लघुकथा: दंगे की जड़ / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
आखिर उस आतंकवादी को पकड़ ही लिया गया, जिसने दूसरे धर्म का होकर भी रावण दहन के दिन रावण को आग लगा दी थी। उस कृत्य के कुछ ही घंटो बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे थे।
आतंकवादी के पकड़ा जाने का पता चलते ही पुलिस स्टेशन में कुछ राजनीतिक दलों के नेता अपने दल-बल सहित आ गये, एक कह रहा था कि उस आतंकवादी को हमारे हवाले करो, हम उसे जनता को सौंप कर सज़ा देंगे तो दूसरा उसे न्यायालय द्वारा कड़ी सजा देने पक्षधर था, वहीँ तीसरा उस आतंकवादी से बात करने को उत्सुक था।
शहर के दंगे ख़त्म होने की स्थिति में थे, लेकिन राजनीतिक दलों के यह रुख देखकर पुलिस ने फिर से दंगे फैलने के डर से न्यायालय द्वारा उस आतंकवादी को दूसरे शहर में भेजने का आदेश करवा दिया और उसके मुंह पर कपड़ा बाँध, छिपा कर बाहर निकालने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि एक राजनीतिक दल के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया।
उनका नेता भागता हुआ आया, और उस आतंकवादी से चिल्ला कर पूछा, "क्यों बे! रावण तूने ही जलाया था?" कहते हुए उसने उसके मुंह से कपड़ा हटा दिया।
कपड़ा हटते ही उसने देखा, लगभग बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का उसके समक्ष था, जो चेहरे से ही मंदबुद्धि लग रहा था। वह लड़का आँखें और मुंह टेड़े कर अपने चेहरे के सामने हाथ की अंगुलियाँ घुमाते हुए हकलाते हुए बोला,
"हाँ...! मैनें जलाया है... रावन को, क्यों...क्या मैं... राम नहीं बन सकता?"
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