बुधवार, 19 जून 2019

लघुकथाकार परिचय: श्री मधुदीप गुप्ता और उनकी एक रचना पर मेरी प्रतिक्रिया | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो मील के पत्थर स्थापित करते हैं और जब दूसरे व्यक्ति उसी राह पर निकलते हैं तो मील के पत्थरों को देखते ही उन्हें स्थापित करने वालों से स्वतः ही उनका परिचय हो जाता है। लघुकथा लेखन में मील के पत्थर स्थापित करने वाले मधुदीप गुप्ता जी जैसे व्यक्ति किसी परिचय के मोहताज नहीं, बल्कि उनका परिचय उनके द्वारा किया गया महती कार्य है, जो जगह-जगह दिखाई देता है। लघुकथा लेखन की शुरुआत के साथ ही लगभग हर लेखक का मधुदीप गुप्ता जी से परिचय किसी न किसी तरह अपने-आप ही हो जाता है। मुझ सहित हम में से कई रचनाकारों को आपने न केवल पड़ाव और पड़ताल द्वारा बल्कि फोन, फेसबुक और अन्य साधनों द्वारा भी व्यक्तिगत रूप से कई बार लघुकथा लेखन को बेहतर करने हेतु अमूल्य सुझावों से धन्य किया है। लघुकथा सम्बंधित कई तरह के प्रश्न और उत्तर आपकी फेसबुक टाइमलाइन पर भी दिखाई दे जायेंगे।
लघुकथाकारों सहित सभी लेखकों को आपके द्वारा दिया गया एक मन्त्र है कि,"लिखने से पहले उसके बारे में अच्छा पढ़ना और उसे समझना बहुत ज़रूरी है"। सत्य है कि बिना अच्छा पढ़े अच्छा लेखन असंभव ही है। वे 20 वर्षों तक लेखन में सक्रिय नहीं रहे।  लेकिन मैं समझता हूँ कि उन 20 वर्षों में वे पठन में अक्रिय नहीं रहे होंगे।

अब तक पड़ाव और पड़ताल नामक लघुकथा की श्रंखला के जरिये 31 खण्डों के जरिये आपने लघुकथा के बहुत से रचनाकारों को एक बैनर तले लाने का ऐसा कार्य किया है, जो शायद ही कोई कर सके। इसके लगभग सभी अंक मैं पढ़ चुका हूँ और इसका सेट हमारे विश्वविद्यालय शोधार्थियों के लिए भी हमारी सेंट्रल लाइब्ररी में पिछले एक-डेढ वर्षों से उपलब्ध है। इसे पढ़ने के पश्चात मेरे अनुसार पड़ाव और पड़ताल, "लघुकथा का बाइबिल" है, जिसमें लघुकथा सम्बन्धी काफी सारी जानकारी मय उदाहरण और लघुकथाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ उपलब्ध हैं। 

पड़ाव और पड़ताल के खंड 1 के पृष्ठ 83 पर उनका परिचय और पृष्ठ 84 से उनकी रचनाएँ हैं। इनमें सबसे पहली रचना है - "हिस्से का दूध"। मेरी पसंद की यह रचना काफी चर्चित रही है।

हिस्से का दूध / श्री मधुदीप गुप्ता
उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आकर बैठ गई। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।
‘‘सो गया मुन्ना....?’’
‘‘जी! लो दूध पी लो।’’ सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढ़ाया।
‘‘नहीं, मुन्ने के लिए रख दो। उठेगा तो....।’’ वह गिलास को माप रहा था।
‘‘मैं उसे अपना दूध पिला दूँगी।’’ वह आश्वस्त थी।
‘‘पगली, बीड़ी के ऊपर दूध–चाय नहीं पीते। तू पी ले।’’ उसने बहाना बनाकर दूध को उसके और करीब कर दिया।
तभी–
बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गई।
‘‘सुनो, जरा चाय रख देना।’’
पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया।
००

उपरोक्त रचना पर मेरी प्रतिक्रिया एवं पसंद का कारण:

किसी भी पाठक की सबसे पहले दृष्टि लघुकथा के शीर्षक पर जाती है। इसलिए लघुकथाकार शीर्षक ऐसा चुनते हैं जो पाठकों को वह लघुकथा पढ़ने के लिए प्रेरित करे। शीर्षक रोचक भी हो सकता है तो व्यंग्यनुमा भी। इस लघुकथा "हिस्से का दूध" का शीर्षक पाठकों के मस्तिष्क में उत्सुकता जगाता है।  उत्सुकता यह उठती है कि लहगुक्था में कहीं किसी के हिस्से का दूध गिर गया या फिर बच्चे दूध का भी हिस्सा कर रहे, आदि-आदि। यह शीर्षक कलात्मक भी है और भावात्मक भी क्योंकि "हिस्सा" शब्द पढ़ते ही कहीं न कहीं परिवार हमारे दिमाग में आता है इसलिए भावों से जुड़ ही रहा है और साथ-साथ ही दूध के हिस्से को शीर्षक दर्शाना मधुदीप जी के कलात्मक कौशल का परिचय है।

लघुकथा के कथ्य पर बात करें तो एक परिवार जिसकी माली हालत अच्छी नहीं, अपने बच्चे को अच्छी तरह पालना चाहते हैं। हम भारतीयों की यह खासियत तो है ही कि बच्चे हो जाने के बाद हम खुद के लिए कम और अपने बच्चों के लिए ज़्यादा जीते हैं। मार्मिक करती यह लघुकथा कथोपकथन और वर्णनात्मक दोनों का मिश्रित शिल्प लिए हुए है। भाषा की दृष्टि से आम व्यक्ति को भी समझ में आने योग्य  है। मेरी समझ से लघुकथाकार ने लघुकथा को इस तरह कहने का प्रयास किया है ताकि एक घटना पाठकों के दिमाग में चित्रित भी हो। जैसे इन पंक्तियों पर गौर कीजिये //उनींदी आँखों को मलती हुई//, //दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था//, //वह गिलास को माप रहा था।// - आदि।

इस लघुकथा की एक पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी वह है - //वह आश्वस्त थी।// माँ होकर एक पत्नी यह कहती है कि - मैं अपने बच्चे को अपना दूध पिला दूँगी और चाहती है कि उसका पति दूध पी ले। एक नारी के तीन रूप एक ही पंक्ति में बता दिये हैं मधुदीप जी ने। माँ होकर बच्चे को दूध पिलाना, पत्नी होकर पति की चिंता और गृहिणी होकर आश्वस्त होकर घर की ज़िम्मेदारी। हालांकि लघुकथाकार ने पति से' भी यह कहलवा है कि वह पत्नी को दूध पीने को कह रहा है, यह आदर्शवाद तो है लेकिन रचनाकार ने इसके जरिये भी एक परिवार की आर्थिक स्थिति दर्शाते हुए समाज के एक वर्ग के हालात भी दर्शाने का सफल प्रयास किया है।


पति का पहले यह कहना कि //‘‘पगली, बीड़ी के ऊपर दूध–चाय नहीं पीते। तू पी ले।’// और बाद में यह कहना कि //‘‘सुनो, जरा चाय रख देना।’’// कुछ समीक्षकों को खल सकता है लेकिन मेरी दृष्टि में यह है कि यह एक भूखे व्यक्ति जो पति भी है और पिता भी है की भावनाओं को दर्शा दिया है और साथ ही यह संदेश दिया है कि त्याग करना केवल नारी का ही कार्य नहीं - पुरुष को सहभागी होना ही चाहिए। समय के अनुसार समाज के बदलाव को भी इंगित किया है यहाँ रचनाकार ने।

इस रचना को पढ़ना प्रारम्भ करते ही "उनींदी आँखों को मलती हुई" पाठकों को यह आभास देता है कि सवेरे का समय होना चाहिए और तभी पति का यह प्रश्न कि //‘‘सो गया मुन्ना....?’’// पठन का लय तोड़ता है। पाठक उलझ सकता है कि रात का समय है या दिन का? वैसे यह पंक्ति ना हो तो भी लघुकथा के संदेश और चित्रण में फर्क महसूस नहीं होता।

लघुकथा का अंत करना लघुकथाकार का कौशल है और इस कार्य में भी यह लघुकथा सफल है। पुरुष भूखा है लेकिन भूख मिटाने के लिए खुदके लिए कुछ मांगते हुए उसका स्वर भर्रा जाता है क्योंकि वह स्वयं से पहले अपने परिवार की भूख मिटाना चाह रहा है। अंत स्वतः ही पाठकों के हृदय को मार्मिक कर देता है। इस रचना की एक विशेषता यह भी है कि अंत में पाठकों को विवश करे कि यदि वे सक्षम हैं तो इस तरह के परिवार की सहायता ज़रूर करें और यह विशेषता भी एक कारण है जो यह रचना मेरी पसंद की है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

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