रचनाकाल- 1975 - 1980 के आसपास
लघुकथा: सद्भाव / डॉ. सतीश राज पुष्करणा
आधुनिक विचारों की मीता की शादी हुई तो उसने न तो सिन्दूर लगाया और न ही साड़ी, सलवार-कमीज आदि पहनना स्वीकार किया| वह कुँवारेपन की तरह जीन्स एवं टी-शर्ट ही पहनती|
ससुराल में सभी उसे अजीब नजरों से देखते| मोहल्ले टोले में उसका सिन्दूर न लगाना और उसका जीन्स एवं टी-शर्ट पहनना, चर्चा का विषय बन गया| मीता सुनती किन्तु उसे कभी किसी की भी परवाह नहीं थी| वह कुँवारेपन की तरह ही समय परोफ्फिस जाती और समय पर घर लौट आती|
एक दिन वह आई और सीधे पलंग पर लेट गयी | सास ने बहुत वात्सल्य भाव से पुछा,"क्या बात है बेटे? क्या तबियत खराब है?"
"हाँ ! कुछ बुखार-सा लग रहा है...सिर आदि में भी बहुत दर्द है|"
सास अभी उसकी तबियत के बारे में समझ ही रही थी कि उसके ससुर डॉक्टर ले आये|"
डॉक्टर ने ठीक से देखा और दावा लिख कर चले गए|
ऑफिस से लौटकर सत्यम अभी घर में प्रवेश कर ही रहा थे कि डॉक्टर को घर से निकलते देख सत्यम परेशान हो गया| उसने साथ चल रहे पिता से पूछा, "क्या हुआ? किसकी तबियत खराब है?"
"मीता की... चिंता की कोई बात नहीं|"
इतना सुनते ही सत्यम लपककर मीता के पास पहुँचा, “क्या हुआ मीते?” चिंता की रेखाएँ सत्यम के चेहरे पर स्पष्ट थीं, जिन्हें मीता ने पढ़ लिया|
सत्यम तुरंत पिटा की ओर बढ़ा, “ पापा! प्रेसक्रिप्शन कहाँ है? दीजिये मैं दवाएँ ले आता हूँ|”
“बेटा! मैं जब जा ही रहा हूँ तो तू क्यों परेशान होता है?”
“नहीं पापा! आप लोग मीता को देखें... ,मैं दवा लेकर आता हूँ|” यह कहकर वह बाईक पर स्वर हुआ और बाज़ार की ओर बढ़ गया|”
मीता सोचने लगी! अरे यह कैसा परिवार है ज़रा-सा बुखार होने पर सबने जमीन-आस्मां एक कर दिया| इतना प्यार मुझसे... ख़ुशी से उसकी आँखें छलछला आयीं|
आँखों में पानी देखकर सास ने कहा, “बेटे! तू चिंता न कर, तू जल्दी ठीक हो जायेगी| ले ! तब तक तू चाय पी ले...सत्यम दवा लेकर आता ही होगा|”
“माँ-जी ! मुझे हुआ ही क्या है? ... बुखार एकाध दिन में उतर जायेगा|”
“हिल नहीं बेटा! चुपचाप आराम से पड़ी रहो|”
मीता कुछ नहीं बोली| सत्यम दवाएँ ले आया... जिन्हें खाकर वह सो गयी| दो-तीन दिन बाद जब वह तैयार होकर ऑफिस जाने लगी तो सबके आश्चर्य की सीमा न रही| आज उसकी माँग में सिन्दूर भी था और बदन साड़ी और ब्लाउज से भी ढका था| सास-ससुर के चरण-स्पर्श करके बहु ऑफिस जाने हेतु अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गयी|
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समीक्षा / कल्पना भट्ट
समीक्षा / कल्पना भट्ट
जनरेशन गैप की बात हो चाहे आधुनिकता की, पश्च्यात संस्कृति हावी होती दिखाई पड़ती है, आधुनिकता को लेकर लोगों की अपनी अपनी समझ है, जिसपर वह अमल करते है, समय बदलता है, काल बदलता है, तभी प्रगति संभव होती है, प्रगतिशील होना यह एक स्वाभाविक गुण है, आधुनिकता को लेकर हर इन्सान की अपनी सोच और अपना विवेक होता है| आधुनिक होना बुरा नहीं, पर आधुनिकता के लिए जिद करना कहाँ तक उचित होता है, इसी विषय को लेकर डॉ सतीशराज पुष्करणा जी इस विषय को लेकर अपनी कुशल कलम का परिचय एक बार और दिया है| आप बहुत ही सहजता से गूढ़ बात को कह देते हैं, यह सिर्फ एक वरिष्ठ और तजुर्बेकार व्यक्ति ही कर सकता है|
‘सद्भाव’ एक ऐसी ही आधुनिक लड़की पर आधारित लघुकथा है : ‘ आधुनिक विचारों की मीता की शादी हुई तो उसने न तो सिन्दूर लगाया और न ही साड़ी, सलवार- कमीज़ आदि पहनना स्वीकार नहीं किया वह कुंवारेपन की तरह जीन्स एवं टी-शर्ट ही पहनती|
इससे साफ़ झलक रहा है कि मीता से ससुराल वालों ने साड़ी पहनने को कहा गया होगा, पर उसने उनकी बातों को नज़रंदाज़ कर दिया, मीता ऑफिस जाती है, परिवार में किसीको कोई परेशानी नहीं हो रही उसकी नौकरी करने के निर्णय से, परिवार की सोच आधुनिक प्रतीत हो रही है, विकासशील सोच है|
‘एक दिन वह आयी और सीधे पलंग पर लेट गयी| सास ने बहुत वात्सल्य भाव से पूछा, “ क्या बात है? क्या तबियत ख़राब है?”
मीता अपने ससुराल वालों की बातों को नहीं मानती पर उसकी सास का वात्सल्य भाव उनकी उदारता दर्शा रहा है, सास और बहु का रिश्ता ज्यादातर नकारत्मक दृष्टि से देखा जाता है पर इस लघुकथा के माध्यम से रचनाकार ने इस रिश्ते को सकारत्मक दिखा कर एक समाज में आ रहे बदलाव को दिखाया है और आपसी रिश्तों में बढ़ रही दूरियों को करीब लाने का प्रयास किया है, लघुकथा के लिए यह कहा गया है कि यह विधा या तो मनो-उत्थान के लिए लिखी जाती है या समाज-उत्थान के लिए, इस लघुकथा में सास की उदारता दोनों की मकसद को पूरा करने में सफल हो रही है, एक तरफ से मीता को अपने बर्ताव और सोच पर पुनः विचार करने पर प्रेरित कर रहा है, वहीँ समाज में सास-बहु के रिश्ते को नकारत्मक सोच को एक सकारात्मक दिशा प्रदान कर रही है|
“हाँ, बुखार सा लग रहा है... सिर आदि में भी बहुत दर्द है|” मीता को बुखार आ रहा है सुनकर उसकी सास उसको आराम करने की सलाह देती है और अपने पति से डॉक्टर को बुलाने को कहती हैं, मीता के ससुरजी पहले ही डॉक्टर को लेने चले जाते है, डॉक्टर मीता की जांच करते है और दवाई लिख कर देते है, ससुरजी बाज़ार जाकर दवाई लाने के घर से बाहर जाने के लिए खड़े होते है, यहाँ एक और परंपरा टूटती नज़र आती है, समाज में एक प्रचलन है, बहु और बेटी में फर्क किया जाता रहा है, इससे विपरीत यहाँ मीता ( नायिका) के सास-ससुर अपनी बहु की सेवा में लगे हुए हैं| इस बीच सत्यम, मीता का पति ऑफिस से घर आ जाता है और अपने पिता से कहता है, “ आप दोनों मीता के पास रहे और प्रिस्क्रिप्शन मुझे दे दीजिये , दवाई मैं लेकर आता हूँ| “ और वह अपनी बाईक पर बैठकर बाज़ार चला जाता है|
पति सत्यम को अपने माता-पिता के प्रति आदर और अपनी पत्नी के प्रति प्रेम, उसके कर्त्तव्य को निभाने में वह कहीं भी चूकता नहीं है| दवाई खाकर मीता सो जाती है, इस बीच पलंग पर लेटे हुए उसको अपनी गलती का एहसास होता है, जब वह अपने सास- ससुर को अपने लिए खड़े पाँव देखती है, और उनके बड़प्पन पर वह नतमस्तक हो जाती है, सिर्फ बुखार ही तो है, पर इस दौरान भी यह मेरी कितनी सेवा कर रहें हैं| दो-तीन दिन के बाद जब वह ठीक हो जाती है, वह साडी में आती है, और माथे पर सिन्दूर लगा लेती है, यह देख उसके घरवालों को ख़ुशी होती है और कहते हैं न सुबह का भूला ‘गर शाम को घर लौट आये तो उसको भूला नहीं कहते| बिकुल ऐसा ही तो मीता के साथ हुआ, आधुनिकता के लिए जो उसकी जो गलत सोच थी उसपर से काला पर्दा हट जाता है और वह अपने कर्तव्यों को और परम्पराओं के बीच बैलेंस करना सीख जाती है|
‘सद्भावना’ शीर्षक इस लघुकथा के लिए सार्थक सिद्ध हो रहा है, इस लघुकथा में संवाद, रचना को सहज और सजीव बना रहे हैं, कथानक और भाषा शैली दोनों ही बहुत सुंदर और सक्षम सिद्ध हो रहे हैं, इस लघुकथा में कुछ दिनों में घटित घटनाक्रम है जो कालखंड के होने का संशय पैदा कर रही है, पर कथा की मांग के चलते इसको गर नज़रंदाज़ कर दिया जाए तो यह लघुकथा एक सार्थक और सकारत्मक सन्देश देने में सफल रही है | समाज में बुराई और अच्छाई दोनों ही देखने को मिलती है, बस देखने का दृष्टिकोण बदलने से घर परिवार में सुख-शांति लायी जा सकती है| इस सुंदर और सार्थक रचना के लिए डॉ सतीशराज पुष्करणा जी को हार्दिक बधाई|
धन्यवाद
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