श्रीयुत अनिल मकारिया उन लघुकथाकारों में से हैं जो गहराई में जाकर अपनी स्वयं की रचना का आकलन करने में सक्षम हैं। भाषा और शिल्प पर उनकी बड़ी पकड़ है।
अतएव,जब वे एक पाठक और समीक्षक बन किसी रचना का आकलन करते हैं तो उस रचना के रचनाकार के मोजों से लेकर टोपी तक खुद के पैरों से लेकर सिर तक फिट कर लेते हैं और अपने बाकमाल अंदाज़ में बहुत अच्छी समिक्षीय टिप्पणी से रचनाओं को दर्शा देते हैं।
उपरोक्त बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं प्रतीत होगी,जब आप इस पोस्ट में उनके द्वारा की गई एक लघुकथा 'मुर्दों के सम्प्रदाय' की निम्न समीक्षा पढ़ेंगे।
- चन्द्रेश कुमार छतलानी
-०-
पढ़ते-पढ़ते लघुकथा संग्रह 'हाल-ए-वक्त' / अनिल मकारिया
'हाल-ए-वक्त' लघुकथा संग्रह में दर्ज बेहतरीन लघुकथाओं में से एक है 'मुर्दों के सम्प्रदाय', यह लघुकथा पिता-पुत्र संवाद में छिपे प्रतीकों द्वारा प्रस्तुत होती है। इस लघुकथा को अगर संवाद-दर-संवाद, चबा-चबाकर पढ़ा जाए तो लेखक के प्रतीक गढ़ने की प्रतिभा एवं क्षमता का नायाब प्रदर्शन पाठक के समक्ष नमूदार होता है। जब पाठक ज़ेहन में यह लघुकथा खुल जाती है, तब इस लघुकथा का शीर्षक 'मुर्दों के संप्रदाय' पाठक को अजीब नहीं बल्कि मौजूं लगने लगता है। यह लघुकथा राजनीति विमर्श संबंधित कथ्य लिए हुए, प्रतीकों के सटीक इस्तेमाल और अलहदा निर्वहन के लिए पहचानी जाएगी। इस लघुकथा को खोलने के लिए हमें इसके संवादों में छुपी हुई प्रतिध्वनियों को सुनना होगा। इस लघुकथा का प्रथम संवाद बेटे द्वारा पिता से पूछा गया प्रश्न है,
//पापा, हम इस दुकान से ही मटन क्यों लेते हैं? हमारे घर के पास वाली दुकान से क्यों नहीं?// मानो कोई मतदान योग्य हुआ नौजवान बेटा अपने अनुभवी पिता से पूछ रहा हो।
प्रतिध्वनि: हम किसी खास पार्टी को ही वोट क्यों देते हैं ? दूसरी पार्टी को क्यों नहीं ?
लघुकथा में पिता का उत्तर आता है,
//क्योंकि हम हिन्दू हैं, हम झटके का माँस खाते हैं और घर के पास वाली दुकान हलाल की है, वहाँ का माँस मुसलमान खाते हैं।// जाती-धर्म की राजनीति से प्रभावित पिता के अनुभव का उत्तर पाठक मन में कुछ यूँ प्रतिध्वनित होता है,
प्रतिध्वनि: हम हिन्दू हैं इसलिए उस खास पार्टी को ही वोट देते हैं क्योंकि वह हिन्दू हित की बात करती है और क्योंकि दूसरी पार्टी मुस्लिम तुष्टिकरण की बात करती है तो उसे वोट भी मुस्लिम ही करते हैं।
जब बेटा दोनों दुकानों (पार्टीयों) का अंतर पूछता है तो पिता अनमने उत्तर दे ही देते हैं,
//बकरे को काटने के तरीके का अंतर है...//
प्रतिध्वनि: पार्टियों के मतदाता को लुभाने के तरीके एवं आश्वासनों का अंतर है।
बेटा शव को हिन्दूओं द्वारा जलाने और मुसलमान द्वारा दफनाने का उदाहरण देकर समझने की तस्दीक करना चाहता है और यह उदाहरण सुनकर पिता मुस्कुराकर उत्तर देते हैं।
//हाँ बेटे, बिल्कुल वैसे ही।//
प्रतिध्वनि: मज़हब के आधार पर हुए चुनाव में जीते कोई भी, जनाजा तो लोकतंत्र का ही निकलता है।
बाद में बेटे द्वारा यह पूछना की //कैसे पता चलता है कि बकरा हिन्दू है या मुसलमान ?// साफ प्रतिध्वनित करता है,
'कैसे पता चलेगा कि जनता (बकरे) ने वाकई सही नुमाइंदा (कसाई) चुना है ?'
अब पिता किसी खास पार्टी के प्रति अपने प्रेम को ताक में रखकर, एक ऐसी बात अपने बेटे से कहता है जो इस लघुकथा की पंचलाइन भी है और लघुकथा के कथ्य को भी पाठकों के समक्ष स्पष्ट कर देती है।
//बकरा गंवार-सा जानवर... जीते-जी नहीं//
प्रतिध्वनि: जनता बकरे के समान है और पार्टियां कसाइयों की भाँति, मतदान के बाद चाहे जनादेश किसी भी ओर झुका हो, सच तो यह है कि जनता रूपी गंवार बकरा, किसी न किसी पार्टी (कसाई ) के हाथों कटकर (पांच साल के लिए शासक चुनकर) अपनी जान गंवा चुका होता है।
चंद्रेश जी के इस संग्रह में कुछ लघुकथाएँ पाठकों के दिमाग को व्यस्त रखती हैं और नए नजरियों से पढ़ने पर विवश करती हैं। कई पाठकों का कहना है कि लघुकथा को उस अंदाज से प्रस्तुत ही क्यों करना, जिसे समझने के लिए दिमाग को मेहनत करनी पड़े ?
और मुझे लगता है कि लघुकथा को प्रस्तुत ही इस अंदाज से करना चाहिए कि दिलोदिमाग उसे खोलने में व्यस्त हो जाये क्योंकि यह व्यस्तता ही हमें विचारों के नए आयामों की ओर लेकर जाती है, नए कथ्य-कथानकों की ओर आकर्षित करती है।
इस संग्रह के शुरुआती पन्नों में दर्ज लघुकथाओं में से 'E=MC × शून्य' लघुकथा का कथानक अगर अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है तो 'कटती हुई हवा' का कथानक उतना ही मार्मिक एवं शानदार है। 'वही पुरानी तकनीक' लघुकथा भूख जैसे सार्वभौमिक विषय पर लिखी बेजोड़ कृति है, इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति हृदय विदारक बयान प्रस्तुत करती है। 'पत्ता परिवर्तन' लघुकथा में प्रतीकों का कमजोर प्रस्तुतिकरण हुआ महसूस होता है। 'एक बिखरता टुकड़ा' के संवादों में बेहतरी की गुंजाइश बनी हुई है। 'संस्कार' लघुकथा अगर किसी फिल्म की मानिंद लगती है तो 'भटकना बेहतर' पुराने कथ्य-कथानक की निष्प्रभ प्रस्तुति है। 'गूंगा कुछ तो करता है' लघुकथा सोशल साइट्स पर राजनीतिक टिप्पणियों पर मची घमासान की मुस्कुराती हुई शानदार अभिव्यक्ति है।
(क्रमश:)
#Anil_Makariya
लघुकथा संग्रह : हाल-ए-वक्त
लेखक : चंद्रेश कुमार छतलानी
प्रकाशक : हिमांशु पब्लिकेशन्स
मूल्य : ₹ २५०
पृष्ठ : ९०
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (03-09-2022) को "कमल-कुमुद के भिन्न ढंग हैं" (चर्चा अंक-4541) (चर्चा अंक-4534) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर समीक्षा।
जवाब देंहटाएं