बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

लघुकथा: बहादुरी | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




विद्यालय में प्रार्थना के बाद पहला कालांश प्रारंभ होने ही वाला था कि वह इधर-उधर देखता हुआ शौचालय में गया। अंदर जाकर कर भी उसने चारों तरफ नज़र घुमाई, किसी को न पा कर, अपनी जेब में हाथ डाला और अस्थमा का पम्प निकाल कर वो पफ लेने ही वाला था कि बाहर आहट हुई, उसने जल्दी से पम्प फिर से जेब में डाल दिया।

शौचालय में उसी की कक्षा का एक विद्यार्थी रोहन आ रहा था, कई दिनों बाद रोहन को देख वह एकदम पहचान नहीं पाया, उसने ध्यान से देखा, रोहन के पीले पड़े चेहरे पर कई सारे दाग भी हो गये थे और काफी बाल भी झड़ गये थे। उसने चिंतित स्वर में पूछा, "यह क्या हुआ तुझे?"
"बहुत बीमार हो गया था।"
"ओह, लेकिन इस तरह स्कूल में आया है? कम से कम कैप तो लगा लेता।"
"क्यों? जैसा मैं हूँ वैसा दिखने में शर्म कैसी?"
यह शब्द सुनते ही कुछ क्षण वह हतप्रभ सा रह गया, और फिर लगभग भागता हुआ शौचालय से बाहर मैदान में गया, अस्थमा का पम्प जेब से निकाल कर पहली बार सबके सामने पफ लिया और खुली हवा में ज़ोर की सांस ली।
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हिंदी लेखनी पर मेरी दो लघुकथाएं


हिंदी लेखनी (hindilekhani.com) मेरी दो लघुकथाओं अदृश्य जीत औरआतंकवादी का धर्म  को स्थान मिला है।  इन्हें हिंदी लेखनी के निम्न लिंक पर पढ़ा जा सकता है:

अदृश्य जीत / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
https://www.hindilekhani.com/23409/

आतंकवादी का धर्म  / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
https://www.hindilekhani.com/22679/


इन लघुकथाओं को लघुकथा दुनिया पर भी पढ़ सकते हैं:

आतंकवादी का धर्म

वो चारों यूं तो अलग-अलग सम्प्रदायों से थे, लेकिन उन्हें सिखाया गया था कि उनका धर्म लोगों को मारना-काटना ही है। आज भी वो चारों एक साथ इसी इरादे से निकले। 

मार-काट करते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि एक का धर्म-स्थल आया, उसने वहां मार-काट करने के लिये मना किया तो बाकी तीन ने उसी को काट कर वहाँ मार-काट मचा दी। 

फिर कुछ और आगे बढे तो दूसरे का पूजा-घर आया, उसने मना किया तो बाकी दो ने उसकी हत्या कर वहाँ मार-काट की।

थोड़ा और आगे जाने पर तीसरे का प्रार्थना-स्थल आया, उसने मना किया तो चौथे ने उसका गला काट कर अकेले ही वहाँ मार-काट कर दी।

चौथा और आगे बढ़ा तो उसका अपना धार्मिक-स्थल आया, वो वहाँ से चुपचाप सिर झुका कर आगे निकल ही रहा था कि पीछे से एक गोली चली और उसकी पीठ के रास्ते सीने में धंस गयी।

मरते-मरते उसने पीछे देखा तो उसकी आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयी, उसे गोली मारने वाला एक राजनेता था, जिसे उसने हर धार्मिक-स्थल पर सबसे पहले भागते हुए देखा था।
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अदृश्य जीत को यहाँ पर क्लिक / टैप कर पढ़ा जा सकता है:
https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/06/blog-post_20.html

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2019

कलम लाइव पत्रिका व संपर्क भाषा भारती के सनातन समाज में भाईदूज पर मेरी लघुकथा 'सब्ज़ी मेकर'

सब्ज़ी मेकर/ डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, “ममा… दीदी बना रही है… मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!”
सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, “चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा…”
उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, “दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।”
लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराहट के मारे उसके हाथ में पकड़ा हुई मिर्ची का डिब्बा भी सब्ज़ी में गिर गया। वह और घबरा गयी, उसकी आँखों से आँसूं बहते हुए एक के ऊपर एक अतिक्रमण करने लगे और वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी। 
उसी मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने देखा कि  खिड़की के बाहर खड़ा उसका भाई उसे देखकर मुंह बना रहा था। वह उठी और खिड़की बंद करने लगी, लेकिन उसके भाई ने एक पैकेट उसके सामने कर दिया। उसने चौंक कर पूछा, “क्या है?”
भाई धीरे से बोला, “पनीर की सब्ज़ी है, सामने के होटल से लाया हूँ।”
उसने हैरानी से पूछा, “क्यूँ लाया? रूपये कहाँ से आये?”
भाई ने उत्तर दिया, “क्रैकर्स के रुपयों से… थोड़ा पोल्यूशन कम करूंगा… और क्यूँ लाया!”
अंतिम तीन शब्दों पर जोर देते हुए वह हँसने लगा।

Source (कलम लाइव पत्रिका):
https://kalamlive.blogspot.com/2019/10/blog-post_394.html

Source (संपर्क भाषा भारती):
https://sanatansamaj.in/?p=1044

सोमवार, 28 अक्टूबर 2019

जैमिनी अकादमी द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता-2019 का परिणाम


जैमिनी अकादमी, पानीपत - 132103 हरियाणा द्वारा आयोजित 25 वी अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता - 2019 में 133 लघुकथाकारों ने भाग लिया।  प्रतियोगिता सम्पादक बीजेन्द्र जैमिनी ने सभी की एक-एक लघुकथा चुन कर निर्णायक मंडल को सौंपा। निर्णायक मंडल में पानीपत साहित्य अकादमी के अध्यक्ष श्री मदन मोहन 'मोहन'  व जैमिनी अकादमी के महासचिव श्री देवेन्द्र तूफ़ान है। 

निर्णायक मंडल ने लघुकथा प्रतियोगिता - 2019‌ का परिणाम इस प्रकार घोषित किया है:

प्रथम पुरस्कार
लघुकथा का शीर्षक - मन के सपने 
लघुकथाकार - रेखा श्रीवास्तव , कानपुर - उत्तर प्रदेश

द्वितीय पुरस्कार
लघुकथा का शीर्षक - अब तस्वीर ही पिता
लघुकथाकार - सेवा सदन प्रसाद , मुम्बई - महाराष्ट्र

तृतीय पुरस्कार
लघुकथा का शीर्षक - दुर्गा
लघुकथाकार - प्रज्ञा गुप्ता , बांसवाड़ा - राजस्थान

तीन सांत्वना पुरस्कार
1.

लघुकथा का शीर्षक - पुरुषार्थ दो
लघुकथाकार - ज्ञानदेव मुकेश , पटना - बिहार


2.

लघुकथा का शीर्षक - खाली पेट
लघुकथाकार - मधु जैन , जबलपुर - मध्यप्रदेश

3.

लघुकथा का शीर्षक - बोझ
लघुकथाकार - सीमा भाटिया , लुधियाना - पंजाब

ग्यारह सम्मान पत्र से सम्मानित 
1.
लघुकथा का शीर्षक - भाड़े की माई
लघुकथाकार - सारिका भूषण , रांची - झारखंड
2.
लघुकथा का शीर्षक - मुठ्ठी भर धूप
लघुकथाकार - श्रुत कीर्ति , पटना - बिहार
3. 
लघुकथा का शीर्षक - बहन की चिठ्ठी
लघुकथाकार - नरेन्द्र श्रीवास्तव , गाडरवारा - मध्यप्रदेश
4.
लघुकथा का शीर्षक - चमगादड़
लघुकथाकार - प्ररेणा गुप्ता , कानपुर - उत्तर प्रदेश
5. 
लघुकथा का शीर्षक - अंतर्द्वन्द्व
लघुकथाकार - डॉ भारती वर्मा , देहरादून - उत्तराखण्ड
6.
लघुकथा का शीर्षक - अपने - अपने संस्कार
लघुकथाकार - हरीश कुमार अमित , गुरुग्राम - हरियाणा
7. 
लघुकथा का शीर्षक - नई चिंता
लघुकथाकार - सीमा शिवहरे सुमन , भोपाल - मध्यप्रदेश
8.
लघुकथा का शीर्षक - मां का सपना
लघुकथाकार - नीरू तनेजा , समालखा - हरियाणा
9.
लघुकथा का शीर्षक - ओ. टी. खाली नहीं 
लघुकथाकार - विष्णु सक्सैना , गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
10.
लघुकथा का शीर्षक - बिन फेरे
लघुकथाकार - गोविंद भारद्वाज , अजमेर - राजस्थान
11.
लघुकथा का शीर्षक - उम्मीदों का चौका
लघुकथाकार - मनीष शुक्ल , लखनऊ - उत्तर प्रदेश 

Source:
https://bijendergemini.blogspot.com/2019/01/2019_24.html

रविवार, 27 अक्टूबर 2019

मातृभारती पर मेरी तीन लघुकथाएं अंग्रेजी में | लेखन व अनुवाद : डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी





A Woman / Dr. Chandresh Kumar Chhatlani

"How beautiful do your eyes become after applying mascara?"
"Yes, my boss says the same thing."
"Well, your selection of clothes is also very good, perfect fit for you!"
"The boss feels the same"
"Oh, the makeup you put on your face, how much your color blossoms."
"Boss also says the exact same word ..."
"Oops .... I am your husband or boss?"
"Your eyes are not like a husband, these are like a boss, otherwise there is a woman behind all this."
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Pudding of truth / Dr. Chandresh Kumar Chhatlani

He was the greatest cook in the world; there was no dish he had not made. Even today, the whole world could experience the real sweet taste of truth, so he was going to make two special dishes of truth and lieís pudding. He believed that the world would understand what is good and what is bad by eating both of these dishes.

He took two pots, put 'truth' in one and 'lie' in the other, poured a lot of sugar in the pot of truth, and put lot of material, which was bitter like poison, in the pot of lies. Then he put equal amount of melted butter in both the dishes and fried them completely.

He was very happy while making these dishes. He wanted a world in which everyone would realize the hidden bitterness in the lie and also be familiar with the sweetness of the truth. He tasted both the dishes after decorating in the same types of plates.

And he came to know that the truth was still bitter and the lie was sweet as usual.
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Treasure / Dr. Chandresh Kumar Chhatlani

In the evening after the father's funeral, the two sons were sitting in the courtyard outside the house with their relatives and neighbors. At this point, the wife of the elder son came and she said something to her husband's ear. The elder son gestured towards his younger brother to come in, looking at him with meaningful eyes and stood and folded his hands to the people sitting there and said, "Come in five minutes now".

Then both brothers went inside. As soon as they went inside, the elder brother whispered and said to the younger, "Look in the box, otherwise someone will come to assert it." The younger also nodded in agreement.

Going to the father's room, the elder brother's wife said to her husband, "Take out the box, I close the door." And she moved towards the door.

Both brothers bent under the bed and pulled out the box kept there. The elder brother's wife took out a key from her pocket and gave it to her husband.

As soon as the box opened, the three peeped into the box with great curiosity. There were forty-fifty books kept inside. All three suddenly did not believe. The elder brother's wife said in a frustrated tone, "I was quite sure that when our father never took the money even for his medicine, then the money and jewels of his savings would be kept in this box, but nothing is in its..."

At that time the younger brother saw that in the corner of the box a cloth bag was placed near the books, he took out that bag. It had a few rupees and a paper with it. Curiosity struck the faces of all three as soon as they saw the money. The younger brother counted the money and then read the paper, it was written in that,

"My funeral's expenses"
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Matrubharti Source:
https://www.matrubharti.com/book/19874306/three-laghukathas

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक - 1

सम्माननीय मित्रों,
सादर नमस्कार। 

आज से लघुकथा दुनिया पर एक नई श्रृंखला का प्रारम्भ कर रहे हैं। "श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक" नामक इस श्रृंखला में बेहतर लघुकथाओं में से किसी एक को चुन कर, वह बेहतर क्यों है, इस पर वार्ता करेंगे। हालाँकि मुख्य पोस्ट पर मैं मेरे विचार दूंगा, सभी वरिष्ठजन और मित्र कमेंट में अपने विचार को प्रकट करने हेतु पूर्ण स्वतंत्र हैं।  

इस क्रम को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम वरिष्ठ लघुकथाकार और लघुकथा के सशक्त हस्ताक्षर श्री योगराज प्रभाकर की लघुकथा अपनी–अपनी भूख पर चर्चा करते हैं। पहले इस रचना को पढ़ते हैं, 

अपनी–अपनी भूख / योगराज प्रभाकर

पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थी। कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाता। दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा था। घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थी। घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहती। कई बार उसने पूछना भी चाहा  किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थे। रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया:
"बीबी जी! क्या हुआ है छोटे बाबू को ?"
"देखती नहीं कितने दिनों से तबीयत ठीक नहीं है उसकी?" मालकिन ने बेहद रूखे स्वर में कहा।
"मगर हुआ क्या है उसको जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा?" 
"बहुत भयंकर रोग है!" एक गहरी सांस लेते हुए मालिकन ने कहा ।
"हाय राम! कैसा भयंकर रोग बीबी जी?" नौकरानी पूछे बिना रह न सकी । 
मालकिन ने अपने कमरे की तरफ मुड़ते हुए एक गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया:
"उसको भूख नहीं लगती री।"
मालकिन के जाते ही अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई नौकरानी बुदबुदाई:               
"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी।"

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इस लघुकथा पर मैं अपने अनुसार कुछ बातें कहना चाहूंगा।  कोई भी सुधिजन अपनी राय कमेंट में दे सकते हैं।

लघुकथा का उद्देश्य: ऐसे परिवारों की स्थिति को दर्शाना, जो अपने बच्चों के पेट भरने में भी असमर्थ है और पाठकों को इस तरह के परिवारों के न्यूनतम सरंक्षण (भूखे न रहें) हेतु प्रेरित करना। 

विसंगति: सामाजिक और आर्थिक असमानता एक ऐसा दंश  है, जिसे हटा दिया जाए तो हमारे देश का काफी बेहतर विकास हो सकता है। इस लघुकथा का अंतिम वाक्य इस विसंगति को उभार देने में सक्षम है, जब  माँ रुपी नौकरानी अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई बुदबुदाती है, "मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी।"

लाघवतालघुकथा में शब्द ना तो कम हों ना ही अधिक। मैंने इस लघुकथा में अतिरिक्त शब्द नहीं जोड़े क्योंकि यह वैसे ही सुस्पष्ट है लेकिन कुछ शब्दों को हटा कर पढ़ा,  हालाँकि ऐसे (शब्दों को हटा कर) पठन पर हर बार मुझे अधूरी ही प्रतीत हुई। दो उदाहरण देना चाहूंगा:

1. इस लघुकथा में //घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थी//  पंक्ति हटा कर मैंने फिर पढ़ा तो जो लघुकथा की पहली पंक्ति है - //पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थीI//वह  ही सार्थक नहीं हो पा रही थी। मेरे अनुसार दोनों पंक्तियाँ मिलकर पूर्ण होती हैं। 

2. इस रचना में मालकिन दबंग स्वभाव की हो ना हो क्या फर्क पड़ता है? फिर यह विचार आया कि यदि मालकिन तेज़ न होती तो अंतिम पंक्ति में मालकिन के जाने के बाद नौकरानी का बुदबुदाना इतना प्रभावी नहीं हो पाता। 

कथानक: लघुकथा दो परिवारों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति दर्शाते हुए दोनों परिवारों की माओं के हृदय में बेटे की भूख की चिंता को दर्शा रही है। जहाँ मालकिन को भूख ना लगने की चिंता है, वहीँ नौकरानी को भूख लगने की। लघुकथा का यह कथानक ना सिर्फ आज के समाज का यथार्थ है वरन हमारा दायित्व क्या हो, यह भी सोचने के लिए मजबूर करता है। 

शिल्प: इस लघुकथा के शिल्प की सच कहूँ तो जितनी तारीफ़ की जाए कम है। यह लघुकथा यों तो मुझे पूरी पसंद आई, लेकिन जो सबसे ज़्यादा अच्छा लगा वो इस रचना का शिल्प ही है। सामान्य से वार्तालाप में विशिष्ट को ढूंढ निकाल कर उभारने का बेहतरीन उदाहरण है पाठक इससे खुदको जुड़ा हुआ पाता है और रचना को प्रवाह के साथ पढ़ते हुए जब अंत तक आता है तो बरबस ही द्रवित हो उठता है। यदि पाठक चिंतन प्रवृत्ति का है तो उसके चिंतन के लिए यह रचना एक हल्का सा झटका उत्पन्न करने में सक्षम है और यदि पाठक सामान्यतः अधिक चिंतन प्रवृत्ति का नहीं है तो भी आह और वाह दोनों ही उसके मुंह से निकल ही जाएगा। 

लघुकथा सृजन के समय लघुकथा के प्रारम्भ और अंत पर बहुत ध्यान देना होता है। रचनाकार का कौशल यों तो शीर्षक पढ़ते ही समझ में आ जाता है लेकिन लघुकथा प्रारम्भ करना और उसे अंत तक लाकर पाठकों को प्रभावित कर देना अच्छे शिल्प की निशानी है। रचना का प्रारंभ इस पंक्ति से हो रहा है कि //पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थी।// जो पढ़ते ही उत्सुकता जगाता है कि आखिर बात क्या है? अंत पर हम चर्चा कर ही चुके हैं। हरिशंकर परसाई ने मुकेश शर्मा द्वारा लिए गए उनके एक साक्षात्कार में कहा था कि, "लघुकथा में कम–से–कम शब्द होने चाहिए। विशेषण–क्रिया–विशेषण नहीं हों और चरम बिन्दु तीखा होना चाहिए।" यह रचना इस सन्दर्भ में कसौटी पर खरी उतरती है। 

लघुकथा का मध्य भाग ऐसा हो जो पाठक को अंत तक ले जाने में सक्षम हो, रचना की कसावट सर्वाधिक इसी भाग में देखी जाती है। कम या अधिक शब्द रचना के पठन को बाधित कर सकते हैं। इस लघुकथा में शब्दों की उत्तम लाघवता पर मैं अपने विचार रख ही चुका हूँ। 


शैली: मिश्रित शैली की इस रचना में विवरण और संवाद दोनों को चुस्त रखा गया है।


भाषा एवं संप्रेषण: इस रचना की भाषा आज के समाज की आम भाषा है जिससे लघुकथा आसानी से समझ में आती है। सम्प्रेषण भी कथानक को चुस्त-दुरुस्त रख रहा है। शब्दावली सटीक है, संवादों के शब्द पात्रों के अनुसार अनुकूल हैं और कम से कम शब्दों का प्रयोग कर स्पष्ट बात कही गयी है। प्रयुक्त  भाषा ने रचना की स्वाभाविकता को बनाये रखा है। यही स्वाभाविकता ही इस रचना की भाषायी गुण भी है। 

लघुकथा का आकार: लघुकथा का आकार इसमें निहित वस्तु का सही-सही प्रतिनिधित्व कर पा रहा है। इससे अधिक होने पर कहीं लघुकथा की कसावट में कमी होने की गुंजाइश भी थी और कम पर मैं अपने विचार पूर्व में रख चुका हूँ। 

शीर्षक: अपनी-अपनी भूख शीर्षक इस रचना के कथानक के मर्म 'सामाजिक एवं आर्थिक असमानता' को दर्शाने में पूरी तरह सफल है। साथ ही यह न सिर्फ कलात्मक है बल्कि पाठक के मस्तिष्क में उत्सुकता जगाने में भी समर्थ है। 

पात्र और चरित्र-चित्रण: इस लघुकथा में पात्रों को इस खूबसूरती से ढाला गया है कि प्रारम्भ में पता ही नहीं चल पाता है कि वास्तविक पात्र तो दो ही हैं। आइये प्रारम्भ से पात्रों की गिनती करते हैं: नन्हा दीपू, डॉक्टर, घर के सभी सदस्य, नौकरानी, मालकिन और नौकरानी के बच्चे। लेखक इनमें से किसी भी अथवा सभी पात्रों को उभार सकते थे लेकिन उन्होंने केवल दो ही पात्रों के संवादों पर रचना का आधार रख दिया और अपनी बात कह डाली।

लघुकथा में दीपू के अतिरिक्त और किसी भी पात्र का नामकरण नहीं हुआ है, इससे यह रचना वैश्विक स्तर पर अनुवाद भी की जा सकती है और वैश्विक स्तर के पाठकों से जुड़ सकती है। पाठकों के समाज से जुड़ने के लिए अनुवाद करते समय दीपू के स्थान छोटा बेटा या जिस भाषा में अनुवाद किया जा रहा है, उस भाषा के वर्ग अनुसार कोई अन्य नाम भी रखा जा सकता है।

डॉ. अशोक भाटिया ने अपने लेख "लघुकथा: लघुता में प्रभुता" में कहा है कि //आप जो भी लिखें, उसका प्रमुख पात्र यदि किसी वर्ग कहा हो तो आपकी रचना का वजन बढ जाएगा। प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ का नायक हल्कू एक गरीब किसान है। इसलिए उसकी कथा सारे गरीब किसानों की व्यथा-कथा है। यानी लिखते समय रचना को किसी वर्ग की रचना बना सकें तो उसकी ताकत और असर बहुत बढ जाएंगे।// - यहाँ इस रचना में आप यह बात देख सकते हैं। 

कालखंड: यह लघुकथा अपने पहले अनुच्छेद में //पिछले कई दिनों ... हिम्मत ही नहीं हुई।// तक कथानक को स्पष्ट करते हुए उसके बाद एक ही कालखंड में सृजित की गयी है। रचना एक से अधिक कालखंडों में बँटी हुई नहीं है।

संदेश / सामाजिक महत्व: यह लघुकथा समाज के उस वर्ग की स्थिति को दर्शा रही है, जिसे सरंक्षण की ज़रूरत है। भूख आरक्षण नहीं देखती ना ही सामान्य जनता होने के नाते हम उस हर एक व्यक्ति को आरक्षण दिला सकते हैं,  जिसे हम चाहते हैं, लेकिन हम एक हद तक सरंक्षण तो कर ही  सकते हैं। कम से कम हम से सम्बंधित कोई भूखा ना सोए, इस हेतु प्रयास किये जा सकते हैं और करने भी चाहिएं। मालकिन चाहती तो नौकरानी के बच्चे भूखे न रहते। यहां बात उनके सिर पर हाथ घुमा कर भूख ख़त्म करने वाली नहीं है बल्कि उचित सरंक्षण से जुडी हुई है अन्यथा नौकरानी बुदबुदाती नहीं, शायद मुंह पर कह डालती कि मेरे बच्चे भी कहीं-न-कहीं भूखे रहते हैं। यह सन्देश मुझे इस रचना में निहित लगा। इस आवश्यक सन्देश को देना ही इस रचना का महत्व भी है। 

अनकहा : इस लघुकथा का अंत एक ही पंक्ति में बिना अधिक शब्द कहे बहुत कुछ समझा रहा है। लघुकथा का उद्देश्य, सन्देश एवं सार्थकता भी इस पंक्ति में निहित हैं। 

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

पठन योग्य:

हरिशंकर परसाई से मुकेश शर्मा की बातचीत



मेरी इस समझ पर कोई कमी किसी को भी प्रतीत हो तो अपनी राय देने हेतु पूरी तरह स्वतंत्र हैं। कृपया अपनी राय कमेंट में प्रेषित करें। 

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2019

UPDATE: लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में

सम्माननीय,
सादर नमस्कार।

नवोदित लघुकथाकारों के लिए 20 प्रश्न और उनके उत्तरों के प्रकाशन की योजना के लिए एक खुशखबर यह है कि वरिष्ठ लोकप्रिय लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर जी ने सभी के उत्तर पढ़ कर उन पर एक लेख लिखने की अपनी सहमति दे दी है। 

दूसरी, इस नाम से ISBN भी प्राप्त हो गया है। अभी फिलवक्त  ईबुक प्रकाशन का प्रस्ताव है। 

यदि आप 01 जनवरी 2011 या उसके बाद से लघुकथा लिख रहे हैं तो प्रश्नावली के उत्तर देने की प्रार्थना है। विश्वास है लघुकथा पर शोध हेतु यह योजना कारगर साबित हो सकती है। 

यह प्रश्नावली निम्न लिंक कर क्लिक कर डाउनलोड की जा सकती है:
https://drive.google.com/file/d/1tB-ku31HFotKcQmBsPfngh1cVrmPBFxu/view

योजना की जानकारी हेतु निम्न लिंक पर visit करें: 
लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में



अपने उत्तर आपके चित्र सहित laghukathaduniya@gmail.com पर 31 अक्टूबर 2019 तक (जिन मित्रों को योजना की जानकारी अभी मिली है, वे 15 नवम्बर 2019 तक) ईमेल करने का कष्ट करें। ईमेल में विषय "लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में" ही रखें।


विशेष निवेदन :
यदि आप 01 जनवरी 2011 के पूर्व से लघुकथा लिख रहे हैं तो यह सन्देश उपयुक्त रचनाकारों तक प्रसारित करने का निवेदन है।

साभार,

डॉ0 चन्द्रेश कुमार छतलानी
लघुकथा दुनिया
Email: laghukathaduniya@gmail.com
URL: http://laghukathaduniya.blogspot.com

सांझा लघुकथा संकलन योजना : इक्कीसवीं सदी के प्रतिनिधि लघुकथाकार

(Mrinal Ashutosh) मृणाल आशुतोष जी की फेसबुक पोस्ट 

सभी लघुकथाकार मित्र ध्यान दें।
#ink की एक और पहल -
शीर्षक : इक्कीसवीं सदी के प्रतिनिधि लघुकथाकार
संपादक : श्री अश्विनी कुमार आलोक  Ashwini Kumar Alok (प्रतिष्ठित लघुकथाकार व संपादक)
देश के सक्रिय एवं शीर्षस्थ लघुकथाकारों से दो वैसी लघुकथाएँ आमंत्रित हैं , जिनके दम पर वे इक्कीसवीं सदी के लघुकथा - लेखन में अपने को मजबूत और उल्लेखनीय समझ रहे हों। कोशिश हो कि सकारात्मक और समाजहित के विषय उठाये जायें। परंतु लघुकथाएँ पुरातन बोधकथाएँ अर्थात् पारंपरिक दृष्टांत मात्र बनकर न रह जायें , उनमें आधुनिक लेखन - शिल्प का उचित समावेश हुआ हो।यह साझा संकलन लघुकथा - लेखन के समकालीन एवं ज्वलंत विषयों को प्रशस्त करने एवं लघुकथा विधा की उपयोगिता व्यक्त करने का महत्त्वाकांक्षी आयोजन है।लघुकथाकार सिर्फ दो चयनित लघुकथाएँ भेजें और उन दोनों लघुकथाओं से संबंधित एक पृष्ठ की रचना - प्रक्रिया भी; ताकि पाठक वैसी परिस्थितियों से जुड़कर लघुकथाएँ पढ़ें कि जिन्होंने लेखक को अभिव्यक्ति के लिए उद्वेलित किया हो।
लघुकथाओं के साथ अपना संक्षिप्त परिचय और फोटोग्राफ ( सिर्फ डिजिटल)भेजें। चयनित लघुकथाकारों की सूची सिर्फ फेसबुक पर जारी की जायेगी। लघुकथाओं में संपादकीय संशोधन हो सकता है। आवश्यक हुआ तो संपादक लेखकों से फोन संपर्क कर सकते हैं।
रचनाएँ ईमेल से यहाँ भेजें :
ashwinikumaralok@gmail.com
संपादक से इस नं. पर बात हो सकती है :8789335785

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मंगलवार, 22 अक्टूबर 2019

फेसबुक समूह साहित्य संवेद में लघुकथा प्रतियोगिता

श्री मृणाल आशुतोष द्वारा प्रेषित

नमस्कार साथियों,

आपका अपना समूह साहित्य संवेद साहित्यिक आयोजन के प्रति सतत कटिबद्ध  है। अगली कड़ी में लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन 6 -7 नवम्बर 2019 को सुनिश्चित हुआ है। प्रतियोगिता को बेहतर बनाने हेतु कुछ नियम निर्धारित किए हैं। सभी सदस्यों से अनुरोध है कि प्रतियोगिता को सफल बनाने के लिए दिये गये नियमों का पालन करें। प्रतिभागियों से नवीन व ज्वलंत विषयों पर लेखनी चलाने की अपेक्षा रहेगी।

प्रतियोगिता के नियम इस प्रकार हैं:
1. रचना मौलिक, स्वरचित और पूर्णतः अप्रकाशित (न केवल पत्र-पत्रिका वरन व्हाट्सएप और फेसबुक पर भी प्रकाशित न हो) होनी चाहिए।
2. एक प्रतिभागी एक और केवल एक ही रचना प्रतियोगिता में भेज सकते हैं।
3.प्रतियोगिता में भेजी हुई रचना प्रतियोगिता के परिणाम आने तक कहीं और न भेजें और न ही पोस्ट करें। अन्यथा यह पुरस्कार की दौड़ से बाहर मानी जायेगी।
4. भाषा की शुद्धता का ध्यान रखें। रचना भेजने से पहले अशुद्धियों को ठीक कर लें। पोस्ट करने के बाद संपादित (एडिट) करना अमान्य होगा।
5.आप सबसे अनुरोध है कि लघुकथा विधा में अपनी कल्पना को उड़ान दें और अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना के साथ इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता का हिस्सा बनें।
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आप सबसे विनम्र निवेदन है कि अपने साथियों की रचनाओं पर अपनी बहुमूल्य समीक्षात्मक टिप्पणी भी जरूर दें। एडमिनगण इस प्रतियोगिता से दूर रहेंगे। 

प्रतियोगिता के प्रथम विजेता को श्री योगराज प्रभाकर और श्री रवि प्रभाकर द्वारा संपादित #लघुकथा_कलश_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक_चतुर्थ_अंक, द्वितीय विजेता को श्री मधुदीप गुप्ता  संपादित #पड़ाव_पड़ताल_खण्ड_30 और तृतीय विजेता को श्री राजकुमार निजात  रचित #आसपास_की_लघुकथाएँ दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त तीन सांत्वना पुरस्कार भी दिए जाएंगे।
इस प्रतियोगिता हेतु किसी भी सुझाव का हार्दिक स्वागत है। निस्संकोच अभिव्यक्त करें।

समय सीमा: भारतीय समयानुसार शनिवार 06/11/19 प्रातः 7 बजे से रविवार 07/11/19 सायं 11 बजे तक।
इस अवधि में प्रतियोगिता से इतर अन्य रचना पूर्णतः वर्जित होगी।आशा है कि सभी सदस्यगण इसका विशेष ध्यान रखेंगे।

(आप सब तो प्रतियोगिता में शामिल होंगे ही, साथ में अपने लघुकथाकार मित्रों को भी शामिल होने के लिये प्रेरित करें।)
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भारत नमन के लघुकथा कॉलम में मेरी चार लघुकथाएं

भारत नमन: लघुकथा कॉलम 



उदयपुर, राजस्थान निवासी डा. चन्द्रेश कुमार छतलानी कम्प्यूटर विज्ञान में पीएचडी हैं और कम्प्यूटर विज्ञान के सहायक आचार्य हैं । इनकी लघुकथाएं व अन्य रचनाएं देश - विदेश की अनेक पत्र- पत्रिकाओं में छप चुकी हैं । डा. छतलानी को 2018 में प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान और ब्लागर ऑफ द ईयर 2019 सहित कई सम्मान मिल चुके है। भारत नमन . पेज के लघुकथा कालम में हम इस बार डा. चन्द्रेश कुमार छतलानी की चार लघुकथाएं पेश कर रहे हैं। उम्मीद है पाठकों को पसंद आएंगी। 


मानव-मूल्य

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।

उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, "यह क्या बनाया है?"

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, "इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। 'कहाँ' चुप रहना है, 'क्या' नहीं सुनना है और 'क्या' नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख - पूर्वज बंदरों को 'इस अदरक' का स्वाद कहाँ मालूम था?"

आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी। 

"ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?" मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, "क्यों...? जेब किसलिए?"

मित्र ने उत्तर दिया,
"ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं..."
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पहचान

उस चित्रकार की प्रदर्शनी में यूं तो कई चित्र थे लेकिन एक अनोखा चित्र सभी के आकर्षण का केंद्र था। बिना किसी शीर्षक के उस चित्र में एक बड़ा सा सोने का हीरों जड़ित सुंदर दरवाज़ा था जिसके अंदर एक रत्नों का सिंहासन था जिस पर मखमल की गद्दी बिछी थी।उस सिंहासन पर एक बड़ी सुंदर महिला बैठी थी, जिसके वस्त्र और आभूषण किसी रानी से कम नहीं थे। दो दासियाँ उसे हवा कर रही थीं और उसके पीछे बहुत से व्यक्ति खड़े थे जो शायद उसके समर्थन में हाथ ऊपर किये हुए थे।

सिंहासन के नीचे एक दूसरी बड़ी सुंदर महिला बेड़ियों में जकड़ी दिखाई दे रही थी जिसके वस्त्र मैले-कुचैले थे और वो सर झुका कर बैठी थी। उसके पीछे चार व्यक्ति हाथ जोड़े खड़े थे और कुछ अन्य व्यक्ति आश्चर्य से उस महिला को देख कर इशारे से पूछ रहे थे "यह कौन है?"

उस चित्र को देखने आई दर्शकों की भीड़ में से आज किसी ने चित्रकार से पूछ ही लिया, "इस चित्र में क्या दर्शाया गया है?"

चित्रकार ने मैले वस्त्रों वाली महिला की तरफ इशारा कर के उत्तर दिया, "यह महिला जो अपनी पहचान खो रही है..... वो हमारी मातृभाषा है...."

अगली पंक्ति कहने से पहले वह कुछ क्षण चुप हो गया, उसे पता था अब प्रदर्शनी कक्ष लगभग खाली हो जायेगा।
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जीत

"यह मार्मिक छायाचित्र हमारे देश के उच्च कोटि के फोटोग्राफर रोशन बाबू ने लिया है, इसमें पंछियों के जोड़े में से एक की मृत्यु हो गयी है और दूसरा चीत्कार कर रहा है।“ 
नेपथ्य से आती आवाज़ के साथ मंच में पीछे रखी बड़ी सी स्क्रीन पर रोते हुए एक पंछी का चित्र दिखाई देने लगा जिसका साथी मरा हुआ पड़ा था।
अब फिर से आवाज़ गूंजी, “मित्रों, यह लव-बर्ड हैं, इनके जोड़े में से जब कोई भी एक पंछी मर जाता है, तो दूसरा भी जीवित नहीं रह सकता। एक सच्चा कलाकार ही इस दर्द का चित्रण कर सकता है। निर्णायकों द्वारा इसी चित्र को इस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ छायाचित्र घोषित किया गया है। रोशन बाबू को बहुत बधाई।" 

घोषणा होते ही पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो उठा, रोशन बाबू का पिछले कई वर्षों का सपना पूरा हो गया था, और उनकी ख़ुशी का पारावार नहीं था।

हॉल में पहली पंक्ति पर बैठा रोशन बाबू के परिवार के हर सदस्य का चेहरा खिल उठा था, लेकिन वह चित्र देखते ही वहीँ बैठी उनकी बेटी की भी रुलाई छूट गयी। तीन महीने तक वह उन पंछियों के साथ खेली थी, और एक दिन रोशन बाबू ने उनमें से एक का गला घोंट दिया।
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नीरव प्रतिध्वनि

हॉल तालियों से गूँज उठा, सर्कस में निशानेबाज की बन्दूक से निकली पहली ही गोली ने सामने टंगे खिलौनों में से एक खिलौना बतख को उड़ा दिया था। अब उसने दूसरे निशाने की तरफ इशारा कर उसकी तरफ बन्दूक उठाई। तभी एक जोकर उसके और निशानों के बीच सीना तान कर खड़ा हो गया।  
निशानेबाज उसे देख कर तिरस्कारपूर्वक बोला, "हट जा।"
जोकर ने नहीं की मुद्रा में सिर हिला दिया।
निशानेबाज ने क्रोध दर्शाते हुए बन्दूक उठाई और जोकर की टोपी उड़ा दी।
लेकिन जोकर बिना डरे अपनी जेब में से एक सेव निकाल कर अपने सिर पर रख कर बोला “मेरा सिर खाली नहीं रहेगा।”
निशानेबाज ने अगली गोली से वह सेव भी उड़ा दिया और पूछा, "सामने से हट क्यों नहीं रहा है?"
जोकर ने उत्तर दिया, "क्योंकि... मैं तुझसे बड़ा निशानेबाज हूँ।"
"कैसे?" निशानेबाज ने चौंक कर पूछा तो हॉल में दर्शक भी उत्सुकतावश चुप हो गए।
“इसकी वजह से...” कहकर जोकर ने अपनी कमीज़ के अंदर हाथ डाला और एक छोटी सी थाली निकाल कर दिखाई।
यह देख निशानेबाज जोर-जोर से हँसने लगा।
लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखा कर बोला, “मेरा निशाना देखना चाहते हो... देखो...” 
कहकर उसने उस थाली को ऊपर हवा में फैंक दिया और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवाल्वर निकाल कर उड़ती थाली पर निशाना लगाया।
गोली सीधी थाली से जा टकराई जिससे पूरे हॉल में तेज़ आवाज़ हुई – 'टन्न्न्नन्न.....'
गोली नकली थी इसलिए थाली सही-सलामत नीचे गिरी। निशानेबाज को हैरत में देख जोकर थाली उठाकर एक छोटा-ठहाका लगाते हुए बोला, “मेरा निशाना चूक नहीं सकता... क्योंकि ये खाली थाली मेरे बच्चों की है...”
हॉल में फिर तालियाँ बज उठीं, लेकिन बहुत सारे दर्शक चुप भी थे उनके कानों में “टन्न्न्नन्न” की आवाज़ अभी भी गूंज रही थी ।

Source: (Click or Tap Below to visit भारत नमन Page)

भारत नमन: लघुकथा कॉलम 

सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

संपर्क भाषा भारती के सनातन समाज में मेरी लघुकथा नीरव प्रतिध्वनि



नीरव प्रतिध्वनि / डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी


हॉल तालियों से गूँज उठा, सर्कस में निशानेबाज की बन्दूक से निकली पहली ही गोली ने सामने टंगे खिलौनों में से एक खिलौना बतख को उड़ा दिया था। अब उसने दूसरे निशाने की तरफ इशारा कर उसकी तरफ बन्दूक उठाई। तभी एक जोकर उसके और निशानों के बीच सीना तान कर खड़ा हो गया।

निशानेबाज उसे देख कर तिरस्कारपूर्वक बोला, “हट जा।”

जोकर ने नहीं की मुद्रा में सिर हिला दिया।

निशानेबाज ने क्रोध दर्शाते हुए बन्दूक उठाई और जोकर की टोपी उड़ा दी।
लेकिन जोकर बिना डरे अपनी जेब में से एक सेव निकाल कर अपने सिर पर रख कर बोला “मेरा सिर खाली नहीं रहेगा।”

निशानेबाज ने अगली गोली से वह सेव भी उड़ा दिया और पूछा, “सामने से हट क्यों नहीं रहा है?”

जोकर ने उत्तर दिया, “क्योंकि… मैं तुझसे बड़ा निशानेबाज हूँ।”

“कैसे?” निशानेबाज ने चौंक कर पूछा तो हॉल में दर्शक भी उत्सुकतावश चुप हो गए।

“इसकी वजह से…” कहकर जोकर ने अपनी कमीज़ के अंदर हाथ डाला और एक छोटी सी थाली निकाल कर दिखाई।

यह देख निशानेबाज जोर-जोर से हँसने लगा।

लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखा कर बोला, “मेरा निशाना देखना चाहते हो… देखो…”

कहकर उसने उस थाली को ऊपर हवा में फैंक दिया और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवाल्वर निकाल कर उड़ती थाली पर निशाना लगाया।
गोली सीधी थाली से जा टकराई जिससे पूरे हॉल में तेज़ आवाज़ हुई – ‘टन्न्न्नन्न…..’

गोली नकली थी इसलिए थाली सही-सलामत नीचे गिरी। निशानेबाज को हैरत में देख जोकर थाली उठाकर एक छोटा-ठहाका लगाते हुए बोला, “मेरा निशाना चूक नहीं सकता… क्योंकि ये खाली थाली मेरे बच्चों की है…”

हॉल में फिर तालियाँ बज उठीं, लेकिन बहुत सारे दर्शक चुप भी थे उनके कानों में “टन्न्न्नन्न” की आवाज़ अभी तक गूँज रही थी।
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Source:
https://sanatansamaj.in/?p=1018

रविवार, 20 अक्टूबर 2019

मेरी लघुकथा दंगे की जड़ आज के जनवाणी में



लघुकथा: दंगे की जड़ / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आखिर उस आतंकवादी को पकड़ ही लिया गया, जिसने दूसरे धर्म का होकर भी रावण दहन के दिन रावण को आग लगा दी थी। उस कृत्य के कुछ ही घंटो बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे थे।

आतंकवादी के पकड़ा जाने का पता चलते ही पुलिस स्टेशन में कुछ राजनीतिक दलों के नेता अपने दल-बल सहित आ गये, एक कह रहा था कि उस आतंकवादी को हमारे हवाले करो, हम उसे जनता को सौंप कर सज़ा देंगे तो दूसरा उसे न्यायालय द्वारा कड़ी सजा देने पक्षधर था, वहीँ तीसरा उस आतंकवादी से बात करने को उत्सुक था।

शहर के दंगे ख़त्म होने की स्थिति में थे, लेकिन राजनीतिक दलों के यह रुख देखकर पुलिस ने फिर से दंगे फैलने के डर से न्यायालय द्वारा उस आतंकवादी को दूसरे शहर में भेजने का आदेश करवा दिया और उसके मुंह पर कपड़ा बाँध, छिपा कर बाहर निकालने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि एक राजनीतिक दल के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया।

उनका नेता भागता हुआ आया, और उस आतंकवादी से चिल्ला कर पूछा, "क्यों बे! रावण तूने ही जलाया था?" कहते हुए उसने उसके मुंह से कपड़ा हटा दिया।

कपड़ा हटते ही उसने देखा, लगभग बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का उसके समक्ष था, जो चेहरे से ही मंदबुद्धि लग रहा था। वह लड़का आँखें और मुंह टेड़े कर अपने चेहरे के सामने हाथ की अंगुलियाँ घुमाते हुए हकलाते हुए बोला,
"हाँ...! मैनें जलाया है... रावन को, क्यों...क्या मैं... राम नहीं बन सकता?"
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बुधवार, 16 अक्टूबर 2019

‘लघुकथा कलश’ के पांचवें अंक (जनवरी-जून 2020) की सूचना



श्री Yograj Prabhakar सर की फेसबुक वॉल से


आदरणीय साथियो
.
‘लघुकथा कलश’ का पांचवां अंक (जनवरी-जून 2020) ‘राष्ट्रीय एकता महाविशेषांक’ होगा जिस हेतु रचनाएँ आमंत्रित हैं. रचनाकारों से अनुरोध है कि वे प्रदत्त विषय पर अपनी 3 चुनिन्दा लघुकथाएँ प्रेषित करें. लघुकथा के इलावा शोधात्मक आलेख व साक्षात्कार आदि का भी स्वागत है.
.
- केवल ई-मेल द्वारा भेजी गई टंकित रचनाएँ ही स्वीकार्य होंगी.
- रचनाएँ केवल यूनिकोड/मंगल फॉण्ट में ही टंकित करके भेजें.
- पीडीएफ़ अथवा चित्र रूप में भेजी गई रचनाओं पर विचार नहीं किया 
जाएगा.
- अप्रकाशित/अप्रसारित रचनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी.
- सोशल मीडिया/ब्लॉग/वेबसाईट पर आ चुकी रचनाएँ प्रकाशित मानी 
जाएँगी.
- रचना के अंत में उसके मौलिक/अप्रकाशित होने सम्बन्धी अवश्य लिखें.
- रचना के अंत में अपना पूरा डाक पता (पिनकोड/फ़ोन नम्बर सहित) 
अवश्य लिखे.
- जो साथी पहली बार रचना भेज रहे हैं वे रचना के साथ अपना छायाचित्र 
भी अवश्य मेल करे.
- रचनाएँ भेजने की अंतिम तिथि 15 नवम्बर 2019 है.
- रचनाएँ yrprabhakar@gmail.com पर भेजी जा सकती हैं.
.
विनीत
योगराज प्रभाकर
संपादक: लघुकथा कलश.
दिनांक: 16 अक्टूबर 2019

ज्योत्सना सिंह की एक लघुकथा : चादर

शौक़ उन्हें भी था अब ज़रूरी तो नहीं कि शौक़ की फ़ेहरिस्त लंबी-चौड़ी या महँगी सस्ती हो वह तो बस होता है।

सो उन्हें भी था ऐसा ही एक छोटा सा शौक़! 

कह भी दिया था उसे उन्होंने बड़े ही मज़ाक़िया लहज़े अपने मियाँ से।

अब जब वह अपनी शरीक-ए-हयात की इत्ती सी चाहत से वाक़िफ़ हुए तब उनसे तो कुछ न बोले पर खुद से ही वादा कर उनकी मंशा पर अपनी क़बूल नामे की मोहर लगा ली।

बस फिर क्या जब साझे परिवार की हांडी पका और दुल्हन बेगम के सारे फ़र्ज़ निभा वह सेज़ पर आती और सारे दिन के उतार-चढ़ाव के बातों के बताशे वह मियाँ के पहलू में बैठ बायाँ करती मियाँ भी उनकी मेहंदी लगी हथेलियों से खेलते हुए इस सब का लुत्फ़ उठाते।

जब वह नींद की आग़ोश में समा जाती तब वह उनकी इकलौती चाहत को बड़े आशिक़ाना अंदाज़ा में अंजाम देते हुए उन्हें उनकी चादर उढ़ा देते।

बस इतनी ही सी ही तो मंशा थी उनकी कि जब वह अपनी सेज़ पर आराम फ़रमाए तो कोई उन्हें चादर उढ़ा दे उन्हें खुद ले कर न ओढ़ना पड़े इसमें उन्हें बड़ी मल्लिकाओं वाले एहसास होते थे।

 एक बात और थी बिना ओढ़े वह नींद का असल मज़ा भी चख न पाती थी।

बीतते वक्त के साथ कई बार ऐसा भी हुआ की  बेगम के अरमगाह में आने से पहले ही मियाँ की नज़रें उनके इंतज़ार में थक कर सो रहीं।

मगरचे न जाने कौन उन्हें सख़्त से सख़्त नींद के पहरे से जगा देता और फिर वह उनकी चाहत को दिया अपना ख़ामोश वादा मुकम्मल कर देते।

इतने सालों में समझ तो वह भी गईं थी कि मियाँ उनकी नादान सी ख़्वाहिश को दिलो जान से निभाते हैं किंतु न वह कुछ कहती न वह कुछ बोले थे।

मेहंदी का रंग अब हँथेलियो को राचाने से ज़्यादा ज़ुल्फ़ों की ज़रूरत बन चुका था।

पर मियाँ बीबी से वह अम्मी, अब्बा का सफ़र न तय कर पाए तो ज़िंदगी का स्वाद बे मज़ा हुआ जाता था।

कमी भी बीवी में थी सभी की ज़ोर आज़माइश से पाँच तो जायज़ हैं का कलाम मियाँ को भी याद हो आया और घर के चिराग़ के लिए वह दूसरा निक़ाह पढ़ आए ।

सगी छोटी बहन उनकी सौत बन कर आई जिसमें रज़ामंदी उनकी भी थी।

पर धीरे-धीरे मल्लिका होने का एहसास उनका उनकी आरामगाह से जाता रहा पर बड़ी अम्मी होने का रुतबा उनके इक़बाल को बुलंद करता था और वह सुकून उनके हर सुकून से ऊपर था।

आज कुछ हरारत सी थी उनको सर्दी ने भी जकड़ रखा था वह सोने की फ़िराक़ में करवटें बदल रहीं थी कि किसी ने आकर उन्हें चादर उढ़ा दी वह चौंक के उठने को हुईं कि कोमल हाथों ने उनके सर पर अपना हाथ रख कहा।

“बड़ी अम्मी! आप की तबियत नासाज़ है आप आराम फ़रमाओ मैं हूँ आपके साथ।”

दबे सैलाब से दो गर्म बूँदे गिरा वह सुकून की गहरी नींद सो रहीं 
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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

"हिंदी रक्षक मंच" और "हिंदी की बात" पर मेरी एक लघुकथा : "मानव-मूल्य"




मानव-मूल्य / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।
उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”
चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”
आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।
“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।
चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”
मित्र ने उत्तर दिया,
“ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”


Sources:
1. हिंदी रक्षक मंच 
http://www.hindirakshak.com/human-value/

सोमवार, 14 अक्टूबर 2019

द पुरवाई में मेरी दो लघुकथाएँ

द पुरवाई में मेरी दो लघुकथाएँ रावण का चेहरा तथा दंगे की जड़ प्रकाशित हुई हैं। 

द पुरवाई पर इन्हें यहाँ क्लिक/टैप कर पढा जा सकता है। 







ये दोनों लघुकथाएं लघुकथा दुनिया पर भी उपलब्ध हैं, निम्न लिंक पर क्लिक / टैप कर यहाँ भी पढ़ सकते हैं। 
दशहरा विशेष दो लघुकथाएं | डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 13 अक्टूबर 2019

मातृभारती पर मेरी एक लघुकथा "खजाना" का अंग्रेजी अनुवाद

Laghukatha: Treasure
लेखक एवं अनुवादक: डॉ०  चंद्रेश कुमार छतलानी

In the evening after the father's funeral, the two sons were sitting in the courtyard outside the house with their relatives and neighbors. At this point, the wife of the elder son came and she said something to her husband's ear. The elder son gestured towards his younger brother to come in, looking at him with meaningful eyes and stood and folded his hands to the people sitting there and said, "Come in five minutes now".

Then both brothers went inside. As soon as they went inside, the elder brother whispered and said to the younger, "Look in the box, otherwise someone will come to assert it." The younger also nodded in agreement.

Going to the father's room, the elder brother's wife said to her husband, "Take out the box, I close the door." And she moved towards the door.

Both brothers bent under the bed and pulled out the box kept there. The elder brother's wife took out a key from her pocket and gave it to her husband.

As soon as the box opened, the three peeped into the box with great curiosity. There were forty-fifty books kept inside. All three suddenly did not believe. The elder brother's wife said in a frustrated tone, "I was quite sure that when our father never took the money even for his medicine, then the money and jewels of his savings would be kept in this box, but nothing is in its..."

At that time the younger brother saw that in the corner of the box a cloth bag was placed near the books, he took out that bag. It had a few rupees and a paper with it. Curiosity struck the faces of all three as soon as they saw the money. The younger brother counted the money and read the paper.
It was written in that,
"My funeral's expenses"
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मातृभारती पर पढ़ें 
Source:
https://www.matrubharti.com/book/read/content/19873948/treasure

Read More:
लघुकथा "खजाना" को हिंदी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक/टैप  करें। 

मेरी एक लघुकथा हिन्दीभाषा.कॉम में

दंगे की जड़ / डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी 



आखिर उस आतंकवादी को पकड़ ही लिया गया,जिसने दूसरे धर्म का होकर भी रावण दहन के दिन रावण को आग लगा दी थी। उस कृत्य के कुछ ही घंटों बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे थे।

आतंकवादी के पकड़ा जाने का पता चलते ही पुलिस स्टेशन में कुछ राजनीतिक दलों के नेता अपने दल-बल सहित आ गये,एक कह रहा था कि उस आतंकवादी को हमारे हवाले करो,हम उसे जनता को सौंप कर सज़ा देंगे तो दूसरा उसे न्यायालय द्वारा कड़ी सजा देने पक्षधर था,वहीं तीसरा उस आतंकवादी से बात करने को उत्सुक था।

शहर के दंगे ख़त्म होने की स्थिति में थे,लेकिन राजनीतिक दलों के यह रुख देखकर पुलिस ने फिर से दंगे फैलने के डर से न्यायालय द्वारा उस आतंकवादी को दूसरे शहर में भेजने का आदेश करवा दियाl उसके मुँह पर कपड़ा बाँध,छिपा कर बाहर निकालने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि,एक राजनीतिक दल के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया।

उनका नेता भागता हुआ आया,और उस आतंकवादी से चिल्ला कर पूछा,-“क्यों बे! रावण तूने ही जलाया था ?” कहते हुए उसने उसके मुँह से कपड़ा हटा दिया। कपड़ा हटते ही उसने देखा लगभग बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का खड़ा था,जो चेहरे से ही मंदबुद्धि लग रहा था। और वह लड़का आँखें और मुँह टेढ़े कर के चेहरे के सामने हाथ की अंगुलियाँ घुमाते हुए हकलाते हुए बोला,-
“हाँ…! मैंने जलाया है…रावन को,क्यों…क्या मैं…राम नहीं बन सकता ?
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Source:
http://hindibhashaa.com/%E0%A4%A6%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%9C%E0%A5%9C/

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लघुकथा 'दंगे की जड़' पर रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा

शनिवार, 12 अक्टूबर 2019

मेरी एक लघुकथा उत्तराखंड मिरर में

जीत / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



“यह मार्मिक छायाचित्र हमारे देश के उच्च कोटि के फोटोग्राफर रोशन बाबू ने लिया है, इसमें पंछियों के जोड़े में से एक की मृत्यु हो गयी है और दूसरा चीत्कार कर रहा है।“

नेपथ्य से आती आवाज़ के साथ मंच में पीछे रखी बड़ी सी स्क्रीन पर रोते हुए एक पंछी का चित्र दिखाई देने लगा जिसका साथी मरा हुआ पड़ा था।

अब फिर से आवाज़ गूंजी, “मित्रों, यह लव-बर्ड हैं, इनके जोड़े में से जब कोई भी एक पंछी मर जाता है, तो दूसरा भी जीवित नहीं रह सकता। एक सच्चा कलाकार ही इस दर्द का चित्रण कर सकता है। निर्णायकों द्वारा इसी चित्र को इस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ छायाचित्र घोषित किया गया है। रोशन बाबू को बहुत बधाई।”

घोषणा होते ही पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो उठा, रोशन बाबू का पिछले कई वर्षों का सपना पूरा हो गया था, और उनकी ख़ुशी का पारावार नहीं था।

हॉल में पहली पंक्ति पर बैठा रोशन बाबू के परिवार के हर सदस्य का चेहरा खिल उठा था, लेकिन वह चित्र देखते ही वहीँ बैठी उनकी बेटी की भी रुलाई छूट गयी। तीन महीने तक वह उन पंछियों के साथ खेली थी, और एक दिन रोशन बाबू ने उनमें से एक का गला घोंट दिया।

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Source:
http://www.uttarakhandmirror.com/literature/prose-collection/win/

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019

लघुकथा: जंगल की इज्जत | मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

सारा आदिवासी समुदाय फ़ॉरेस्ट ऑफिसर के अत्याचारों से कराह रहा था । वो जब भी जंगल में राउंड मारने आता, तब ही उसे एक नई लड़की चाहिए होती। जंगल की इज्ज़त खतरे में पड़ गई । इस बार उसकी नजर हिरनो पर पड़ी । हिरनो साँवली जरूर थी, पर उसके जैसा सुंदर - भरा हुआ बदन शायद ही पूरे आदिवासी समुदाय की किसी लड़की का हो । उसकी सुंदरता पर लट्टू होकर ही फिल्मनिर्माता रघुवर कपूर ने उसे अपनी आगामी फिल्म ऑफर की थी, परन्तु हिरनो अपना गाँव नहीं छोड़ना चाहती थी और इसी वजह से उसने रघुवर कपूर का ऑफर ठुकरा दिया । खैर रघुवर कपूर अपना प्रोजेक्ट पूरा करके मुंबई चले गये और जाते-जाते अपना कार्ड दे गये, ताकि जब कभी हिरनो का मन फिरे तो वह सीधे मुंबई चली आये । लेकिन हिरनो का मन कभी फिरा नहीं ।

देर रात चार-पाँच जल्लाद खाकी पहने, नकाब से चेहरा ढके हिरनो की झोपड़ी में कूद गये और उसे जबरन उठाकर फोरेस्ट अॉफीसर के सामने पटक दिया । सारी रात सरकारी गैस्ट हाउस हिरनो की दर्दभरी चीखों से गूंजता रहा । सुबह उसकी लाश झरने के पानी में तैरती हुई देखी गई... ।

पुलिस रिकार्ड के अनुसार, हिरनो जब झरने से पानी लेने गई होगी तब उसका पैर फिसल गया होगा और वो गहरे पानी में चली गई होगी । इसतरह पानी में डूबने से उसकी मृत्यु हो गई । और इसी के साथ हिरनो की फाइल बंद हो गई । न जाने ऐसी कितनी अनगिनत हिरनो सरकारी फाइलों में दबकर दफन हो चुकी हैं । 

लेकिन जंगल की इज्जत के साथ यह खेल आज भी अनवरत चल रहा है और पता नहीं ये कब तक चलता रहेगा... ।

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2019

दशहरा विशेष दो लघुकथाएं | डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी


1)
रावण का चेहरा / डॉ०  चंद्रेश कुमार छतलानी 

हर साल की तरह इस साल भी वह रावण का पुतला बना रहा था। विशेष रंगों का प्रयोग कर उसने उस पुतले के चेहरे को जीवंत जैसा कर दिया था। लगभग पूरा बन चुके पुतले को निहारते हुए उसके चेहरे पर हल्की सी दर्द भरी मुस्कान आ गयी और उसने उस पुतले की बांह टटोलते हुए कहा, "इतनी मेहनत से तुझे ज़िन्दा करता हूँ... ताकि दो दिनों बाद तू जल कर खत्म हो जाये! कुछ ही क्षणों की जिंदगी है तेरी..."

कहकर वह मुड़ने ही वाला था कि उसके कान बजने लगे, आवाज़ आई,
"कुछ क्षण?"
वह एक भारी स्वर था जो उसके कान में गुंजायमान हो रहा था, वह जानता था कि यह स्वर उसके अंदर ही से आ रहा है। वह आँखें मूँद कर यूं ही खड़ा रहा, ताकि स्वर को ध्यान से सुन सके। फिर वही स्वर गूंजा, "तू क्या समझता है कि मैं मर जाऊँगा?"

वह भी मन ही मन बोला, "हाँ! मरेगा! समय बदल गया है, अब तो कोई अपने बच्चों का नाम भी रावण नहीं रखता।"

उसके अंदर स्वर फिर गूंजा, "तो क्या हो गया? रावण नहीं, अब राम नाम वाले सन्यासी के वेश में आते हैं और सीताओं का हरण करते हैं... नाम राम है लेकिन हैं मुझसे भी गिरे हुए..."

उसकी बंद आँखें विचलित होने लगीं और हृदय की गति तेज़ हो गयी उसने गहरी श्वास भरी, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था, स्वर फिर गूंजा, "भूल गया तू, कोई कारण हो लेकिन मैनें सीता को हाथ भी नहीं लगाया था और किसी राम नाम वाले बहरूपिये साधू ने तेरी ही बेटी..."

"बस...!!" वह कानों पर हाथ रख कर चिल्ला पड़ा।

और उसने देखा कि जिस पुतले का जीवंत चेहरा वह बना रहा था, वह चेहरा रावण का नहीं बल्कि किसी ढोंगी साधू का था।
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2)

दंगे की जड़ / डॉ०  चंद्रेश कुमार छतलानी 

आखिर उस आतंकवादी को पकड़ ही लिया गया, जिसने दूसरे धर्म का होकर भी रावण दहन के दिन रावण को आग लगा दी थी। उस कृत्य के कुछ ही घंटो बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे थे।

आतंकवादी के पकड़ा जाने का पता चलते ही पुलिस स्टेशन में कुछ राजनीतिक दलों के नेता अपने दल-बल सहित आ गये, एक कह रहा था कि उस आतंकवादी को हमारे हवाले करो, हम उसे जनता को सौंप कर सज़ा देंगे तो दूसरा उसे न्यायालय द्वारा कड़ी सजा देने पक्षधर था, वहीँ तीसरा उस आतंकवादी से बात करने को उत्सुक था।

शहर के दंगे ख़त्म होने की स्थिति में थे, लेकिन राजनीतिक दलों के यह रुख देखकर पुलिस ने फिर से दंगे फैलने के डर से न्यायालय द्वारा उस आतंकवादी को दूसरे शहर में भेजने का आदेश करवा दिया और उसके मुंह पर कपड़ा बाँध, छिपा कर बाहर निकालने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि एक राजनीतिक दल के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया।

उनका नेता भागता हुआ आया, और उस आतंकवादी से चिल्ला कर पूछा, "क्यों बे! रावण तूने ही जलाया था?" कहते हुए उसने उसके मुंह से कपड़ा हटा दिया।

कपड़ा हटते ही उसने देखा लगभग बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का खड़ा था, जो चेहरे से ही मंदबुद्धि लग रहा था।

और वह लड़का आँखें और मुंह टेड़े कर के चेहरे के सामने हाथ की अंगुलियाँ घुमाते हुए हकलाते हुए बोला,
"
हाँ...! मैनें जलाया है... रावन को, क्यों...क्या मैं... राम नहीं बन सकता?"
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