मित्रों और साथियों,
लघुकथा विधा में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर का एक महत्वपूर्ण स्थान है। आपने कई वर्षों तक लघुकथा की साधना करने के पश्चात स्वयं को इस स्थान पर खड़ा किया है। आज आपकी सात लघुकथाएं जो संगीत के सात शुद्ध स्वरों (सप्तक) की तरह ही लघुकथा के हर सुर का निर्माण करती हैं आपके समक्ष प्रस्तुत हैं। लघुकथा के स्वरों और ताल के अनुशासन को स्वयं में समेटे हुए इन रचनाओं को जितनी ही बार पढ़ा जाये, उनसे कुछ-न-कुछ नया सीखने को ही मिलेगा। हर लघुकथा पर मैंने अपनी अभिव्यक्ति भी दी है, जो केवल प्रतिक्रिया मात्र है।
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प्रथम रचना "अपनी अपनी भूख" संगीत का पहला स्वर - षडज, एक मयूर की भाँती गाता हुआ, हमारे मूलाधार चक्र में समाहित होता, एक ऐसा स्वर है, जिसकी frequency सबसे नीची होती है। गंभीरता इस स्वर से झलकती है। ऐसी ही रचना है यह, जो अंत में माँ से अपने भूखे बच्चे की भूख मिटाने के लिये कहलवाती है। //"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी I"// यह वाक्य भूख की उतनी गहराई तक उतरने में सक्षम हैं, जितना षडज (स) संगीत की गहराई में। भूख भी तो षडज की तरह ही मानव जीवन का "अचल स्वर" है। आइये पढ़ते हैं।
१- अपनी अपनी भूख (लघुकथा)
पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थीI कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाताI दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा थाI घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थीI घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहतीI कई बार उसने पूछना भी चाहा किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुईI आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थेI रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया:
"बीबी जी! क्या हुआ है छोटे बाबू को ?"
"देखती नहीं कितने दिनों से तबीयत ठीक नहीं है उसकी?" मालकिन ने बेहद रूखे स्वर में कहा I
"मगर हुआ क्या है उसको जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा?"
"बहुत भयंकर रोग है!" एक गहरी सांस लेते हुए मालिकन ने कहा I
"हाय राम! कैसा भयंकर रोग बीबी जी?" नौकरानी पूछे बिना रह न सकी I
मालकिन ने अपने कमरे की तरफ मुड़ते हुए एक गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया:
"उसको भूख नहीं लगती रीI"
मालकिन के जाते ही अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई नौकरानी बुदबुदाई:
"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी I"
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द्वितीय रचना "सदियों के फासले" - संगीत के दूसरे स्वर "ऋषभ" की तरह। रे स्वर स से ज्यादा तीव्र है, चल स्वर है, इसका कोमल स्वरुप भी है और शुद्ध स्वरुप भी। सर की यह रचना भी दो स्वरुप लिए हुए है। जहाँ एक तरफ देश की तरक्की देख क़र नायक का मन खिल उठा, वहीँ दूसरी तरफ गाँव में प्रवेश करते ही जीर्ण शीर्ण सी इमारत को देखकर वह सन्न रह गया। शहर और गाँव के विकास के अंतर को दर्शाती यह रचना तीव्र चोट कर ही जाती है। आइये पढ़ते हैं।
२- "सदियों के फासले" (लघुकथा)
तक़रीबन २० साल विदेश में रहने के बाद आज वह अपने गाँव जा रहा था। देश की तरक्की देख क़र उसका मन खिल उठा था I जहाँ कभी कुछ भी नहीं हुआ करता था वहीँ भव्य इमारतें, सड़क पर दौड़ती तरह तरह की देसी विदेशी गाड़ियाँ, बिजली की रौशनी से चमचमाते बड़े बड़े मॉल और खूबसूरत सड़कें देख देखकर हैरान भी था और बेहद खुश भी। उसने विदेश में जो भारत के विकास और इक्कीसवीं सदी में प्रवेश की बातें पढ़ीं थीं, वह सब उसके सामने थीं। गाडी अब शहर छोड़ चुकी थी, और इसके साथ ही आसपास की तस्वीर भी बदलने लगी थी I अब टूटे-फूटे धूल भरे रास्तों ने पक्की सड़कों की जगह ले ली थी I गाड़ी धूल उडाती हुई उसके गाँव पहुँच गई, गाँव में प्रवेश करते ही जब उसकी नज़र एक जीर्ण शीर्ण सी इमारत पर पडी तो वह सन्न रह गया। यह वही पाठशाला थी जिसमे वह पढ़ा करता था I बिना छत के बरामदे में ज़मीन पर बैठकर पढ़ रहे बच्चे विकास की एक अलग ही तस्वीर पेश कर रहे थे। उसको इस तरह हैरान परेशान देखकर एक बुज़ुर्ग ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा:
"बेटा ! इक्कीसवीं सदी शहरों से बाहर नहीं निकलती।"
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आपकी तृतीय रचना "एक और पड़ाव" भी संगीत के तीसरे स्वर "गंधार" को ही तो दर्शा रही है। "ऋषभ" से थोड़ी अधिक frequency लिये गंधार हमारे "मणिपुर" चक्र को जागृत करता है। स्व-उर्जा को थोड़ा और ऊँचा ले लेता है, और आत्मशक्ति प्रदान करता है, स्वयं को जानने की शक्ति देता है। इसी तरह इस रचना में स्वयं को प्रकृति के करीब पा कर नायक ने जाना कि कर्मयोगी परिवार से दूर जाने का नाम नहीं है, बल्कि स्वयं को और अपने परिवार को जानने का भी नाम है। आइये पढ़ते हैं।
३- एक और पड़ाव
बहुत बरसों के बाद वह स्वयं को को बहुत ही हल्का हल्का महसूस कर रहा था. न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता थी, न जिम जाने की हड़बड़ी और न ही अभ्यास सत्र में जाने की फिकर. लगभग ढाई दशक तक अपने खेल के बेताज बादशाह रहे रॉबिन ने जब खेल से सन्यास की घोषणा की थी तो पूरे मीडिया ने उसकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े थे. समूचे खेल जगत से शुभकामनायों के संदेश आए थे. कोई उस पर किताब लिखने की बात कर रहा था तो कोई वृत-चित्र बनाने की. उसकी उपलब्धियों पर गोष्ठियाँ की जा रही थीं. किन्तु वह इन सबसे दूर एक शांत पहाड़ी इलाक़े में अपनी पत्नी के साथ छुट्टियाँ मनाने आया हुया था. इस शांत वातावरण में वह भी पक्षियों की भाँति चहचहा रहा था. हर समय खेल, टीम, जीत के दबाव और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला रॉबिन प्राकृतिक नज़रों में खो सा गया था.
"देखो नंदा, ये पहाड़ और झरने कितने सुंदर लग रहे हैं."
"अरे ! आप कब से प्रकृति प्रेमी हो गये?"
"शुरू से ही हूँ जानूँ."
"मगर कभी बताया तो नही अपने इस बारे में."
"ज़िंदगी की आपा धापी नें कभी समय ही नही दिया."
जवाब में नंदा केवल मुस्कुरा भर दी, फिर रॉबिन के चेहरे पर गंभीरता पसरती देख उसने उसने कहा :
"क्या सोच रहे हो?"
"सोच रहा हूँ, क्यों न हम भी महानगर छोड़ कर यहीं आकर बस जाएँ?" नंदा का हाथ मजबूती से थामते हुए कहा.
"मगर हम करेंगे क्या यहाँ?" नंदा के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आये थे.
"थोड़ी सी ज़मीन ख़रीदेंगे और उस पर फूलों की खेती करेंगे."
"आपको जो चीफ सेलेक्टर की जॉब ऑफर हुई है, उसका क्या होगा?"
"मैं उनको साफ़ मना कर दूँगा?"
"ऐसा सुनहरी मौका हाथ से जाने देंगे? मगर क्यों ?"
नंदा का चेहरा अपने दोनो हाथों में भरते हुए रॉबिन ने जवाब दिया:
"आज पहली बार गौर किया नंदा क़ि तुम कितनी खूबसूरत हो."
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संगीत का चौथा स्वर है "मध्यम", इस स्वर की विशेषता यह है कि, किसी भी गायन की शुरुआत इस स्वर से करना बहुत कठिन है। इसे ढंग से साधने के बाद ही इसकी मधुरता का अहसास होता है। मध्यम स्वर का कोमल स्वरूप नहीं है, केवल तीव्र और शुद्ध स्वरुप है। और यही तो चौथी रचना "अपने अपने सावन" में दर्शाया गया है। कच्चे घर में परिवार सहित बारिश का सामना करता हुआ गायक, सावन के मस्ती भरे गीत नहीं गा पाया। मध्यम स्वर "अनाहत चक्र" से सम्बन्धित है, जिससे सृजनशीलता बढती है और अविवेक समाप्त होता है। इस रचना में भी यही तो है, सृजनशील नायक का विवेक अपने परिवार के कष्टों से दूर नहीं जा पाया। आइये पढ़ते हैं।
४- अपने अपने सावन
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बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कच्ची छत से पानी की धाराएं निरंतर बह रहीं थीं। टपकते पानी के लिए घर में जगह जगह रखे छोटे बड़े बर्तन भी बार बार भर जाते। उसके बीवी बच्चे एक कोने में दुबके बैठे थे। परेशानी के इसी आलम में कवि सुधाकर टपकती हुई छत के लिए बाजार से प्लास्टिक की तरपाल खरीदने चल पड़ा। चौक पर पहुँचते ही पीछे से किसी ने आवाज़ दी:
"सुधाकर जी, ज़रा रुकिए।" आवाज़ देने वाला उसका एक परिचित लेखक मित्र था।
"जी भाई साहिब, कहिए।"
"अरे भाई कहाँ रहते हैं आजकल? परसों सावन कवि सम्मलेन है। मैं चाहता हूँ कि आप बरसात पर कोई ऐसा फड़कता हुआ गीत पेश करें ताकि लोगबाग मस्ती में झूम उठें।"
सावन और बरसात का नाम सुनते ही घर टपकती हुई छत उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई, टपकते हुए पानी को संभालने में असमर्थ बर्तन उसे मुँह चिढ़ाने लगे।
"क्या सोच रहे हैं? अरे देश के बड़े बड़े कवियों की मौजूदगी में कवितापाठ करना तो बड़े गर्व की बात है।"
"वो सब तो ठीक है, लेकिन मुझसे झूठ नहीं बोला जाएगा।"
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भारतीय संगीत में पांचवे स्वर का नाम "पंचम" ही रखा गया है, प्रथम स्वर की तरह इसका भी न तो कोमल स्वरूप है और न ही तीव्र स्वरुप - केवल शुद्ध स्वरुप है। अर्थात यह भी अचल स्वर है। इसका प्राणी है - कोयल और चक्र है "विशुद्ध" चक्र - गले में स्थित। कोयल मीठा बोलती है और आदरणीय सर की इस रचना में प्रोड्यूसर अपने स्क्रिप्ट राइटर को मीठा बोलने ही की शिक्षा दे रहा है, लेकिन उसके बोलने का तरीका कडुवा है। विशुद्ध चक्र का जब जागरण होता है, तब गला खराब हो सकता है, लेकिन अंत में मीठा बोलने की क्षमता आ जाती है। यही बात अंत में स्क्रिप्ट राइटर को भी समझ में भी आ जाती है। इसके अलावा "पंचम" अचल स्वर है, प्रोड्यूसर भी यही कह रहा है, कि कहीं भटकने की ज़रूरत नहीं, जो कहा जाये वही करो। अचल रहो। आइये पढ़ते हैं।
५- जमूरे
स्क्रिप्ट के पन्ने पलटते हुए अचानक प्रोड्यूसर के माथे पर त्योरियाँ पड़ गईं, पास बैठे युवा स्क्रिप्ट राइटर की ओर मुड़ते हुए वह भड़का:
"ये तुम्हारी अक्ल को हो क्या गया है?"
"क्या हुआ सर जी, कोई गलती हो गई क्या?" स्क्रिप्ट राइटर ने आश्चर्य से पूछाI
"अरे इनको शराब पीते हुए क्यों दिखा दिया?"
"सर जो आदमी ऐसी पार्टी में जाएगा वो शराब तो पिएगा ही न?"
"अरे नहीं नहीं, बदलो इस सीन कोI"
"मगर ये तो स्क्रिप्ट की डिमांड हैI"
"गोली मारो स्क्रिप्ट कोI यह सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI"
"लेकिन सर नशे में चूर होकर ही तो इसका असली चेहरा उजागर होगाI"
"जो मैं कहता हूँ वो सुनोI ये पार्टी में आएगा, मगर दारू नहीं सिर्फ पानी पिएगा क्योंकि इसे धार्मिक आदमी दिखाना हैI"
"लेकिन ड्रग्स का धंधा करने वाला आदमी और शराब से परहेज़? ये क्या बात हुई?"
"तुम अभी इस लाइन में नए हो, इसको कहते हैं कहानी में ट्विस्टI"
"अगर ये धार्मिक आदमी है तो फिर उस रेप सीन का क्या होगा?"
"अरे यार तुम ज़रुर कम्पनी का दिवाला पिटवाओगेI खुद भी मरोगे और मुझे भी मरवाओगेI ऐसा कोई सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI"
"तो फिर क्या करें?"
"करना क्या है? कुछ अच्छा सोचोI स्क्रिप्ट राइटर तुम हो या मैं? प्रोड्यूसर ने उसे डांटते हुए कहाI
स्क्रिप्ट राइटर कुछ समझने का प्रयास ही कर रहा था कि प्रोड्यूसर स्क्रिप्ट का एक पन्ना उसके सामने पटकते हुए चिल्लाया:
"और ये क्या है? इसको अपने देश के खिलाफ ज़हर उगलते हुए क्यों दिखाया है?"
"कहानी आगे बढ़ाने लिए यह निहायत ज़रूरी है सर, यही तो पूरी कहानी का सार हैI" उसने समझाने का प्रयास कियाI
"सार वार गया तेल लेने! थोडा समझ से काम लो, यहाँ देश की बजाय इसे पुलिस और प्रशासन के ज़ुल्मों के खिलाफ बोलता हुआ दिखाओ ताकि पब्लिक की सिम्पथी मिलेI" प्रोड्यूसर ने थोड़े नर्म लहजे में उसे समझाते हुए कहाI
"नहीं सर! इस तरह तो इस आदमी की इमेज ही बदल जाएगीI एक माफ़िया डॉन जो विदेश में बैठकर हमारे देश की बर्बादी चाहता है, जो बम धमाके करवा कर सैकड़ों लोगों की जान ले चुका है, उसके लिए पब्लिक सिम्पथी पैदा करना तो सरासर पाप हैI" स्क्रिप्ट राइटर के सब्र का बाँध टूट चुका थाI
उसे यूँ भड़कता देख, अनुभवी और उम्रदराज़ अभिनता जो सारी बातें बहुत गौर से सुन रहा था, उठकर पास आया और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए धीमे से बोला:
"राइटर साहिब! हमारी लाइन में एक चीज़ पाप और पुण्य से भी बड़ी होती हैI"
"वो क्या?"
"वो है फाइनेंसI फिल्म बनाने के लिए पुण्य नहीं, पैसा चाहिए होता है पैसा! कुछ समझे?"
"समझने की कोशिश कर रहा हूँ सरI" ठंडी सांस लेते हुए उसने जवाब दियाI
सच्चाई सामने आते ही स्क्रिप्ट राइटर की मुट्ठियाँ बहुत जोर से भिंचने लगीं और वहाँ मौजूद हर आदमी अब उसको माफ़िया डॉन का हमशक्ल दिखाई दे रहा है
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योगराज प्रभाकर जी सर द्वारा सृजित छठी रचना है "कसक", आदरणीय सुधीजनों, "धैवत" संगीत का छठा स्वर है, जिसका प्राणी घोड़ा है और चक्र है "त्रिनेत्र"। अश्व के पास गति और शक्ति दोनों होती है, यह रचना भी एक ऐसे अश्व के बारे में बता रही है जो गाँव से शहर पलायन कर गया और कमाना शुरू कर दिया। "त्रिनेत्र चक्र" मानसिक विचारों को दूर तक भेज सकता है और सोचने-समझने की बाह्य और आंतरिक शक्ति प्रदान करता है और इस रचना के अंत में यही है, एक समझ विकसित होती है, //बेटियों को याद करते हुए एक ठण्डी आह भरते हुए वह बोली : "हमसे तो वो ही अच्छा है जी।"//। आइये पढ़ते हैं।
६- कसक
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"ये मिठाई कहाँ से आई जी?" अपने खेत के किनारे चारपाई पर चुपचाप लेटे शून्य को निहारते हुए पति से पूछाI
"अरी, वो गुलाबो का लड़का दे गया था दोपहर को।" उसने चारपाई से उठते हुए उत्तर दियाI
"कौन? वही जो शहर में सब्ज़ी का ठेला लगाता है?"
"हाँ वही! बता रहा था कि अब उसने दुकान खोल ली है, उसकी ख़ुशी में मिठाई बाँट रहा थाI" पति ने मिठाई का डिब्बा उसकी तरफ सरकाते हुए कहाI
"चलो अच्छा हुआI" पत्नी ने चेहरे पर कृत्रिम सी मुस्कुराहट आईI
"वो बता रहा था कि उसने बेटे को भी टैम्पो डलवा दिया है, और बेटी को भी कॉलेज में भर्ती करवा दिया है।"
"अच्छा?"
"हाँ! काफी तरक्की कर गया ये लौंडा शहर जाकरI"
बेमौसम बरसात से उजड़े हुए खेत को निहार, पहाड़ जैसे क़र्ज़ और घर में बैठी दो दो कुँवारी बेटियों को याद करते हुए एक ठण्डी आह भरते हुए वह बोली :
"हमसे तो वो ही अच्छा है जी।"
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सातवीं रचना "केक्टस का फूल", और संगीत का सातवाँ स्वर है - निषाद, सबसे तीव्र फ्रीक्वेंसी वाला स्वर, इसके कोमल और शुद्ध स्वरुप हैं, बिलकुल उसी तरह, जिस तरह केक्टस के फूल होते हैं, कांटेदार शुद्ध स्वरुप में और सौन्दर्य में कोमल स्वरूप में। रचना की नायिका भी ऐसी ही हैं, चेहरे-मोहरे से कोमल स्वरुप में है और अंत में अपने सद्चरित्र का प्रमाण देते हुए, जब रिवॉल्वर की धमकी देती है तो शुद्ध स्वरुप में (कांटेदार) हो जाती है। आइये पढ़ते हैं।
७- केक्टस का फूल
पीली साड़ी वाली वह नवयुवती सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी, पार्टी में सभी की निगाहें उसी पर थींI उसकी माँ अपने ज़माने की सफल और खूबसूरत अभिनेत्री थी, किन्तु वह अपनी माँ से भी सुन्दर थी, I और अब वह भी फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश करने की कोशिश कर रही थीI उसके एक युवा गीतकार मित्र एक विख्यात प्रोड्यूसर से उसका परिचय करवाते हुए कहा:
"इनसे मिलिए सर, ये नीला हैंI ये विदेश में थीं, वहीँ से अभिनय सीख कर आई हैंI"
"हेलो!" नीला को सर से पाँव तक उसकी सुन्दरता निहारते हुए उसने कहाI
"सर! ये मशहूर अभिनेत्री सखी जी की बेटी हैंI"
"ओहो! तभी मैं कहूँ कि इसकी शक्ल जानी पहचानी सी क्यों लग रही हैI" सखी का नाम सुनते ही उनके चेहरे पर अजीब सी चमक आ गई थीI
"आपको तो नए लोग मसीहा कहते हैं, इन्हें भी चाँस दीजिये न सर?" गीतकार ने प्रार्थना भरे स्वर में कहाI
"हाँ हाँ क्यों नहींI भाई हम तो इनकी मम्मी के फैन हुआ करते थे किसी ज़माने में, इनको चांस नहीं देंगे तो और किसे देंगेI" चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए उसने कहाI "मेरे बंगले पर तो उनका आना जाना लगा ही रहता थाI" दाईं आँख दबाते हुए उसने कहाI
"ठीक है सर, आप लोग बात कीजिए मैं ज़रा दूसरे दोस्तों से मिलकर अभी हाज़िर होता हूँI" यह कहकर वह दूसरी तरफ बढ़ गयाI
"तो मिस नीला! ऐसा करो कल रात मेरे बंगले पर आ जाओ, वहीँ बैठ कर आराम से बातें करेंगेI इसी बहाने और मेरी नई फिल्म की कहानी सुन लेनाI" प्रोड्यूसर अब नीला के बिल्कुल पास आकर बैठ गयाI
"काम की बातें अगर आपके दफ्तर में की जाएँ तो बेहतर नहीं होगा सर?" प्रोड्यूसर से दूर सरकते हुए नीला ने कहाI
नीला का रूखा सा उत्तर सुनकर प्रोड्यूसर अपनी झेंप छुपाते हुए ढिठाई भरे स्वर में बोला:
"हाँ तो मिस नीला! बताइए क्या पियोगी? स्कॉच, रम या शेम्पेन?"
"जी शुक्रिया! मुझे इन चीज़ों का कोई शौक़ नहींI"
"कमाल है, विदेश से रहकर भी इन चीज़ों से दूर हो? तुम्हारी देसी मम्मी तो अपने बैग में हर वक़्त विदेशी शराब रखा करती थीI"
"जी, मुझे मालूम हैI लेकिन क्या आपको मालूम है कि मैं अपने पर्स में क्या रखती हूँ?" सोफे से उठते हुए नीला ने पुछाI
"क्या?"
बाहर जाने वाले दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए नीला ने उत्तर दिया:
"भरी हुई रिवाल्वरI"
शराब का बड़ा सा गिलास हाथ में पकडे हतप्रभ प्रोड्यूसर नीला को जाते हुए देख रहा थाI एक ही साँस में पूरी शराब गले में उड़ेलकर वह बुदबुदाया:
"ये हरगिज़ फ़िल्म लाइन के लायक़ नहीं है, बेअक्ल सालीI"
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मित्रों, ये थीं रचनाएँ। आप सभी जानते ही हैं कि वीणा एक ऐसा वाद्य है, जो माँ सरस्वती का प्रिय है, जिसे स्वयं भगवान शिव ने पार्वती के देवी स्वरूप को समर्पित किया था। इसके तारों को झंकृत करने पर पुरातन कालीन से लेकर आधुनिक काल तक के संगीत बजाये जा सकते हैं। वीणा की सरंचना के आधार पर कुछ और वाद्य यंत्र भी निर्मित किये गये।
मेरे अनुसार श्री योगराज प्रभाकर सर द्वारा सृजित लघुकथाएं वीणा की झंकार की तरह ही हैं, जो हम सभी के मन-मस्तिष्क को अपने तारों के कम्पन के द्वारा झंकृत कर जाती हैं। उन्हीं तरंगों को मैनें अपने शब्दों में कहने का प्रयास किया है। हालाँकि सच तो यह है कि लघुकथा के "वीणावरदंडमंडितकरा" - योगराज प्रभाकर जी सर की किसी भी रचना के लिये कहना मेरे सामर्थ्य से बाहर है।
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी