावट-बुनावट पर लघुकथा के विशिष्ट जानकारों के आलेखों का प्रकाशन , अंक को पायदार बनाने में महत्वपूर्ण है। प्रो बी एल आच्छा, डॉ उमेश मनदोषी, रवि प्रभाकर द्वारा लघुकथाओं की सटीक आलोचना के बरअक्स
डॉ अशोक भाटिया,भगीरथ परिहार,माधव नागदा,मधुदीप,डॉ मिथिलेश दीक्षित, रामेश्वर काम्बोज, डॉ रामकुमार घोटड, डॉ सतीशराज पुष्करणा,पुष्पा जमुआर, डॉ शकुन्तला किरण, डॉ शिखा कौशिक नूतन और अंत में प्रस्तुत अंक पर अंक की परिचयात्मक टिप्पणी के प्रस्तोता नाचीज़ डॉ पुरुषोत्तम दुबे के आलेखों का प्रकाशन हिंदी लघुकथा की समीचीनता के पक्ष में उपयोगी हैं।
लघुकथा पर मुकेश शर्मा द्वारा डॉ इन्दु बाली से तथा डॉ लता अग्रवाल द्वारा शमीम शर्मा से लिये गए साक्षात्कार लघुकथा की दशा,दिशा और संभावनाओं पर केंद्रित होकर लघुकथा में शैली और शिल्प पर भी प्रकाश डालता है।
इस अंक की खास-उल-खास विशेषता यह है कि अंक में 'शृद्धाञ्जली 'शीर्षक के अधीन उन सभी स्वर्गीय नामचीन लघुकथाकारों की लघुकथाओं का प्रकाशन भी किया गया मिलता है ; जो अपने समय में लघुकथा-जगत में सृजनकर्मी होकर लघुकथा के क्षेत्र के चिरपुरोधा बने हुए हैं।
अंक में आगे हिन्दी में लघुकथा लिखने वाले 245 लघुकथाकारों का जमावड़ा और आगे के क्रम में बांग्ला, मराठी,निमाड़ी,पंजाबी तथा उर्दू के लघुकथाकारों की लघुकथाएं अपने अलग जज़्बे के साथ पठनीय हैं ।
फिर सामने आता है लघुकथा केंद्रित पुस्तकों की समीक्षा का दौर , तदुपरांत देश के विभिन्न प्रान्तों में आयोजित हुई लघुकथा पर गतिविधियों की रिपोर्ट का प्रकाशन , जो अंक को सम्पूर्ण बनाने में अतिरेक रूप में ज़रूरी -सा दृष्टिगोचर होता है|
बधाई , योगराज प्रभाकर जी ,देश भर के विभिन्न भाषा-भाषी लघुकथाकारों की लघुकथाओं को एक जिल्द में समेटने के सन्दर्भ में। इस बात से सबसे ज़्यादा भला उन लघुकथाकारों को होगा , जो अपनी लघुकथाओं की पृष्ठभूमि में अन्यान्य प्रान्तों के कथानकों को तरज़ीह देना चाहते हैं ,ऐसे लघुकथाकार इस अंक के माध्यम से मराठी, बांग्ला, उर्दू , पंजाबी, निमाड़ी आदि की लघुकथाओं के ' लेखन-प्रचलन ' को नज़दीक से समझकर अपनी लघुकथाओं के कथानकों सृजन में भिन्न-भिन्न भाषाओं की शब्द-सम्पदा गृहीत कर सकते हैं और जिसकी वजह से वे अपनी लघुकथाओं के कथानक की प्रस्तुति मेंअपने वर्णित कथानक को भाषा और विचार की दृष्टि से भारतीय राष्ट्रीयता का रंग दे सकते हैं।
- डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
सम्पर्क : 93295 81414
94071 86940
सौ में से सौ प्राप्तांक ।
' लघुकथा कलश 'द्वितीय महाविशेषांक (जुलाई-दिसंबर 2018 )हिंदी लघुकथा संसार में लघुकथाओं की अनोखी , अछूती और बेमिसाल उपलब्धि की एक अकूत धरोहर लेकर सामने आया है। प्रस्तुत अंक की बेहतरीलघुकथा के क्षेत्र में अद्यतन उपलब्ध उन तमाम अंकों से शर्त्तिया शर्त्त जितने वाले दावों की मानिंद है जिनका लघुकथाओं के स्थापन्न में महती योगदान गिनाया जाता रहा है।
प्रस्तुत अंक के संपादक योगराज प्रभाकर इस कारण से एक अलहदा किस्म के संपादक करार दिए जा सकते हैं गो कि एक संपादक के नाते उनकी निश्चयात्मक शक्ति न तो किसी असमंजस से बाधित है और न ही उदारता का कोई चोला पहिन कर रचना के मापदंड को दरकिनार कर समझौतापरस्त होकर मूल्यहीन रचनाओं को प्रकाशित करने में उतावलापन दिखाती है।
निष्कर्ष रूप में यह बात फ़क़त 'विशेषांक' के मय कव्हर 364 पेजों पर हाथ फेर कर कोरी हवाईतौर पर नहीं कही गई हैं, प्रत्युत इस बात को शिद्दत के साथ कहने में विशेषांक में समाहित सम्पूर्ण सामग्री से आँखें चार कर के कही गई है। मौजूदा विशेषांक पर ताबड़तोड़ अर्थ में कुछ कहना होता , तो यक़ीनन कब का कह चुका होता। क्योंकि मुझको अंक मिले काफी अरसा बीत चुका है। अंक प्राप्ति के पहले दिन से लेकर अभी-अभी यानी समझिए कल ही अंक को पढ़कर पूर्ण किया है और आज अंक पर लिखने को हुआ हूँ। इसलिए अंक को पचाकर , अंक पर अपनी कैफ़ियत उगल रहा हूँ।
वैसे तो कई-एक लघुकथाकार , जिनको यह अंक प्राप्त हुआ है या जिनकी लघुकथा इस अंक में छपी है , अंक पर उनके त्वरित विचार गाहेबगाहे पढ़ने को मिले भी हैं , लेकिन अपनी बात लिखने में इस बात को लेकर चौकस हूँ कि जो भी अंक पर कहने जा रहा हूँ, वह अंक पर पढ़ी अन्यान्यों की टिप्पणी से सर्वदा अलहदा ही होगी। प्रस्तुत अंक पर किसी के लिखे आयातीत विचारों का लबादा ओढ़कर यहाँ अपनी बात रखना कतई नहीं चाहूँगा, चाहे फिर अंक पर अपना विचार-मत संक्षिप्त ही क्यों न रखूँ ?
श्री योगराज प्रभाकर एक अच्छे ग़ज़लगो हैं और अपनी इसी प्रवृत्ति का दोहन वे प्रस्तुत अंक के संपादकीय की शुरुआत 'अर्ज़ किया है ' के अंदाज़ में मशहूर शायर जनाब जिगर मुरादाबादी के कहे ' शेर ' से करते हैं ; " ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे। एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।" वाक़ई योगराज sir आप इस अंक को सजाने,संवारने, निखारने और हमारे बीच लाने में बड़े जटिल पथों से गुजरे हैं, इसकी गवाही खुद आपके संपादकत्व में निकला यह अंक भी दे रहा है और हम भी । यह अंक नहीं था आसां तैयार करने में। कर दिया आपने हम गवाह बने हैं। अपने संपादकीय में अंक के संवर्द्धन में एक बड़ी बेलाग बात संपादक योगराज जी ने कही है , " बिना किसी भेदभाव के सबको साथ लेकर चलने की पूर्व घोषित नीति का अक्षरशः पालन करने का प्रयास इस अंक में भी किया गया है। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि ' सबको साथ लेकर ' चलने की अवधारणा तब पराभूत हो जाती है जब अगड़े -पिछडे तर्ज़ पर रचनाकारों का वर्गीकरण कर दिया जाता है। अतः लघुकथा कलश के प्रवेशांक से ही हमने ऐसी रूढ़ियाँऔर वर्जनाएँ तोडना प्रारम्भ कर दिया था । " यह वक्तव्य सूचित करता है कि संपादक लघुकथा के प्रति आग्रही तो है मगर लघुकथा की शर्तों पर लिखी लघुकथाओं के प्रति।
प्रस्तुत अंक में पठनीय संपादकीय के बावजूद सामयिक लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर दृष्टिसम्पन्न आलोचकों के गंभीर विचारों के अलावा लघुकथा के तमामं आयामों,उसका वुजूद,उसका सफरनामा,उसकी बनावट-बुनावट पर लघुकथा के विशिष्ट जानकारों के आलेखों का प्रकाशन , अंक को पायदार बनाने में महत्वपूर्ण है। प्रो बी एल आच्छा, डॉ उमेश मनदोषी, रवि प्रभाकर द्वारा लघुकथाओं की सटीक आलोचना के बरअक्स
डॉ अशोक भाटिया,भगीरथ परिहार,माधव नागदा,मधुदीप,डॉ मिथिलेश दीक्षित, रामेश्वर काम्बोज, डॉ रामकुमार घोटड, डॉ सतीशराज पुष्करणा,पुष्पा जमुआर, डॉ शकुन्तला किरण, डॉ शिखा कौशिक नूतन और अंत में प्रस्तुत अंक पर अंक की परिचयात्मक टिप्पणी के प्रस्तोता नाचीज़ डॉ पुरुषोत्तम दुबे के आलेखों का प्रकाशन हिंदी लघुकथा की समीचीनता के पक्ष में उपयोगी हैं।
लघुकथा पर मुकेश शर्मा द्वारा डॉ इन्दु बाली से तथा डॉ लता अग्रवाल द्वारा शमीम शर्मा से लिये गए साक्षात्कार लघुकथा की दशा,दिशा और संभावनाओं पर केंद्रित होकर लघुकथा में शैली और शिल्प पर भी प्रकाश डालता है।
इस अंक की खास-उल-खास विशेषता यह है कि अंक में 'शृद्धाञ्जली 'शीर्षक के अधीन उन सभी स्वर्गीय नामचीन लघुकथाकारों की लघुकथाओं का प्रकाशन भी किया गया मिलता है ; जो अपने समय में लघुकथा-जगत में सृजनकर्मी होकर लघुकथा के क्षेत्र के चिरपुरोधा बने हुए हैं।
अंक में आगे हिन्दी में लघुकथा लिखने वाले 245 लघुकथाकारों का जमावड़ा और आगे के क्रम में बांग्ला, मराठी,निमाड़ी,पंजाबी तथा उर्दू के लघुकथाकारों की लघुकथाएं अपने अलग जज़्बे के साथ पठनीय हैं ।
फिर सामने आता है लघुकथा केंद्रित पुस्तकों की समीक्षा का दौर , तदुपरांत देश के विभिन्न प्रान्तों में आयोजित हुई लघुकथा पर गतिविधियों की रिपोर्ट का प्रकाशन , जो अंक को सम्पूर्ण बनाने में अतिरेक रूप में ज़रूरी -सा दृष्टिगोचर होता है|
बधाई , योगराज प्रभाकर जी ,देश भर के विभिन्न भाषा-भाषी लघुकथाकारों की लघुकथाओं को एक जिल्द में समेटने के सन्दर्भ में। इस बात से सबसे ज़्यादा भला उन लघुकथाकारों को होगा , जो अपनी लघुकथाओं की पृष्ठभूमि में अन्यान्य प्रान्तों के कथानकों को तरज़ीह देना चाहते हैं ,ऐसे लघुकथाकार इस अंक के माध्यम से मराठी, बांग्ला, उर्दू , पंजाबी, निमाड़ी आदि की लघुकथाओं के ' लेखन-प्रचलन ' को नज़दीक से समझकर अपनी लघुकथाओं के कथानकों सृजन में भिन्न-भिन्न भाषाओं की शब्द-सम्पदा गृहीत कर सकते हैं और जिसकी वजह से वे अपनी लघुकथाओं के कथानक की प्रस्तुति मेंअपने वर्णित कथानक को भाषा और विचार की दृष्टि से भारतीय राष्ट्रीयता का रंग दे सकते हैं।
- डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
सम्पर्क : 93295 81414
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