आदरणीय मित्रों,
प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही आपदाएँ आज की परस्पर जुड़ी हुई दुनिया में निरंतर और अपेक्षाकृत अधिक विनाशकारी हो गई हैं। भूकंप, सुनामी, तूफान, बाढ़ और जंगल की आग जैसी प्राकृतिक आपदाएँ तबाही मचाती रहती हैं, मानवों, बिल्डिंग्स व अन्य संसाधनों को नष्ट करती हैं और बड़े पैमाने पर जानमाल का नुकसान करती हैं। ये आपदाएँ अक्सर जलवायु परिवर्तन के कारण और भी बढ़ जाती हैं, जिससे मौसमी घटनाओं की संख्या और गंभीरता बढ़ सकती है। प्राकृतिक आपदाओं के अलावा, औद्योगिक दुर्घटनाएँ, तेल रिसाव और परमाणु आपदाएँ जैसी मानव निर्मित आपदाएँ भी पारिस्थितिकी तंत्र और मानव सहित सभी जीवों के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं। आपदाओं का वैश्विक प्रभाव बहुआयामी है, जो न केवल सीधे तौर पर प्रभावित लोगों से जुड़ा होता है, बल्कि वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्थाओं को भी प्रभावित करता है और दीर्घकालिक पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न करता है।
इन आपदाओं के सामाजिक और आर्थिक परिणाम बहुत गंभीर हैं। विकासशील देशों में, जहाँ संसाधन सीमित हैं, आपदाएँ पूरे क्षेत्र में गरीबी और खाद्य असुरक्षा की अधिकता उत्पन्न कर सकती हैं। इसके विपरीत, विकसित देशों में, बड़े स्तर पर आर्थिक नुकसान हो सकता है, और उससे वैश्विक बाज़ार प्रभावित होते हैं। आपदाओं से हर साल लाखों लोग विस्थापित होते हैं, और कइयों पर लंबे समय तक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है।
आपदाओं के समय कई लोग फायदा उठाने की फिराक में भी रहते हैं। सब्ज़ी और फलों से लेकर दवाइयों और रक्षा प्रणालियों की कीमतों में वृद्धि हो जाती है और गुणवत्ता में कमी। बाजारों से खाद्य सामग्री सबसे पहले गायब हो जाती हैं और उनका भंडारण किया जाता है। कई लोग सेवा के नाम पर लूटने के उद्देश्य से भी आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं। हमारे देश भारत में भुज के भूकंप, हिमालय में बाढ़, COVID19 महामारी के समय में यह सब देखा गया है। जबकि होना उल्टा चाहिए। आपदा के समय निःशुल्क भोजन व दवाई वितरण तथा क्षेत्र के नागरिकों की जान-माल की आवश्यक सुरक्षा की जानी चाहिए, जो प्रैक्टिकली उतनी नहीं हो पाती, जितनी ज़रूरी है।
इनसे निपटने के लिए वैश्विक रूप से प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की पूर्व तैयारी और आपदा पश्चात उनके प्रभावों को कम करने के लिए देशों के समन्वित प्रयास आवश्यक हैं।
आपातकालीन घटना डेटाबेस (EM-DAT) जैसे वैश्विक आपदा डेटाबेस के अनुसार, पिछले दो दशकों में, प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और गंभीरता दोनों में काफी वृद्धि हुई है। अकेले 2023 में, दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रभावित करने वाली सैकड़ों बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ दर्ज की गईं। एशिया के देश, विशेष रूप से फिलीपींस और इंडोनेशिया जैसे भूकंप और उष्णकटिबंधीय तूफानों से ग्रस्त क्षेत्र, सबसे अधिक प्रभावित हैं। वैश्विक आपदाओं से आर्थिक कष्ट भी बढ़ गए हैं, अनुमान है कि यह सालाना सैकड़ों अरब डॉलर तक पहुँच सकती है। विश्व बैंक की रिपोर्ट है कि आपदाएँ हर साल अतिरिक्त 26 मिलियन लोगों को गरीबी में धकेलती हैं। ये आपदाओं के गहरे और स्थायी परिणाम हैं। जलवायु परिवर्तन आपदाओं का एक कारक है। बढ़ते तापमान और अनियमित मौसम पैटर्न पूरे विश्व में आपदाओं को बढ़ा रहे हैं।
अतः कहना न होगा कि, आपदा प्रबंधन बहुत ज़रूरी है जो आपदा से पूर्व तैयारी, आपदा के समय प्रतिक्रिया तथा आपदा पश्चात पुनर्प्राप्ति और समस्याओं के शमन के माध्यम से आपदाओं के कुप्रभावों को कम करने पर केंद्रित है। प्रभावी आपदा प्रबंधन के लिए सरकारों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और स्थानीय समुदायों को शामिल करते हुए एक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसमें आपदा का आकलन, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, विभिन्न योजनाएं और लचीले infrastructure का निर्माण शामिल है। वैश्विक स्तर पर, आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (यूएनडीआरआर) जैसी संस्थाएँ और रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट सोसाइटीज़ (आईएफआरसी) जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन आपदा जोखिम न्यूनीकरण रणनीतियों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इनके अतिरिक्त, आपदा जोखिम न्यूनीकरण 2015-2030 के लिए सेंडाई फ्रेमवर्क जैसे वैश्विक फ्रेमवर्क राष्ट्रों को जीवन, आजीविका और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के उपायों को लागू करने में मार्गदर्शन करते रहते हैं। उपग्रहों द्वारा निगरानी और डेटा विश्लेषण सहित तकनीकी प्रगति भी आपदाओं का पूर्वानुमान लगाने और उनसे निपटने की क्षमता में सुधार कर रही है, लेकिन आपदा प्रबंधन की सफलता अंततः सामुदायिक जुड़ाव, शिक्षा और निवारक उपायों में निवेश करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर भी निर्भर करती है।
आपदाओं पर साहित्य
कई साहित्यिक कृतियों ने आपदाओं के मानवीय अनुभव को दर्शाया है। कॉर्मैक मैकार्थी द्वारा लिखित "द रोड" सर्वनाशकारी दुनिया का एक भयावह चित्रण है, जहाँ एक पिता और पुत्र आपदा के बाद जीवित रहने के लिए संघर्ष करते हैं। जॉन हर्सी की "हिरोशिमा" एक और कृति है जो परमाणु बम के बचे लोगों की व्यक्तिगत कहानियों को बयां करती है। यह परमाणु आपदा के मानवीय प्रभाव का एक गहरा मार्मिक विवरण दर्शाती है।
जॉन स्टीनबेक द्वारा लिखित "द ग्रेप्स ऑफ़ रैथ" डस्ट बाउल की पारिस्थितिक आपदा और महामंदी के दौरान अमेरिकी किसानों पर इसके प्रभावों पर प्रकाश डालती है, जो पर्यावरणीय आपदाओं के मानवीयता पर कुप्रभाव को दर्शाती है।
फणीश्वर नाथ 'रेणु' की रचना "परती परिकथा" में बिहार की बाढ़ की त्रासदी का सजीव चित्रण है। यह बाढ़ से प्रभावित ग्रामीण जीवन, उनकी तकलीफें और संघर्ष को बखूबी दर्शाती है।
महाश्वेता देवी की कहानी "जंगल के दावेदार" आदिवासी समाज पर प्राकृतिक आपदाओं और उनकी ज़मीन छिन जाने के बाद के संघर्षों पर आधारित है। यह रचना सरकार के उदासीन रवैये के कारण उत्पन्न सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को उजागर करती है।
कुछ लघुकथाएं भी प्रस्तुत हैं:
योजना । कमलेश भारतीय
-भाई साहब, यह बाढ क्या आई , हमारी तो मुसीबत ही हो गयी ।
-मुसीबत ? कैसी मुसीबत ?
-अपने गांव की पक्की सड़क ही बह गयी ।
-फिर क्या ? सरकार युद्ध स्तर पर काम में लगी तो है ।
-किस काम में ?
-बाढ राहत, पुनर्वास और निर्माण में ।
-यही तो अफसोस है ।
-काहे का अफसोस ?
-सरकार सब कुछ कर रही है पर बिना योजना के ।
-वह कैसे ?
-अब सडक ही लो ।
- हां क्या हुआ सड़क को ?
-बाढ के बाद तीन बार बनाई लेकिन तीनों बार टूट गयी ।
-तीनों बार टूट गयी ? यह कैसे ?
- हर बार बारिश के आसपास सड़क जो बनाई।
- हूं , इसके बावजूद कहते हो कि योजना से काम नहीं होता ?
-इसे और क्या कहेंगे ?
-बेवकूफ, महकमे की यही तो योजना है ।
-क्या ?
- सड़क बनती रहे , टूटती रहे । जा आराम से बैठने दे ।
बडा आया फिक्रमंद।
- कमलेश भारतीय
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एक अन्य मार्मिक लघुकथा है,
मौत / कृष्ण मनु
सहकर्मियों के कहने पर बिना सोचे-समझे अपना बसेरा छोड़कर इस तरह तपती दोपहरिया में ऊपर सूरज की आग और नीचे सड़क की गर्मी के बीच पिघलता हुआ वह अब पछता रहा था।
जख्मी पैरों को घसीटते हुए भूखा- प्यासा वह कहां जा रहा है? सैंकड़ों मिल दूर स्थित अपना गांव । पर गांव में भी क्या धरा है? दो रोटी भी मयस्सर नहीं।
भूख मिटाने की कोई जुगत होती अगर गांव में तो वह शहर आता ही क्यों? माना कि कोरोना महामारी में कारखाना बंद हो गया। नौकरी छूट गई और भूखों मरने की नौबत आ गई। तो भाग कर भी क्या मिल रहा? क्या वहां सरकारी व्यवस्था या दानियों द्वारा खाना नहीं मिलता? कोई और नहीं तो अड़ोसी-पड़ोसी भूख से मरने नहीं देते।
धौकता सीना, पीठ से लगा पेट। प्यास से पपड़ी पड़े होठ। उसे लगा जीवन डोर अब टूटने वाला है।
उसने पपड़ी पड़े होठ पर जीभ फेरते हुए सूरज की ओर देखा। सहसा उसकी आँखों के आगे चिंगारियां फूट पड़ीं, सांस ने साथ छोड़ दिया और वह कटे वृक्ष सा सड़क पर गिर कर चेतनाशून्य हो गया।
साथ चल रहे मजदूरों ने देखा। उनके सूखे चेहरे और सूनी आंखें पाषाण में तब्दील हो चुके थे। उनमें किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं हुई। वे आगे बढ़ गए।
उस मजदूर के साथ मानवीय संवेदना की भी मृत्यु हो चुकी थी।
- कृष्ण मनु
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असली कीमत / राहिला आसिफ
उस जबरदस्त भूकंप के शांत होने पर शुभा ने खुद को अपनी नन्ही बिटिया के साथ जाने कितने ही नीचे मलवे में दबा पाया।भाग्य से छत का एक बड़ा सा हिस्सा कुछ ऐसे गिरा कि एक गार सी बन गयी।और चंद सांसे उधार मिल गयी ।दोनों सहमी सी ,आपस में सिमटी हुई मदद की उम्मीद में एक दूसरे का सहारा बनी हुई थीं।लेकिन जब काफी समय गुजर गया और किसी का हाथ मदद के लिए आता नहीं दिखाई पड़ा तो घोर निराशा ,डर और सामने बाहें फैलाये मौत को देख कर आंखों से बेबसी बरस पड़ी । "मम्मा!भूख लगी है।"नन्ही रिया ने उस का ध्यान खींचा। "हां बेटा अभी देती हूँ।"आदतन उसके मुंह से निकल गया।परन्तुअगले ही पल यथार्थ को देख,वह रो पड़ी और रिया को कस कर कलेजे से लगा लिया।तभी उसकी निगाह कोने में पड़े कचड़े के डिब्बे पर पड़ी ,सुबह रसोई में ही तो थी जब ये हादसा हुआ ।याद आया उसने रात का बचा हुआ कुछ खाना डाला था इसमें।लपक कर उसने डिब्बे को खोला ।कुछ रोटियां ही थीं जो खराब नहीं हुई थीं । पूरे दो दिन तक उन बासी रोटीयों का एक -एक निवाला अमृत बन कर रिया को जीवन देता रहा ।अंत में मदद की रोशनी ने जैसे ही उस ज़िंदा कब्र में प्रवेश किया ,तो खुशी से पूरी तरह लस्त और बेहाल शुभा अपनी सारी शक्ति बटोर कर चिल्लाई। "हेल्प...हेल्प..।" और आख़िरकार ज़िन्दगी जीत गयी। "ये कोई कहानी नहीं ,बल्कि मेरी आपबीती है।मैं शर्मिंदा हूँ अन्न के हर उस कण से,जिसको मैंने कचरे के डिब्बे में डाल कर अपमान किया था ।उस एक -एक अन्न के कण की असली कीमत मुझे उस दिन पता चली ।जिसकी बदौलत आज मेरी बच्ची मेरे पास सही सलामत है वरना....!" कहते -कहते हाथ में पकड़ा हुआ रूमाल आँखों की नमी को सोखने लगा । "तो इसलिए आपने इस विशेष कुकिंग क्लासेज की शुरुआत की?" "जी हाँ!तब ही से मैंने सोच लिया था कि किसी भी हालत में बचा हुआ खाना ना फैंकूँगी और ना ही फैंकने दूंगी।बस इसी दिशा में शुरुआत हो गयी बचे खाने से नये-नये व्यंजन बनाने की कुकिंग क्लास की। " एक साक्षात्कार के दौरान शुभा ने पत्रकार से कहा।
- राहिला आसिफ
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यह लघुकथा भी काफी अच्छी है, पढ़िए:
विस्थापन / डॉ. दिलीप बच्चानी
लंच टाइम पर ऑफिस के सभी सहकर्मी एक ही टेबल पर अपने अपने टिफिन लेकर बैठे थे, सामने टीवी पर जोशीमठ से जुड़ी खबरे दिखाई जा रही थी।
कुछ परिवारों को विस्थापित कर दूसरी जगह भेजने की बात चल रही थी तो कुछ मकानों और होटलों को ध्वस्त करने की।
इन खबरों को देख स्वाति कुछ खो सी गई उसकी आँखों मे गीलापन मगसूस किया जा सकता था।
बगल में बैठी सहकर्मी ने स्वाति की ओर देखा।
अरे!स्वाति क्या हुआ तू क्यों उदास हो रही है,तू जोशीमठ में नही गुरुग्राम में है।
स्वाति गला साफ करते हुए बोली,कुछ नही बस बचपन याद आ गया।
हमारा परिवार भी टिहरी गढ़वाल से ऐसे ही विस्थापित किया गया था, अपना सब कुछ पीछे छोड़ कर मुठ्ठीभर सरकारी मदद के सहारे हमे नए शहर में रहने को मजबूर कर दिया गया।
विस्थापन चाहे सामाजिक हो,आर्थिक,हो,राजनीतिक हो या फिर प्राकृतिक होता बहुत ही पीड़ादायक है।
विस्थापन से केवल किसी का एड्रेस नही बदलता बल्कि उसका पूरा सामाजिक तानाबाना और संस्कृति बदल जाती है।
इन जोशीमठ वालो की पीड़ा या मैं महसूस कर सकती हूँ या फिर कौल साहब।स्वाति ने कौल साहब की तरफ इशारा करते हुए कहा इन्होंने भी कश्मीर जैसी स्वर्ग समान धरती को मजबूरन छोड़ा है।
कौल साहब कुछ कह न सके,उन्होंने स्नेह पूर्वक स्वाति के सर पर हाथ फेरा।
सामने की तरफ बैठे ललवाणी साहब की आँखे भी नम हो चली।
उन्हें भी बंटवारे और सिंध से विस्थापन से जुड़ी कहानियां जो उनके दादा जी सुनाते थे याद आ गई थी।
- डॉ. दिलीप बच्चानी
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ये और ऐसी ही अन्य कृतियाँ पाठकों को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं कि व्यक्ति और समाज आपदाओं द्वारा किए गए विनाश से कैसे निपटते हैं।
- चंद्रेश कुमार छ्तलानी
सुन्दर प्रस्तुति
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