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सोमवार, 18 मार्च 2019

लघुकथा: मधुर मिलन | किरण बरनवाल

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"ऊपर वाले ने सबको एक जैसा बनाया है, हम इंसान ही धर्म के आधार पर बंट कर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं।"
खुद से बातें करती बूढ़ी काकी कस्बे में हुए दंगे से व्यथित थी। 

जिस मोहल्ले में दिवाली की मिठाई और ईद की सेवइयों को मिल-बाँट कर खाया जाता था, वहीं की स`ड़कें आज खून के छींटों से पटी हुई है। लेकिन किसे पता था कि कौनसा छींटा हरे वाले का है, कौनसा केसरिया वालों का?


हुआ यूं था, नसीर का बेटा लापता हो गया। उसे अंतिम बार साह जी के बेटे के साथ देखा गया था। वर्ग विशेष के ठेकेदारों  ने यह अंदाजा लगवा लिया कि दोस्ती की आड़ में धर्म पर प्रहार किया गया है। फिर क्या! धार्मिक उन्माद में भला-बुरा सोचे बिना प्रतिशोध की ज्वाला जलने लगी।


बदले की भावना से हरे और केसरिये झंडे हवा की बजाय तलवार की नोक पर लहरा रहे थे। दोनों संप्रदाय एक बार फिर उन्मादी होकर एक-दूसरे के सामने आ गए कि तभी बूढ़ी काकी नसीर के बेटे को गोद में लिए बीच में आ गई, और चिल्ला कर बोली, "बच्चा खेलते हुए जंगल की तरफ चला गया और रास्ता भटक गया था। मैं ढंग से चल नहीं सकती हूँ फिर भी इसे ढूंढ कर लाई और तुम लोग... दौड़ सकते हो... लेकिन..." कहते हुए वह फफकने लगी।


तलवारों की चमक धूमिल हो गयी। तेज़ चलती हवा से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हरे और केसरिया झंडों के बीच खड़ी काकी अपनी श्वेत धवल साड़ी के उड़ते आँचल से दोनों रंगों का मधुर मिलन करा रही हो।


किरण बरनवाल 

जमशेदपुर

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-03-2019) को "मन के मृदु उद्गार" (चर्चा अंक-3279) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुंदर और भावपूर्ण लघुकथा।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

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