एक बिखरता टुकड़ा /
डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
एक टीवी चैनल के कार्यालय से चार-पांच गाड़ियां एक साथ बाहर निकलीं।
उनमें अलग-अलग राजनीतिक दलों के प्रवक्ता वाद-विवाद के एक कार्यक्रम में भाग लेकर
जा रहे थे। एक कार में से आवाज़ आई, "भगतसिंह के साथ
जो नाइंसाफी हुई, उसमें किसका हाथ था, यह
अब देश की जनता समझ..."
बात खत्म होने से पहले ही दूसरी गाड़ी से आवाज़ आई, "गोडसे को पूजने वाले गाँधीजी को तो मार सकते हैं लेकिन उनके
विचारों..." यह बात भी पूरी होती उससे पहले ही वह गाड़ी झटके से रुक गयी। अन्य
गाड़ियां भी रुक गयीं थीं। सभी व्यक्ति घबराये से बाहर निकले।
वहां एक विशालकाय बादल ज़मीन पर उतरा हुआ था। उस बादल में बहुत सारे
चेहरे उभरे हुए थे, गौर से देखने पर भी उन्हें वे चेहरे स्पष्ट नहीं हो
पाए। उन चेहरों में से गोल चश्मा लगे एक दुबले चेहरे, जिसके
सिर पर बाल नहीं थे, के होंठ हिलने लगे और पतला सा स्वर आया,
"तुम लोग जानते हो आपस में लड़ कर क्या सन्देश दे रहे हो?
समझो! शराबी की तरह लड़खड़ाते शब्दों को गटर में ही जगह मिलती है।"
बादल से आती आवाज़ सुनकर वे सभी अवाक रह गए।
कुछ क्षणों बाद बादल में मूंछ मरोड़ते हुए एक दूसरे चेहरे के होंठ
हिलने लगे, भारी स्वर गूंजा,"हमने देश
को जिन लोगों से आज़ाद कराने के लिए प्राण त्यागे, आज भी वे
घुसपैठ कर रहे हैं। हम
फूट डालो और राज करो की नीति के विरोधी थे और तुम ! हमारे
नाम पर ही देश के भाइयों में फूट डाल रहे हो!"
अब एक जवान व्यक्ति का चेहरा जिसने अंग्रेजी हेट पहना हुआ था, होंठ हिलाने लगा, जोशीली आवाज़ आई, "फांसी पर झूलते हुए हम हँस रहे थे क्योंकि हमारी फांसी क्रांति का पर्याय
बनने वाली थी, लेकिन वही फांसी अब खोखली राजनीति का पर्याय
है।"
उन आश्चर्यचकित खड़े लोगों में से एक ने साहस करके पूछा, "कौ… कौन है वहां?"
यह सुनते ही उन सभी चेहरों की आँखों के नीचे बादल पिघलने लगा, पानी बहते हुए सड़क पर बिखर गया और बहुत सारे आक्रोशित स्वरों की मिश्रित
आवाज़ एक साथ आई "बंद करो हमारे नामों की राजनीति!"
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