"साहित्य का कर्तव्य केवल ज्ञान देना नहीं है, परंतु एक नया वातावरण प्रदान करना भी है।" अपने इन शब्दों द्वारा डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन क्या कहना चाह रहे हैं यह तो स्पष्ट है, साथ ही इस वाक्य पर थोड़े से मनन के पश्चात् समझ में आता है कि यह पंक्ति एक भाव यह भी रखती है कि साहित्य का कार्य छोटी से बड़ी किसी भी समस्या के ताले की चाबी बनना हो न हो वर्तमान युग के अनुसार एक ऐसा वातावरण तैयार करना है ही, जो हमारे मन-मस्तिष्क के द्वार खटखटाने में सक्षम हो। चूँकि लघुकथा सीमित शब्दों में अपने पाठकों को दीर्घ सन्देश देने में भी सक्षम है, अतः ऐसे वातावरण का निर्माण करने में लघुकथा का दायित्व अन्य गद्य विधाओं से अधिक स्वतः ही हो जाता है।
उपरोक्त कथन को मूर्तिमंत करते लघुकथा के कर्म, चरित्र और मूल वस्तु से परिचय कराता, सुरुचिपूर्ण, सकारात्मक, सार्थक और प्रेरणास्पद लेखन का एक उदाहरण है श्री विजय ‘विभोर’ का लघुकथा संग्रह 'फिर वही पहली रात'। मानवीय चेतना के शुद्ध रूप के दर्शन करने को प्रोत्साहित करती श्री विभोर की लघुकथाएं स्पष्ट सन्देश प्रदान करने में समर्थ हैं। मौजूदा समय का मूलभूत अनिवार्य मंथन भी इन रचनाओं में सहज भावों के माध्यम से परिलक्षित होता है। उदाहरणस्वरूप पति-पत्नी के सम्बन्ध विच्छेद की बढ़ती घटनाओं कम करने का प्रयास करती लघुकथा ‘आदत’, मानवीय प्रेम का सन्देश देती 'कनागत, ‘मजबूरी’, आदि रचनाओं में चेतना जागरण, नैतिक मूल्य, मानवता, नारी-स्वातंत्र्य, सामाजिक दशा, कर्तव्य परायणता और मानवीय उदात्तता जैसे बहुआयामी और समसामयिक विषयों पर लेखक ने बड़ी प्रवीणता-कुशलता से सृजन किया है।
लेखन ऐसा होना चाहिए जो न सिर्फ काल की वर्तमानता को दर्शाये बल्कि आने वाली शताब्दी तक की चुनौतियों पर खरा उतरने वाला हो। आदमीयत की गायब होती परिपूर्णता को शब्दों से उभार सके तथा सच व झूठ के टुकड़ों में बंटे हुए मनुष्य को आत्मिक चेतना तक का अनुभव करवा सके। अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि कुम्भनदास को एक बार अकबर ने फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया था, कुम्भनदास ने उस आमंत्रण को अस्वीकार करते हुए कहा कि "सन्तन को कहा सीकरी सों काम।" सच्चे साहित्यकार संत की तरह होते हैं। ज़्यादातर इतिहासकारों ने शासकों की अयोग्यता को भी जय-जयकार में बदला है लेकिन अधिकतर साहित्यकारों ने नहीं। इस संग्रह की ‘जीवन जीर्णोद्धार’, ‘अन्नदाता’, ‘फैसले’, ‘बदलाव’ जैसी रचनाएँ साहित्यकार के इस धर्म का पालन करती हैं। लेखन सम्बन्धी विसंगतियां उठाती इस संग्रह की 'कुल्हड़ में हुल्लड़' भी एक विचारणीय रचना है।
पुरातन साहित्य में दर्शाया गया है कि वाराणसी के निवासी शौच करने भी 'उस पार' जाते थे। गंगा में नहाते समय अपने कपडे घाट पर निचोड़ते थे, नदी में नहीं। पौराणिक युगीन साहित्य में यह भी कहा गया कि “नमामी गंगे तव पाद पंकजं सुरासुरैर्वदित दिव्यरूपम्। भुक्ति चमुक्ति च ददासि नित्यं भावनसारेण सदानराणाय् ।।“ ऐसे विचार पढ़ने पर यह सोच स्वतः ही जन्म लेती है कि साहित्यकारों के कहे पर यदि देश चलता तो शायद गंगा कभी प्रदूषित होती ही नहीं और विस्तृत सोचें तो केवल जल प्रदूषण ही नहीं, कितनी ही और विडंबनाओं से बचा जा सकता था। प्रस्तुत संग्रह में भी 'बस ख्याल रखना', 'मेला', ‘निजात’, ‘प्रश्न’ जैसी रचनाएं साहित्यकारों की स्थिति दर्शा रही हैं, जो एक महत्वपूर्ण विषय है।
लघुकथा के बारे में एक मत है कि यह तुरत-फुरत पढ़ सकने वाली विधा है। लेकिन जिसका सृजन विपुल समय लेता है, उसे अल्प समय में पढ़ने के बाद पाठकगण हृदयंगम कर अपना महती समय चिंतन में खर्च न करें तो मेरे अनुसार हो सकता है कि वह रचना प्रभावी शिल्प की हो, लेकिन उद्देश्य पूर्णता की दृष्टि से अप्रभावी ही है। ‘फिर वही पहली रात’ की रचनाएं इस दृष्टि से निराश नहीं करतीं, वरन कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जो नव-विचार उत्पन्न करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं के कथानक समसामयिक हैं, सहज ग्राह्य एवं ओजस्वी भाषा शैली है। शीर्षक से लेकर अंतिम पंक्ति तक में लेखक का अटूट परिश्रम झलकता है।
समग्रतः, प्रभावशाली मानवीय संवेदनाओं, उन्नत चिन्तन, आवश्यक सारभूत विषयों को आत्मसात करती जीवंत लघुकथाओं से परिपूर्ण विजय 'विभोर' जी की विवेकी, गूढ़ और प्रबुद्ध सोच का प्रतिफल यह संग्रह पठनीय-संग्रहणीय सिद्ध होगा। बहुत-बहुत बधाइयां व मंगल कामनाएं।
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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