लघुकथा के विकासक्रम में ‘लघुकथा कलश’ का चौथा महत्वपूर्ण कदम, ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ अंगद के पैर की भाँति लघुकथा पटल पर जमता दिख रहा है। नजर भी साफ और पक्ष भी निर्विवाद है। लघुकथा जगत में इस पत्रिका की विशिष्ट स्थिति के ठोस कारण भी हैं।
किसी भी बड़े पत्र या पत्रिका में संपादकीय वास्तव में ‘मेरी बात’ के साथ ही पाठकों के लिए सीख भी होती है। योगराज प्रभाकर के संपादकीय में भी कुछ नई, सटीक बातें होती ही हैं, जिन्हें पाठक अपने नजरिए से देखते हैं। इस बार के संपादकीय में गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया के तीन पड़ावों का उल्लेख गागर में सागर के समान है। संपादक की यह बात- “पिछले कुछ समय से लघुकथा विधा के कुछ विद्वानों के बीच किसी-न-किसी मुद्दे को लेकर, चर्चा के नाम पर बहस मिल रही है। हालाँकि ऐसी चर्चाओं का विधा के प्रचार-प्रसार से दूर-दूर तक संबंध नहीं होता। अक्सर ऐसी हर चर्चा मात्र बतकूचन तथा पर्सनल स्कोर सेटल करने की कयावद मात्र बनकर रह जाती है...” सत्य के साथ कड़वी दवाई भी है, जिस पर रचनाकार मित्रों को गंभीरता से विचार करना चाहिए।
बहरहाल, किसी खास अंक की प्रस्तुति में सामग्री का वर्गीकरण भी अंक को बेहतर बनाता है। लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक में भी संपादकीय के बाद, विशिष्ट लघुकथाकार और उनकी रचना प्रक्रिया, लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रियाएँ, नेपाली लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रियाएँ, पुस्तक समीक्षा, समीक्षा-सत्र होने का मतलब है, एक परिपूर्ण पत्रिका का विचारशील संयोजन। यह अंक लघुकथाकारों, पाठकों (समीक्षकों भी) को सम्मानपूर्वक छप्पन भोग के रूप में मिला है। स्वाभाविक तौर पर सभी रचनाकारों ने चूल्हे पर कड़ाही रखकर ही भोग बनाया है, पर सबकी बनाने की विधि कुछ-कुछ अलग है। इसीलिए इनका स्वाद भी विविधतापूर्ण है, जो पत्रिका की एक बड़ी खूबी है।
सभी व्यंजन, सभी पाठकों को प्रिय लगें, संभव नहीं है, पर खाने योग्य तो जरूर लगेंगे। लघुकथाकारों को अपनी लघुकथाओं की रचना प्रक्रिया बताते हुए जो खुशी हुई होगी, पाठकों को भी उस प्रक्रिया को जानकर अच्छा ही लगा है। इस अंक में शामिल चर्चित लघुकथाकारों की लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रियाएँ तो विशिष्ट हैं ही, अन्य काफी लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया भी प्रभावित करती हैं। रचना प्रक्रिया महाविशेषांक की बहुत-सी लघुकथाएँ ऐसी हैं कि पाठक और समीक्षक को कथ्य पसंद आएगा या शैली, या फिर कथ्य और शैली में नवीनता मिलेगी। ऐसी कई लघुकथाएँ हैं जिनके कथ्य और शिल्प दोनों दमदार हैं, इसलिए इनका स्वाद और सुगंध भी अलहदा है। कुछ नाम बताना तो ईमानदारी ही होगी- इनमें सुकेश साहनी की ‘स्कूल’, ‘विजेता’, माधव नागदा की ‘कुणसी बात बताऊँ’, शील कौशिक की ‘छूटा हुआ सामान’, रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’, बलराम अग्रवाल की ‘गोभोजन कथा’, प्रबोध कुमार गोविल की ‘माँ’, अशोक भाटिया की ‘तीसरा चित्र’, योगराज प्रभाकर की ‘तापमान’, कल्पना भट्ट की ‘रेल की पटरियाँ’, लता अग्रवाल की ‘मुहावरा जीवन का’, रवि प्रभाकर की ‘कुकनूस’... लिस्ट आगे भी बन सकती है। नेपाली लघुकथाओं में भी कुछ अत्यंत प्रभावी हैं, जिनमें प्रमुख हैं- खेमराज पोखरेल की, ‘जन्मदाता’, राजन सिलवाल की, ‘चंद्रहार’। ‘आजादी’, ‘इंसान की औलाद’ आदि भी अच्छी लघुकथाएँ हैं।
हिंदी लघुकथाओं से इतर, लघुकथा कलश के संपादकों का सीमावर्ती प्रांत पंजाब की लघुकथाओं से परिचित कराने का प्रयास भी उल्लेखनीय है। संपादक महोदय ने खुद अनुवाद कला का बखूबी उपयोग करते हुए कुछ लघुकथाओं का सार्थक अनुवाद किया है। विशिष्ट लघुकथाकार हरभजन खेमकरणी, ‘चिकना घड़ा’, सरनेम के चक्कर में फँसता आदमी, ‘बहाना’, गेहूँ के साथ घुन पिसता है। ‘पहला कदम’, सतर्क हक के लिए पत्नी दृढ़ता पर न उतर जाए, पति को पहले समझना चाहिए। ‘जागती आँखों का सपना’, सपनों को साकार करने की इच्छाशक्ति दर्शाती सार्थक लघुकथा है। हरजीत राणा की लघुकथा ‘हवस’ बताती है कि आदमी किस कदर होश खो बैठता है, खासतौर पर पैसे और पद का पावर हो तो।
समीक्षा खंड के समीक्षकों ने लघुकथाकारों के दृष्टिकोण पर लघुकथाओं के माध्यम से दृष्टिपात किया है और लघुकथाकारों के विचारों की अपने विचारों के माध्यम से समीक्षा करते हुए तार्किकता पूर्ण ढंग से समालोचन किया है।
संभव है कि कुछ लघुकथाएँ नजर या समझ की चूक से समीक्षा में नहीं आ पाई होंगी। इतनी बड़ी और विस्तारित पत्रिका में कुछेक जगह प्रूफ की चूकें हैं। कहीं-कहीं लघुकथाकार की रचना प्रक्रिया कुछ लंबी है, जिसे वह अपनी लघुकथा के समान ही लघु और सुगठित कर सकता था। पर्याप्त गुणवत्ता और खूबियाँ होने के बावजूद लघुकथा कलश के रचना प्रक्रिया महाविशेषांक को सौ में से पूरे सौ अंक जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ। इसके पीछे लघुकथा कलश की उत्तरोत्तर प्रगति की कामना है। इसके कदम लगातार बढ़ते रहें, आगे और चढ़ाई है। लघुकथा कलश अच्छे से और अच्छा, बहुत अच्छा हो इसी कामना के साथ मेरिट के अंक प्रदान कर रहा हूँ।
लघुकथा के सागर में खिलता पुष्प रूपी ‘लघुकथा कलश’ रचना प्रक्रिया महाविशेषांक अपने सौंदर्य, सुवास और उपयोगिता से स्थायी जगह बनाने में सफल होगा, ऐसा मुझे विश्वास है। कुल तीन सौ साठ पृष्ठों में एक सौ उन्तालीस लघुकथाकारों की कुल दो सौ बाईस लघुकथाओं और उनकी रचना प्रक्रियाओं को समेटे यह अंक पिछले अंकों से एक कदम आगे, उल्लेखनीय और संग्रहणीय है। जाहिर है, बेजोड़ होने के चलते लघुकथा कलश के हर नए अंक के सामने अपने ही पिछले अंकों के मुकाबले बेहतर होने की चुनौती होती है, जिस पर यह चौथा महाविशेषांक खरा उतरा है।
- बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’
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