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मंगलवार, 28 मई 2019

पुस्तक समीक्षा | परिंदे पूछते हैं | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"परिंदे पूछते हैं" - जिज्ञासु लघुकथाकारों के प्रश्नों के उत्तर
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

"परिंदे पूछते हैं" लघुकथा विधा पर सार्थक विमर्श का एक ऐसा आउटपुट है, जो ना केवल नवोदित रचनाकारों के लिए बल्कि उनसे कुछेक कदम आगे बढ़े लघुकथाकारों के लिए भी उपयोगी विषय-वस्तु समेटे है। इस पुस्तक में लघुकथा सम्बन्धी लगभग सभी विषयों पर डॉ. अशोक भाटिया जी द्वारा चर्चा कर जिज्ञासु लघुकथाकारों के प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं। अपनी पारखी दृष्टि से आपने ऐसी लघुकथाओं को उदाहरणस्वरूप भी प्रस्तुत किया है, जिन्हें प्रश्न के साथ जोड़कर लघुकथाकार खुद-ब-खुद उत्तर को अधिक आसानी से समझ सकें। मेरे लिए एक बहुत बड़ी बात यह रही कि यह पुस्तक स्वयं डॉ. अशोक भाटिया जी ने मुझे आशीर्वाद स्वरूप प्रदान की। तब से इसे तीन-चार बार पढ़ चुका हूँ और अपने कुछ मित्रों को पढ़ा भी चुका हूँ।

इस पुस्तक के कुछ कथन ऐसे हैं, जिनकी गंभीरता पर ध्यान देना मैं ज़रूरी समझता हूँ जैसे,

1. लघुकथा की शब्द संख्या को लेकर गद्य और पद्य के अंतर को दर्शाते हुए अशोक भाटिया जी सर ने बताया कि छंदबद्ध दोहों, कविताओं आदि में मात्राओं, गणों और क्रम का महत्व होता है, लेकिन गद्य में ऐसा नहीं है, हाँ! उपन्यास से छोटी कहानी और कहानी से छोटी लघुकथा होनी चाहिए, क्यूंकि लघुकथा एक आयामी होती है।

2. लघुकथा और कहानी में अंतर को स्पष्ट करते हुए डॉ. भाटिया ने यह बताया कि कहानी चाहे बड़ी हो छोटी वह "कहानी" ही कहलाएगी। किसी भी रचनाकार को यह सोचने से पहले कि उनकी लिखी रचना लघुकथा है या कहानी, यह सोचना चाहिए कि रचना अपने सभी पहलुओं यथा कथानक, उद्देश्य, संवाद, भाषा आदि की पूर्णता की ओर जाकर कुछ न कुछ सन्देश अवश्य दे और पाठक के लिए आकर्षक (रुचिकर) होकर उसकी चेतना पर प्रहार करने का सामर्थ्य रखे।

3. लेखक के मन में समाज का एक सुंदर स्वप्न होता है, इसलिए विसंगतियों के प्रति आक्रोश का भाव उत्पन्न हो ही जाता है, लेकिन इसके बावजूद भी अपनी रचनाओं को विसंगतियों की सीमाओं में बाँध कर रखना ठीक नहीं। समाज का सही चित्रण हो यह आवश्यक है।

4. लघुकथा सहित कोई भी रचना काल्पनिक भी हो सकती है, पूर्ण यथार्थपरक भी और दोनों का मिश्रण भी। लेकिन कल्पना हवाई नहीं होनी चाहिए। इसके उदाहरण में आपने बताया कि "स्वाति नक्षत्र से गिरी हुई बूँद मोती बन गयी", यह एक कल्पना है। उसी तरह ब्रह्मा के तीन मुख, माँ दुर्गा के आठ हाथ कल्पना है। लेकिन ये सारी कल्पनाएं इसी दुनिया से आई हैं। सीप से मोती एक प्रक्रिया के तहत बनता ही है, हाथ-पैर-सिर होते ही हैं। ये कल्पनाएं कहीं न कहीं यथार्थ से जुडी हुई हैं।

5.रचना में जिस क्षेत्र के लिए कहा जा रहा है, पात्रों के नाम उसी अनुसार हों। कोशिश यह हो कि पात्रों के नाम अनावश्यक जाती सूचक ना हों और केवल ग्लैमर के लिए ना हों।

6. लघुकथा में सन्देश सीधे-सीधे दिया जाये, यह कोई आवश्यक नहीं। सतही सन्देश देना कई बार रचना को कमजोर करता है। समकालीन हिंदी लघुकथाएं यथार्थ पर टिकी हैं और बोधकथा वाली शैली पीछे छूट गयी है। सीधे सन्देश देने की बजाय कलात्मक तरीके से सन्देश देने पर पाठक पर अधिक प्रभाव पड़ेगा।

7. लघुकथा के शीर्षक पर खुले मन से विचार करें। शीर्षक रोचक भी हो सकता है, जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला भी, व्यंग्यात्मक भी और प्रतीकात्मक भी। कई बार शीर्षक पूरी लघुकथा को ही एक नया आयाम प्रदान कर देता है।

8. विचारहीन, भावहीन, रचनात्मकताहीन, दिशाहीन लघुकथाओं के गोदाम गलतफहमियां पैदा कर रहे हैं।

9. गद्य विधा में मानकों की सूची नहीं होती, केवल विधागत मर्यादाएं होती हैं।

10. प्रतीक रचना में गहरा अर्थ भरते हैं। इनके प्रयोग से कई बार रचना को नयी ऊंचाई भी प्राप्त हो सकती है।

मेरे अनुसार वैसे तो सभी लघुकथाकारों को अपना रास्ता खुद ही चुन कर आगे बढ़ना है, लेकिन "परिंदे पूछते हैं" सरीखी उपयोगी पुस्तकें पढ़नी ही चाहिए। ऐसी पुस्तकें, आलेख आदि रचनाकर्म का मार्ग प्रशस्त करने में महती भूमिका का निर्वाह करते हैं।

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पुस्तक : परिंदे पूछते हैं
लेखक : डॉ. अशोक भाटिया 
प्रकाशक : लघुकथा शोध केन्द्र, भोपाल 
पृष्ठ संख्या: 144
मूल्य : रु.100/-
समीक्षाकार: - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-05-2019) को "बन्दनवार सजाना होगा" (चर्चा अंक- 3350) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'जी।

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