चन्द्रेश कुमार छतलानी (उदयपुर, राजस्थान) की लघुकथा के काव्यात्मक रूपांतरण का एक प्रयास -
शीर्षक : विधवा धरती
(अन्य शीर्षक सुझाव: कितने बार विधवा?)
रक्तरंजित सुनसान सड़कें थीं,
तो दर्द से चीखते घर, बस।
उजड़े शहर थे, तो बसते श्मशान, क़ब्रिस्तान, बस।
बलिवेदियॉं थीं, तो साम्प्रदायिक दंगों की निशानदेहियाॅं, बस।
याद था उसे वह मंजर,
रहा जब वह सात साल का।
स्वतंत्रता संग्राम में उसके पिताजी की शहादत का।
तीन वर्ष बाद ... था देश आज़ाद।
उसने समझा... भारत मॉं को पिताजी का सदा सुहागन का आशीर्वाद।
हालात शहर के देखकर आज उससे रहा नहीं गया।
कर्फ्यू के बावजूद भी तीन साड़ियाँ लेकर, बाहर वह निकल गया।
ढलती उम्र में भी किशोरों की तरह... जाने कैसे छुपते-छिपाते... शहर के एक बड़े चौराहे पर पहुँच गया।
जाकर वहॉं उसने पहली साड़ी निकाली, केसरिया रंग वाली...
और आग उसमें उसने लगा दी।
फिर... दूसरी साड़ी उसने वहीं निकाली,
हरे रंग वाली, आग उसमें भी उसने लगा दी।
और तीसरी सफ़ेद वाली साड़ी निकाल ... उसमें खुद ही अपना मुँह उसने ज्यों ही छिपा लिया।
इक पुलिस दल वहॉं पहुॅंच गया।
"कर क्या रहा यहॉं?
क्यों आगजनी कर रहा यहॉं?"
चिल्लाकर इक सिपाही बोला वहॉं।
साड़ी में से चेहरा अपना, ज्यों निकाला उसने। लाल-सुर्ख आँखों से उसकी... पानी लगा टपकने।
भर्राये स्वर में उसने कहा,"ये मेरी माँ की साड़ियाँ हैं, जो जल रही हैं। अब बस यही बची है, जो कुछ कह रही हो"
सफ़ेद साड़ी दिखा उसने कहा।
"पागल है? यहाँ पूरे शहर में आग लगी है
और तुम्हें माँ की साड़ी की पड़ी है!"
बोला पुलिसवाला, "कौन है तुम्हारी माँ ?"
कुर्ते के अन्दर से उसने जो तस्वीर निकाली, पहने साड़ी तिरंगे वाली...
थी वो भारत माँ!
सिर से अपने उसे लगा,
फफकने वह लगा,
"विधवा हो रही है फ़िर से मेरी मॉं,
बचा लो उसे मेरे पिता!"
याद आ गई उसे शहीद पिता की चिता।
(लघुकथा की शैली में रूपांतरण:
शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
(01-03-2025)
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मूल रचना इस प्रकार है -
विधवा धरती
साम्प्रदायिक दंगे पीछे छोड़ गए थे सुनसान रक्तरंजित सड़कें, दर्द से चीखते घर, उजाड़ शहर और बसते हुए श्मशान और कब्रिस्तान। उसे हमेशा से याद था कि उसकी सात वर्ष की आयु में ही उसके पिताजी स्वतन्त्रता-संग्राम में शहीद हो गए। उनकी शहादत के तीन वर्ष बाद देश स्वतंत्र हो गया। वह यही समझता था कि पिताजी भारत माँ को सदा सुहागन का आशीर्वाद देकर गए हैं।
शहर के हालात देखकर आज उससे रहा नहीं गया, वह कर्फ्यू के बावजूद भी तीन साड़ियाँ लेकर बाहर निकल गया, और ढ़लती उम्र में भी किशोरों की तरह जाने कैसे छुपते- छिपाते शहर के एक बड़े चौराहे पर पहुँच गया। वहाँ जाकर उसने पहली साड़ी निकाली, वह केसरिया रंग की थी, उसने उसमें आग लगा दी।
फिर उसने दूसरी साड़ी निकाली, जो हरे रंग की थी,उसने उसमें भी आग लगा दी।
और तीसरी सफ़ेद रंग की साड़ी निकालकर उसमें खुद ही मुँह छिपा लिया।
तब तक पुलिसवाले दौड़कर पहुँच गये थे। उनमें से एक चिल्लाकर बोला," क्या कर रहा है? आगजनी कर रहा है?"
उसने चेहरा साड़ी में से निकाला। उसकी लाल-सुर्ख आँखों से पानी टपक रहा था। भर्राये स्वर में उसने कहा," ये मेरी माँ की साड़ियाँ हैं, जो जल रही हैं। अब बस यही बची है।" उसने सफ़ेद साड़ी दिखाते हुए कहा।
" पागल है? यहाँ पूरे शहर में आग लगी है और तुम माँ की साड़ी को रो रहे हो! कौन है तुम्हारी माँ?"
उसने कुर्ते के अन्दर से तिरंगे की साड़ी पहने भारत माँ की तस्वीर निकाली और उसे सिर से लगा फफकते हुए कहा,"माँ फिर विधवा हो रही है, उसे बचा लीजिये पिताजी!"
_ चन्द्रेश कुमार छ्तलानी
(उदयपुर, राजस्थान)
तहेदिल बहुत-बहुत शुक्रिया। बहुत ही मार्मिक, भावपूर्ण और देशभक्ति-भावपूर्ण है मूल रचना। मेरे विचार से काव्यात्मक शैली का इस रूप का बढ़िया गायन करवाकर या एआई तकनीक से करवा कर बढ़िया ऑडियो रचना तैयार की जा सकती है।
जवाब देंहटाएं_ शेख़ शहज़ाद उस्मानी, शिवपुरी (मध्यप्रदेश) (०५/०३/२०२५)