लघुकथा: मृत्यु दंड
हज़ारों वर्षों की नारकीय यातनाएं भोगने के बाद भीष्म और द्रोणाचार्य को मुक्ति मिली। दोनों कराहते हुए नर्क के दरवाज़े से बाहर आये ही थे कि सामने कृष्ण को खड़ा देख चौंक उठे, भीष्म ने पूछा, "कन्हैया! पुत्र, तुम यहाँ?"
कृष्ण ने मुस्कुरा कर दोनों के पैर छुए और कहा, "पितामह-गुरुवर आप दोनों को लेने आया हूँ, आप दोनों के पाप का दंड पूर्ण हुआ।"
यह सुनकर द्रोणाचार्य ने विचलित स्वर में कहा, "इतने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि पाप किया, लेकिन ऐसा क्या पाप किया कन्हैया, जो इतनी यातनाओं को सहना पड़ा? क्या अपने राजा की रक्षा करना भी..."
"नहीं गुरुवर।" कृष्ण ने बात काटते हुए कहा, "कुछ अन्य पापों के अतिरिक्त आप दोनों ने एक महापाप किया था। जब भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था, तब आप दोनों अग्रज चुप रहे। स्त्री के शील की रक्षा करने के बजाय चुप रह कर इस कृत्य को स्वीकारना ही महापाप हुआ।"
भीष्म ने सहमति में सिर हिला दिया, लेकिन द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न और किया, "हमें तो हमारे पाप का दंड मिल गया, लेकिन हम दोनों की हत्या तुमने छल से करवाई और ईश्वर ने तुम्हें कोई दंड नहीं दिया, ऐसा क्यों?"
सुनते ही कृष्ण के चेहरे पर दर्द आ गया और उन्होंने गहरी सांस भरते हुए अपनी आँखें बंद कर उन दोनों की तरफ अपनी पीठ कर ली फिर भर्राये स्वर में कहा, "जो धर्म की हानि आपने की थी, अब वह धरती पर बहुत व्यक्ति कर रहे हैं, लेकिन किसी वस्त्रहीन द्रोपदी को... वस्त्र देने मैं नहीं जा सकता।"
कृष्ण फिर मुड़े और कहा, "गुरुवर-पितामह, क्या यह दंड पर्याप्त नहीं है कि आप दोनों आज भी बहुत सारे व्यक्तियों में जीवित हैं, लेकिन उनमें कृष्ण मर गया..."
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
ज़बरदस्त लघुकथा है यह। इससे बड़ा दंड क्या हो सकता है।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार भाई मृणाल जी।
हटाएंबहुत लाजवाब लघुकथा ।बेबसी से अपनी पराजय देखने से बड़ा दण्ड और क्या हो सकता है..।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय।
हटाएंवाह-वाह क्या खूब लघुकथा है। सीधे दिल पे चोट कर गयी।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय।
हटाएंthis laghukatha is nothing but the most impressive and most great story i have ever read. this small story is much more than any novel. i am amazed how one can think plot of such great story sir? this proves you are master of best positive and spiritual thoughts. i have no words than best respects for you sir. may almighty god give more power to you and your writings.
जवाब देंहटाएंThanks a lot Divyanshi Trivedi ji.
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-06-2019) को "योग-साधना का करो, दिन-प्रतिदिन अभ्यास" (चर्चा अंक- 3373) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत आभार आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी सर।
हटाएंबेहतरीन सर बहुत ही सुन्दर... . ख़ामोशी सबसे बड़ा ज़ुल्म...
जवाब देंहटाएंप्रणाम
हार्दिक आभार आपका आदरणीया अनीता सैनी जी।
हटाएंलघुकथा मृत्यु दंड ने सीधे दिमाग पर चोट कर दी सर। अंत में जब प्रभु कृष्ण कहते हैं कि अब मैं इन्सानों में जीवित नहीं हूँ। तब ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ढोंगियों के बीच में नारी की अस्मिता आज भी असुरक्षित है। आज भी सिर्फ द्रोणाचार्य और भीष्म जैसे नारी की अस्मिता लुटने पर चुप रहने वाले और विडियो बनाने वाले लोग ही हैं… कृष्ण सच मे ढूँढने से भी नहीं मिलते। आज समाज के लोग जब ऐसी लघुकथाएं पढ़ते हैं तो कहीं न कहीं किसी न किसी का तो जमीर जागेगा। आप साहित्यकार धर्म का सच्चा पालन कर रहे हैं डॉ. चंद्रेश छतलानी सर।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका आदरणीया रागिनी जोशी जी।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदिमाग के तार झनझना उठे इस लघुकथा को पढ़ कर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका विनय नागदा जी।
हटाएंआप दोनों आज भी बहुत सारे व्यक्तियों में जीवित हैं,
जवाब देंहटाएंलेकिन उनमें कृष्ण मर गया..."
बेहतरीन..
सादर
बहुत-बहुत आभार आदरणीया यशोदा अग्रवाल जी।
हटाएंबेहतरीन लघुकथा, आज के सन्दर्भ में बिलकुल सही सत्य का आभास कराता. बहुत बहुत बधाई!
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