मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

पुस्तक समीक्षा | आस-पास से गुजरते हुए | खेमकरण 'सोमन'


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लघुकथा-संकलन: आस-पास से गुजरते हुए:
संपादक: सुश्री ज्योत्स्ना 'कपिल' एवं डॉ. उपमा शर्मा
समीक्षक: खेमकरण 'सोमन'

सहजता  एवं गंभीरतापूर्वक कुछ सोचना और उसे जमीनी आकार देना, निस्संदेह बहुत कठिन कार्य है।
यही अनुभूति व्यक्ति को पुनः सहज, गम्भीर और कर्तव्यनिष्ठ बनाती है।

चूंकि विमर्श मुझे साहित्य पर करना है, और साहित्य में भी विशेषकर लघुकथा विधा पर! अतः लघुकथा के संदर्भ में विमर्श को आगे बढ़ाऊँ तो... यही सहजता, गंभीरता और पारखी दृष्टि मुझे सुकेश साहनी, मधुदीप, बलराम, बलराम अग्रवाल, डॉ. सतीश दुबे, भगीरथ, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, डॉ.अशोक भाटिया, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, कमलेश भारतीय, डॉ. उमेश महादोषी और कमल चोपड़ा इत्यादि मुख्यधारा के अन्य लघुकथा लेखकों में दिखती हैं।

इनके अतिरिक्त लघुकथा-वृत पर सैकड़ों लघुकथा लेखिकाओं का उभार भी गौरवान्वित प्रदान करता हैं! यह सुखद प्रतीति है कि वर्तमान में एक साथ सैकड़ों लेखिकाएँ लघुकथा लिख रही हैं। और...अपनी आलोचना से बेपरवाह, बेफिक्र और निश्चिंत होकर लिख रही हैं। यद्यपि कुछ, विशेषकर नए लघुकथा लेखक-लेखिकाएँ तो अपनी आलोचना से भयभीत व चिंतित भी हो उठते हैं तथापि वे लिख रहे हैं। उन्हें यह मिथक तोड़ना ही होगा कि आलोचना उनके लिए घातक है अथवा उनकी शत्रु है।

बहरहाल लघुकथा लेखन में स्त्री दृष्टि की निरंतर सक्रियता अत्यधिक सुखद है। वे लघुकथा लेखन के साथ कुशलतापूर्वक संपादन-कार्य भी कर रही हैं।कांता राय इसी प्रकार की डायनेमिक लघुकथा लेखिका हैं और संपादक भी। लघुकथा के उन्नयन हेतु उनमें सहजता, शालीनता, गंभीरता और उन्मुक्त उड़ान आदि सब कुछ का समावेश हैं।

उपरोक्त यही सब कुछ मुझे युवा लघुकथा लेखिका ज्योत्स्ना 'कपिल' और डॉ. उपमा शर्मा के लिए लगा, जब उनके संपादन में लघुकथा-संकलन 'आसपास से गुजरते हुए' मेरे हाथों में आया।

लघुकथा-संकलन को पढ़ते हुए लगा कि जब एक सौ चौबीस लेखक एक साथ आस-पास से गुजरेंगे तो 'आसपास से गुजरते हुए' वे बहुत कुछ ऐसा अवश्य ही रेखांकित करेंगे, जिसे सामान्यजन जीवनपर्यंत भी रेखांकित नहीं कर पाते।

इस संदर्भ में लघुकथा लेखकों ने निस्संदेह बड़ी सीमा तक सफलता भी प्राप्त की हैं। लघुकथाओं से गुजरते हुए विभिन्न आस्वाद की इन लघुकथाओं ने मेरा मनोरंजन ही नहीं किया अपितु मुझ अबोध को बहुत गहरे तक बोधित भी किया। तो साहित्य का यह कार्य भी है कि वह मनोरंजन के साथ-साथ पाठकों को बोधित भी करता है।

बोधित होने के पश्चात मैंने सोचा कि समय बदलने के साथ मध्यम वर्ग के लिए अब बासी खाने की महत्ता भी बदल गई है, लेकिन यह वर्ग भलीभांति जानता है कि निम्न वर्ग के लिए बासी खाने की महत्ता अभी भी वही है। इसके उदाहरण के रूप में अंजलि गुप्ता की लघुकथा 'उत्तर' प्रस्तुत है। उत्तर जैसा सामान्य शीर्षक छोड़ दिया जाए तो अंजलि गुप्ता अपने दोनों बाल पात्रों स्वीटी, मोहन और डिश कस्टर्ड (दूध,अंडा और चीनी मिलाकर बनी मीठी पीली खीर) के माध्यम से अपनी प्रस्तुति देने में पूर्णतः सफल हुई हैं।

लघुकथा-संकलन को पढ़ते हुए मुझे अमरीकी मनोवैज्ञानिक और शिक्षक स्टैनली हॉल की भी याद आई। उन्होंने किशोरों के विषय में कहा है कि किशोरावस्था बहुत द्वंदयुक्त, तनावयुक्त और संघर्षयुक्त होता है। ऐसे समय में घर में यदि किशोर है तो उसका विशेष ध्यान रखा जाए। दीपक मशाल की लघुकथा 'सयाना होने के दौरान' इसी द्वंद को बहुत व्यावहारिक रूप प्रदान करती है।

जब दीपक मशाल की चर्चा आ गई है तो यह चर्चा भी कर दी जाए कि वे भी बहुत सहजता और गंभीरता से लिखने वाले सदाबहार लघुकथाकार हैं। मुझे इसलिए भी मशाल की लघुकथाएँ बहुत पसंद हैं।

लघुकथा-संकलन 'आसपास से गुजरते हुए' की भूमिका 'संरचना' के सम्पादक डॉ. कमल चोपड़ा ने और लिखी है और फ्लैप रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ने। दोनों के संदर्भ में मुझे यही कहना है कि दोनों लघुकथाकार, समकालीन लघुकथा के परिदृश्य पर निरंतर सक्रिय हैं; और दोनों ने हिंदी लघुकथा को बेहतरीन लघुकथाएँ भी दी हैं।

ऐसे में नवोदित लघुकथा लेखकों की 124 लघुकथाओं की पोटली इनके पास ले जाने का व्यावहारिक प्रयास और साहस, संपादक द्वय ज्योत्स्ना 'कपिल' और डॉ. उपमा शर्मा को बधाई और शुभकामनाएँ देने के लिए बाध्य करते हैं। दोनों लघुकथाकारों ने भूमिका और फ्लैप पर जो भी लिखा, उनसे भी सहमत हुआ जा सकता है।

इसलिए भी वरिष्ठ लघुकथा लेखकों का हाथ और साथ गरिमापूर्ण स्थिति के निर्वहन तक नवोदितों के लिए बहुत आवश्यक है। ऐसा कहने के पीछे लघुकथा संबंधी मेरे कई आयाम हैं। तभी स्तरीय लघुकथा प्रकाशित होंगी और आलोचना पक्ष भी अपने पैरों पर खड़ा हो सकेगा। नए लेखक क्या-क्या लिख रहे हैं या पहल कर रहे हैं... ये सब पुराने लेखकों को भी ज्ञात-व्यात होता रहेगा।

फिलवक्त वैश्वीकरण के कारण साँस्कृतिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया भी बहुत तीव्र हुई है। बहुत सारे क्षेत्रीय तीज-त्योहारों ने ध्यान आकर्षित किया है। संभवतः इसलिए भी ये सब लघुकथा की विषयवस्तु बन रहे हैं। इस क्रम में विरेंदर 'वीर' मेहता की लघुकथा 'मोह-जाल' लोक आस्था का महापर्व छठ पर केंद्रित है। यह बहुत अच्छी लघुकथा है। काश...वे इसके शीर्षक और पात्रों के नाम पर कुछ और चिंतन-मनन कर पाते! क्योंकि लघुकथा में जब तक बिप्ति, बन्नू, पन्नू, चुन्नू और मुन्नू आदि नाम के पात्र परिदृश्य पर रहेंगे, लघुकथा जगत को कालजयी पात्र मिलने से रहे। लघुकथा लेखक यदि गंभीरता से सोचें तो वे पाएँगे कि लघुकथा की प्रवृत्ति स्वयं ही बता देती है कि उसे किस-किस प्रकार के पात्र चाहिए।

फिर दूसरा यह कि या तो लघुकथा लेखक अपना प्रस्तुतीकरण ऐसा दें कि उपरोक्त पात्रगत संबंधी विचार मुझ सहित किसी अन्य के मन में कदापि उत्पन्न न हों।

इस लघुकथा-संकलन की अधिकांश सम्भावनाएँ मुझे यदा-कदा कई लघुकथा संकलन या विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में दिखती रही हैं। इनमें विभा रश्मि, नीलिमा शर्मा, कुणाल शर्मा, मार्टिन जॉन, रवि प्रभाकर, डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, शोभा रस्तोगी,अर्चना तिवारी, डॉ. संध्या तिवारी, मुन्नूलाल और त्रिलोक सिंह ठकुरेला, दीपक मशाल, मुन्नूलाल, डॉ. लवकेश दत्त और कांता राय को तो निरंतर पढ़ता रहा हूँ।

इनके अतिरिक्त दूसरे कई नए लघुकथा लेखकों को पढ़कर भी मैं बहुत-बहुत अनुभूत हुआ कि इन्होंने भी लघुकथा की नसें लगभग पकड़ ही ली हैं।
इनमें नयना आरती कानिटकर की लघुकथा 'उमड़ते आँसू',
नरेंद्र सिंह 'आरव' की लघुकथा 'फ़र्ज',
डॉ. विनीता राहुरिकर की 'दोषी',
रश्मि तरीका की खूबसूरत प्रस्तुति 'घाव',
सुषमा गुप्ता की लघुकथा 'वर्तमान का दंश',
किरण पांचाल की लघुकथा 'हिस्सा',
कमल नारायण मेहरोत्रा की लघुकथा 'दृढ़ निश्चय',
संजीव आहूजा की लघुकथा 'झूठी खुशियाँ',
शब्द मसीहा की लघुकथा 'इंसानी बीमारी',
रेखा मोहन की लघुकथा 'कसूरवार' उल्लेखनीय हैं।

विदित हो कि 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में आतंकी हमले से सेना के 45 से अधिक जवान शहीद हो गए। इस प्रकार यह क्षण तब से ही सम्पूर्ण देश के लिए बहुत दुखदायी है। शहीद सैनिकों के परिवार पर क्या बीत रही होगी? सोचता हूँ तो आंतरिक बेचैनी से भर उठता हूँ। इस संदर्भ में भारती सिंह की लघुकथा 'तीज' बहुत प्रासंगिक और विचारणीय है। लघुकथा का शिल्प भी प्रशंसनीय है।

इस संकलन में 'लघुकथा कलश' के सम्पादक योगराज प्रभाकर की लघुकथा भी है। यकीनन... वे लघुकथा की सम्पूर्ण और बहुत भारी-भरकम पत्रिका निकालकर कमाल किए जा रहे हैं। परंतु नवोदितों के बीच में उन्हें देखकर कुछ-कुछ विस्मय से भर उठा मैं, बहरहाल... उनकी लघुकथा 'पेट' गरीबी, विद्रूपता और इससे उपजी समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं। पेट और सम्मान की चिंता सबको है। अच्छा होता समग्र आधुनिक मानव समाज इस मनोवैज्ञानिक को समझ पाता।

संपादक द्वय में एक डॉ. उपमा शर्मा प्रमुखतः दंत चिकित्सक है, परंतु दंत चिकित्सक होने के उपरांत भी यह प्रीतिकर है कि वे निरंतर लिख रही हैं।
इस लघुकथा-संकलन का हिस्सा बनी उनकी लघुकथा 'हिजड़ा' मुख्यतः थर्ड जेंडर/ ट्रांसजेंडर पर आधारित नहीं है। अपितु जब व्यक्ति सक्षम होकर भी अपनी अक्षमता का परिचय दे तो बहुधा वही कहा जाता है जो उपमा शर्मा की लघुकथा का शीर्षक है।
भारतीय समाज में यह शब्द गाली के रूप में भी बहुधा उपयोग किया जाता रहा है। आत्मकथा शैली में लिखी गई डॉ. उपमा की यह लघुकथा काम-पिपासुओं द्वारा एक पागल लड़की के शिकार बनाने की पृष्ठभूमि पर आधारित है, और नायक 'मैं' उसे न बचा पाने के अपराधबोध और द्वंद्व में स्वयं को धिक्कारता पाता है। लघुकथा का शीर्षक सांकेतिक हैं।

समाज में कामगार स्त्रियों की स्थिति सदैव चिंतनीय रही है। यद्यपि इसमें कोई संशय नहीं कि मुक्त अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप सामाजिक-साँस्कृतिक परिवर्तन की गति तीव्र हुई है और स्त्रियों की आजादी में विस्तार भी, परंतु स्त्रियाँ घर, परिवार अथवा कार्यस्थल जहाँ भी हैं, वहाँ अभी भी सुरक्षित नहीं।
ज्योत्स्ना 'कपिल' की 'कब तक' इसी विमर्श को ऊँचाई प्रदान करती बहुत कसी हुई स्तरीय लघुकथा है।
यह लघुकथा पाठकों, सहृदयों और लेखकों, लघुकथाकारों और निष्ठुर समाज से यह अपेक्षा रखती है कि स्त्री को शारीरिक/मांसल/ देह की अपेक्षा उन्हें जीवविज्ञान एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए। उन्हें इनसानी जीव माना जाए।
परंतु ऐसा न होने के कारण लघुकथा नायिका आशिमा, जो कि नर्स है, जिला अस्पताल के डॉक्टरों द्वारा फ्लर्ट, डबल मीनिंग वाले मजाक से इसलिए भी चिंतित रहती है। लघुकथा में भाषाई ताजगी और संवेदना, दोनों निहित हैं।

इस प्रकार ज्योत्स्ना 'कपिल' की लघुकथा यथार्थ की कई परतों को उघाड़ती है। लघुकथा का शिल्प, पूर्णतः लघुकथा का है, लेकिन मुझे प्रतीत होता रहा कि लघुकथा का परंपरागत शीर्षक लघुकथा के साथ अन्याय कर रहा है।

इस तरह 'आसपास से गुजरते हुए' अच्छा लघुकथा- संकलन बन पड़ा है। इसमें ऐसे कई लघुकथा लेखक और लघुकथाएँ हैं जिनका उल्लेख मैं चाहकर भी नहीं कर पाया। इसका कारण यह है कि एक तो संकलन में लघुकथाएँ अत्यधिक हैं, दूसरा यह कि मुझमें वह आलोचना कौशल नहीं, अतः सबको एकसूत्र में पिरोना अभी सीख नहीं पाया हूँ।

और अंत में यह कि लघुकथा-संकलन के फ्लैप पर रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के लिखे शब्दों में कहूँ तो "ज्योत्स्ना 'कपिल' और डॉ. उपमा शर्मा ने संपादन का यह श्रमसाध्य कार्य ईमानदारी से पूरा किया है।" अयन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित इस संकलन के लिए संपादक द्वय को पुनः बधाई।

(स्त्री विमर्शकार, आलोचक, कवयित्री, कथाकार और 'कथादेश' की परम सहयोगी अर्चना वर्मा जी अब हमारे बीच नहीं हैं। हिंदी समाज-साहित्य की यह बहुत बड़ी क्षति है। उन्हें नमन।)

संपर्क:-
द्वारा श्री बुलकी साहनी, प्रथम कुंज, अम्बिका विहार, ग्राम व पोस्ट-भूरारानी, रुद्रपुर, जिला- उधम सिंह नगर, उत्तराखंड-263153

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (20-02-2019) को "पाकिस्तान की ठुकाई करो" (चर्चा अंक-3253) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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