सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

मेरी एक लघुकथा राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर | मानव-मूल्य

 

मानव-मूल्य / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।
उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”
चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”
आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।
“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।
चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”
मित्र ने उत्तर दिया,
“ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
उदयपुर (राजस्थान)
9928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com




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