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गुरुवार, 19 मई 2022

संवेदना जागृत करती लघुकथाओं का संग्रह ‘छूटा हुआ सामान’: लेखिका डॉ.शील कौशिक | समीक्षक: कल्पना भट्ट



 पुस्तक का नाम: छूटा हुआ सामान (लघुकथा संग्रह) 

लेखिका: डॉ.शील कौशिक 

प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला, पंजाब-१४७००१

प्रथम संस्करण: २०२१

मूल्य: २५० रुपये 




संवेदना जागृत करती लघुकथाओं का संग्रह ‘छूटा हुआ सामान’: लेखिका डॉ.शील कौशिक 

हिन्दी-लघुकथा के क्षेत्र में डॉ.शील कौशिक को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है | हिन्दी-साहित्य जगत् में आपकी कुल ३२ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिसमें से २२ मौलिक, ६ सम्पादित, ३ अनुदित एवं आप पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई हैं| ‘छूटा हुआ सामान’ आपका चौथा लघुकथा-संग्रह है जिसमें कुल ७४ लघुकथाएँ संगृहीत हुई हैं| 

प्रस्तुत संग्रह में अधिकाँश लघुकथाएँ संवेदना जागृत करती हुई हैं| इस संग्रह में आपने विभिन्न विषयों पर कलम चलाई है जिसमें से सेवानिवृति, किन्नर, पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित लघुकथाओं के साथ-साथ मालिक एवं नौकर, पडोसी प्रेम पर आधारित, दोस्ती पर आधारित, बाल-मन पर केन्द्रित लघुकथाएँ, संवेदना जागृत करती हुई लघुकथाएँ, इत्यादि विषय शामिल हैं| 

सर्वप्रथम संवेदना जागृत करती हुई लघुकथाओं की चर्चा करें तो इस शीर्षक के अंतर्गत, ‘जाति के पार’,’माँ का मरना’,’छूटा हुआ सामान’, ‘बोल न मुन्ना’ इत्यादि लघुकथाएँ हैं जिसमें से ‘छूटा हुआ सामान’ इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा है जिसका विषय लिक से हटकर है| इस लघुकथा में एक बेटी तनुजा विवाह के उपरान्त पहली बार मायके आती है और वह हर उस जगह जाती है जहाँ-जहाँ विवाह के पहले जाया करती थी और बाज़ार से वो सामान खरीदती है जिसको वह खरीदा करती थी| तनुजा की माँ उसको अपना सामान समेट ने को कहती है परन्तु तनुजा बार-बार घर के बाहर चली जाती है जिसपर उसकी माँ उसको डाँट कर कहती है, “तेरे पाँव में टिकाव न है, यहाँ-वहाँ उड़ती फिर रही है छोरी|” 

फिर उसके मासूम से चेहरे को देखकर माँ की आँखे नम हो जाती हैं व् भर्राए स्वर में कहती हैं, “कितनी बार कहा है तुझे, अपना सामान समेट ले बेटा|”

इसपर तनुजा यह कहते हुए, “माँ सुबह से छूटा हुआ सामान ही तो बटोर रही हूँ|” फफक-फफककर रो पड़ती है और माँ के गले में झूल जाती है| यह लघुकथा पाठकों के हृदयतल को स्पर्श करेगी ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है| यह लघुकथा प्रस्तुत संग्रह की प्रतिनिधि रचना भी है जिसको लेखिका ने बहुत ही मनोभाव से प्रस्तुत किया है दूसरे शब्दों में यह कहना कि इस सम्पूर्ण संग्रह की आत्मा इस एक लघुकथा में बस गयी है तो अतोशयोक्ति न होगी| जाति-वाद की बात करें तो वर्तमान समय में भी ऐसे संकीर्ण सोच वाले लोग समाज में प्रत्यक्ष हो जाते हैं जो जाति-पाती को मानकर अपने को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और दलित वर्ग को निम्न समझकर उनका तिरस्कार करते हैं| इसी विषय पर आधारित ‘जाति के पार’ अपने उद्देश्य को संप्रेषित करती है| ‘माँ का मरना’ एक मार्मिक लघुकथा है जिसके संवाद ह्रदय को स्पर्श कर जाते हैं| ‘बोल न मुन्ना’ का कथानक सुन्दर है जो एक वयोवृद्ध की मनोदशा को चित्रांकित करता है जो अपने बेटे से उपेक्षित होता आ रहा है| ‘बेटी का हिस्सा’ बेटी और बेटों में फर्क करने वालो हेतु सन्देश प्रेषित करता है कि बेटों के मुकाबले बेटियाँ अपने घर और परिवार के प्रति ज्यादा सजग एवं ममत्व रखती है | और बेटी के हिस्से में घर के संस्कार और भावनात्मक बंधन आता है जिसको वह ह्रदय से निभाती है | इसी से मिलती-झूलती एक और लघुकथा को देखा-परखा जा सकता है जो ‘एक ही बेटा’ शीर्षक से प्रेषित हुई है| इस लघुकथा में एक पिता के दो पुत्र होने के बावजूद सिर्फ छोटा बेटा उनके पद-चिह्नों पर चलता है परन्तु पिता के मरणोपरांत किसी मंच के द्वारा सम्मान मिलना होता है परन्तु यहाँ बड़ा बेटा जाने की इच्छा जताता है और चला भी जाता है | परन्तु लोग उसको पहचान नहीं पाते और कहते हैं, “अरे! हमने तो सोचा उनका एक ही बेटा है|” इस अन्तिम वाक्य ने हजारों ऐसे गालों पर चांटे रसीद दिए से प्रतीत होता है जो नाम कमाने के खातीर अपने पूर्वजों को सीढी बनाकर चलने में भी शर्मिंदगी का एहसास नहीं कर पाता | यह लघुकथा अपने अन्तिम वाक्य के कारण सुन्दर बन पड़ी है|  

‘सच तो यही है’ पुरुष-प्रधान सोच को उजागर करती एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें पति के सामने जब पत्नी महिलाओं की उपलब्धियों को गिनवाती है और उनकी सफलता का गुणगान कर समाज में स्त्री-पुरुष समानता को लेकर अपना पक्ष रखने का प्रयास करती है, परन्तु पति का पुरुष मन उसकी बातों से आहत् होता है और उसके अहम् को ठेस लगती है और वह अपनी पत्नी को बाहुपाश में लेकर कहता है, “हाँ यार! कह तो तुम ठीक रही हो|” और उसको बेडरूम में ले जाता है और अपनी विकृत सोच को प्रदर्शित कर अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती कर अपने मन-मष्तिष्क में अटका गुबार दाग देता है और कुटिल मुस्कान फैंकते हुए कहता है, “हाँ, तो क्या कह रही थी तुम! महिलाओं का बराबरी का बखान...वो तो बहुत दूर की कौड़ी है, पहले तुम ‘योअर बॉडी इज़ योअर ओन’ का तो एहसास कर लो|” यह इस लघुकथा का चरम संवाद है जिसने इस लघुकथा को उत्कृष्टता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है और इस लघुकथा का अन्तिम वाक्य जो इस लघुकथा के उद्देश्य को सिद्ध करता है को भी अवलोकित किया जा सकता है, ‘समानता का काँटा मुँह चिढाने लगा, तिलमिला उठी सुनंदा|’ इसका नकारत्मक अंत पढ़कर पाठक के मन में वर्तमान समाज में स्त्री को समान अधिकारों के दंभ भरने वालों पर कई सवाल खड़े करती है|

वर्तमान समय में संवेदनाएँ समाज से विलुप्त-सी हो गयी हैं | स्वार्थ ने हर घर-परिवार ने डेरा-सा डाल दिया है| अगर घर में कोई सेवानिवृत हो गया है तो उसकी दुर्दशा और उसको हीन समझकर उसको तिर्रस्कृत कर उनके साथ बदसलूकी करना अथवा अपने घर के छोटे-मोटे काम करवाना यह आम बात हो गयी है| इसी मुद्दे को लेकर लेखिका चिंतित दिखाई पड़ती है और अपने लेखकीय धर्म का पालन करते हुए सेवानिवृत विषय को आधार बनाकर आपने इस संग्रह में कुछ बहुत ही सुन्दर लघुकथाएँ प्रेषित की है जिसमें ‘सेवानिवृत्ति’, ‘बोझिल कंधे’, ‘तब और अब’ जैसी अच्छी और सार्थक लघुकथाएँ प्रेषित हुई हैं| 

लघुकथा ‘पर्त-दर-पर्त’ प्रस्तुत संग्रह की एक और उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें सोने के पिंजरे में क़ैद मंजू की मनोदशा बहुत ही करीने से चित्रांकन किया गया है| एक ऐसा घर जिसमें आधुनिक यंत्र मौजूद हैं जिसका उपयोग वह घर में काम करने वालों पर निगरानी करने के लिए एवं अपनी सहेली के सामने दिखावा करने के लिए इस्तमाल करती है | 

सोने के पिंजरे में बंद कथानायिका की मनोदशा इस संवाद से समझी जा सकती है, “भगवान् ने मुझे सब सुख दिए हैं मधु! रुपया-पैसा नौकर-चाकर, बस एक सेहत नहीं दी| मेरा ब्लड प्रेशर काबू में नहीं रहता, जब मर्जी शूट हो जाता है, ऊपर से शुगर की बिमारी...कभी-कभी तो डिप्रेशन में चली जाती हूँ| 

यहाँ कथानायिका के दर्द का एहसास होता है कि भौतिक सुख होते हुए भी वह अपने-आप में स्वस्थ नहीं है का एहसास करवाती है | यह इस लघुकथा संग्रह की एक उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है| 

‘आश्वस्ति’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें पति-पत्नी के प्रगाढ़ प्रेम को न सिर्फ उजागर करता है अपितु उन माता-पिता के दर्द का भी एहसास करवाने में सफल होती है जिनके बच्चे अन्य प्रदेशों में खा-कमा रहे हैं और बुढ़ापे में उनको अकेला कर देती है | इस लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि घर में सन्नाटे को तोड़ने हेतु कुछ न कुछ बोलना कितना आवश्यक होता है| यही इस लघुकथा का उद्देश्य है | 

‘आत्मसम्मान’ लघुकथा में यह दर्शाया गया है  कि काम करने वाली बाइयों में भी अपने आत्मसम्मान होता है जिसका हनन होता देख वह अपनी मालकीन के आगे आक्रोश से विद्रोह दर्ज करवाती हुई नज़र आती है| यह एक अच्छी लघुकथा है | जो यह सन्देश संप्रेषित करती है कि आत्मसम्मान के लिए लड़ना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार होता है फिर भले ही वह एक ऐसी स्त्री हो जो घरों में काम करने वाली बाई ही क्यों न हो| 

‘गाली’ लघुकथा में किन्नर समाज द्वारा नारी के सम्मान के लिए आवाज़ उठाई गयी है और घर में बेटी के जन्म पर उदासीन होने वालों को इस बात का एहसास करवाती हुई प्रतीत होती है कि बेटा और बेटी समान होते हैं| यह किन्नर समाज के उदार ह्रदय की सोच को उजागर करती एक अच्छी लघुकथा है| 

इस संग्रह में कुछ ऐसी लघुकथाएँ भी हैं जिसमें लेखिका ने समाज को किस तरह से होना चाहिए यानी की आदर्श समाज को चित्रांकित करने का प्रयास किया है | ऐसी लघुकथाएँ उत्तम कहलाती है जब लेखक अपने लघुकथाओं के माध्यम से पाठकों के ह्रदय में आदर्श स्थापित करवाने में मददगार होती हैं| डॉ.शील कौशिक ने इस तरह की लघुकथाओं को लिखकर न सिर्फ अपना लेखकीय कौशल को दर्शाया है अपितु आपने एक लेखक होने का धर्म भी निभाया है| ‘ज़िद अच्छी है’ लघुकथा इसमें से एक है जिसमें श्राद्ध पक्ष में नए भवन की शुरुआत करने की घटना को दर्शाया गया है | इस लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि श्राद्ध पक्ष में बीती-पीढ़ी को गौरव देने व पुनः स्मरण करने के दिन होते हैं तो ये अशुभ कैसे हो सकते है? और बड़े हमारा अहित कैसे होने दे सकते हैं? वे तो आशीर्वाद ही देंगे, हमारी ख़ुशी में खुश होंगे...|” और इस हेतु कथानायक जिद करता है और ठेकेदार से कहता है, “सोच लो भाई! तुम्हारी मर्जी है! अगर तुम काम शुरू करना नहीं चाहते, तो मैं किसी और से बात करूँ...|”  इस ज़िद के आगे ठेकेदार झूक जाता है और कहता है, “यह ज़िद अच्छी है बाबूजी! काश ऐसी ज़िद...”

‘श्राध्दो में अपने साथ-साथ कई मजदूरों की रोज़ी-रोटी सुनिश्चित देख ठेकेदार विनम्रता से हाथ जोड़ देता है|’ इस अन्तिम वाक्य में लघुकथा का मर्म छिपा है जिस कारण यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है| 

‘कमजोर कलाई’, ‘बहन की शादी’ जैसी लघुकथाओं को लिखकर लेखिका ने यह साबित कर दिया है कि वह ऐसी युवा पीढ़ी के लिए भी चिंतित हैं जो ड्रग्स लेते हैं और इसके चलते वह गुमराह हो जाते हैं परन्तु उनको राह पर लाने हेतु परिवार का साथ होना अति आवश्यक होता है और अगर उनको सच्चे हृदय से उनकी जिम्मेदारियों का एहसास करवाया जाए तो वह सही राह पर आ सकते हैं| ऐसी सम्भावना को जगाना भी लेखिका के समाज के प्रति अपनी चिंता जताने का एक सफल प्रयास है जो न सिर्फ इस तरह की गंभीर समस्या को उजागर करती हैं अपितु इस समस्या से निकलने हेतु मार्ग भी दिखा रही हैं| 

प्रस्तुत संग्रह में लेखिका ने हर उम्र के लोगों पर कलम चलाई है जिसमें बच्चे भी शामिल हैं| बाल-मन पर आधारित लघुकथाओ में ‘खोते जा रहे पल’ जैसी सुन्दर और बाल मनोविज्ञान पर आधारित के बेहतरीन प्रस्तुति है जिसमें एक नौ वर्षीय बच्ची स्वरा के जन्मदिन के लिए वह स्वयं ही पड़ोस की सहेलियों के साथ तैयारियों में जुट जाती है और अपने कमरे को सुन्दर ढंग से सजा लेती है| उसकी मम्मी ने खूब सारा खाने का सामान जैसे पिज़्ज़ा, चाउमिन, चॉकलेट, तरह-तरह के चिप्स के पैकेट्स और जूस आदि बाज़ार से मँगवा देती हैं | वह अपनी बेटी की पसंद-नापसंद को नज़रंदाज़ कर मोबाइल में व्यस्त हो जाती हैं और उसको यह बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था कि स्वरा उसको बार-बार सबके बीच लेकर आ रही थी| 

शाम होते-होते स्वरा उपहारों को खोलकर बैठ जाती है और देखती है कि उसकी मम्मी मोबाइल में फेसबुक पर जन्मदिन की चुन-चुनकर फ़ोटोज़ पोस्ट करने में व्यस्त हैं और जब वह पापा को अपने उपहार दिखाने का प्रयास करती है तब वह यह कहकर टाल देते हैं, “बेटा! मुझे सुबह ऑफिस के काम से जल्दी चंडीगढ़ जाना है|” 

स्वरा उदास हो जाती है और कुछ देर बाद उपहारों के बीच बैठे-बैठे ही सो जाती है| 

अपने ही मम्मी-पापा से उपेक्षित हो एक बच्चे की क्या मनोदशा हो जाती है का बहुत ही सुन्दर चित्रांकन इस लघुकथा के माध्यम से किया गया है| 

प्रस्तुत लघुकथा-संग्रह में लेखिका ने विभिन्न विषयों पर कलम चलाई है| एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं जो ज़मीन से जुडी हुई प्रत्यक्ष होती हैं| पात्रों का चयन, भाषा-शैली भी कथानक के अनुरूप है| कुल मिलाकार इस लघुकथा संग्रह को पढने के उपरान्त मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि यह संग्रह पाठकों के ह्रदय में अपना स्थान बनाने में सफल होगा | मैं लेखिका को इस बेहतरीन लघुकथा संग्रह हेतु बधाई प्रेषित करती हूँ और भविष्य में भी आपकी लेखनी को पाठकों के मध्य पहुँचाने हेतु शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ|

- कल्पना भट्ट


बुधवार, 13 अप्रैल 2022

हाल-ए-वक़्त लघुकथा संग्रह का विमोचन

 श्री मुरारीबापू द्वारा प्रारम्भ किए गए साहित्य के प्रतिष्ठित काग सम्मान समर्पण समारोह में मैग्सेसे सम्मान से सम्मानित वाटरमैन श्री राजेन्द्र सिंह साहिब, अध्यात्म चेतना कंकू जी आई, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ के सम्माननीय कुलाधिपति महोदय प्रो. बलवंत राय जानी साहिब, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ के सम्माननीय कुलपति महोदय प्रो. कर्नल एस. एस. सारंगदेवोत साहिब संग श्री काग सम्मान प्राप्त वरिष्ठ साहित्यकार श्री महेंद्र भाणावत जी, कुलप्रमुख महोदय श्री बी.एल. गुर्जर साहिब व कुलसचिव डॉ. हेमशंकर दाधीच जी साहिब द्वारा हाल-ए-वक़्त लघुकथा संग्रह का विमोचन हुआ।



बुधवार, 30 मार्च 2022

हिंदी लघुकथा संग्रह हेतु रचनाएँ आमंत्रित

 आदरणीय सुधीजनों,

जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर द्वारा साहित्य प्रकाशन योजना के तहत एक सांझा हिंदी लघुकथा संग्रह हेतु रचनाएँ आमंत्रित हैं। शायद प्रथम बार किसी उच्च शिक्षा अकादमिक संस्थान ने इस तरह के कार्य का बीड़ा उठाया है और यह भी सोचा गया है कि यदि प्राप्त रचनाएं स्तरीय होंगी तो इस संग्रह को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया जा सकता है (हिन्दी विभाग व अकादमिक काउन्सिल की स्वीकृति के पश्चात).

इस संग्रह में भाग लेने हेतु कृपया निम्न बिन्दुओं पर ध्यान दें:

1. इस संग्रह में शामिल होने हेतु कोई शुल्क नहीं है। अप्रकाशित/अप्रसारित की शर्त नहीं है। लघुकथा की गुणवत्ता के अनुसार ही चयन किया जाएगा। लघुकथाओं प्रकाशन हेतु फिलहाल किसी प्रकार के मानदेय की व्यवस्था नहीं है।

2. लघुकथाएं भेजने की अंतिम तिथि 30 अप्रेल 2022 है।

3. लघुकथा की शब्द सीमा निर्धारित नहीं की गई है, फिर भी अधिकतम 600-700 शब्दों की हो तो बेहतर।

4. अपनी बेहतरीन लघुकथाएं (कम से कम एक व अधिकतम पंद्रह) निम्न गूगल फॉर्म द्वारा भेजें:

https://forms.gle/P9xcrq8izKVnTnfe9


यदि किसी कारणवश गूगल फॉर्म भरने में कठिनाई हो तो निम्न इमेल पर भी भेजी जा सकती हैं: laghukatha@jrnrvu.edu.in

5. यदि ईमेल से रचनाएं भेज रहे हैं तो

अ) इमेल का विषय : "विद्यापीठ लघुकथा संग्रह 2022 में प्रकाशन हेतु”  रखें.

ब) रचनाकार का परिचय जिसमें निम्नलिखित सूचनाएं हों:

लघुकथाकार का पूरा नाम: 

लिंग: महिला / पुरुष

ईमेल आईडी:

फोन नंबर (WhatsApp):

संप्रति / वर्तमान पदनाम, संगठन:

डाक का पूर्ण पता (पिनकोड सहित):

राज्य:

देश:

शिक्षा:

संक्षिप्त साहित्यिक परिचय:

लघुकथा लेखन कब से कर रहे हैं (केवल वर्ष बताइए).

ईमेल में अपना पासपोर्ट साइज़ चित्र भी संलग्न करें.

अपनी बेहतरीन मौलिक-स्वरचित (कम से कम एक और अधिकतम पंद्रह) लघुकथाएँ यूनिकोड फ़ॉन्ट में टाइप कर, वर्ड फ़ाइल में भेजें और उस फाइल को अपने नाम (अंग्रेजी में) से सेव करें। 

हर लघुकथा एक भिन्न पृष्ठ पर हो। 


स) निम्न घोषणाएं अति आवश्यक है:


(i) मैं यह घोषणा करता / करती हूँ कि मेरे द्वारा भेजी गयीं रचना(एं) मौलिक और मेरे द्वारा स्वरचित हैं। किसी भी प्रकार के कॉपीराइट विवाद से मुक्त है। किसी भी कॉपीराइट विवाद हेतु मैं स्वयं ही जिम्मेदार होउंगा/होऊँगी। मैं जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर को यह अधिकार देता / देती हूँ कि इस/इन लघुकथा(ओं) का प्रयोग विश्वविश्वविद्यालय द्वारा प्रस्तावित लघुकथा संग्रह में कर सकते हैं।


(ii) सम्पादकीय मंडल व जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ की अधिकृतियों द्वारा इस संग्रह के सम्बन्ध में की गई मेरी लघुकथाओं का चयन मुझे मान्य होगा तथा मैं ऊपर दर्शाए गए सभी नियमों का पालन करूंगा / करूंगी।


हस्ताक्षर के लिए अपना नाम लिखिए


7. लघुकथा भेजने के बाद (चाहे फॉर्म या इमेल से) कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कर whatsapp समूह से जुड़ जाएँ. संग्रह की आगामी जानकारियाँ वहां पोस्ट की जाएंगी:

https://chat.whatsapp.com/CpQ2zBRQfZNDdkLjacnUtB


8. सम्पादक तो अपना कार्य करेंगे ही, लेकिन लेखकगण भी कोशिश कर कृपया मानक वर्तनी का ही उपयोग करें। इस हेतु आप केंद्रीय हिंदी निदेशालय के नियम देख सकते हैं।

9. रचनाओं के किसी सन्देश में मानव मूल्यों, समुदायों, स्त्री के प्रति अवमानना न हो।

10. बिनावजह अथवा ठेस पहुंचा रहे जातिसूचक व राजनीतिक नामों का उपयोग न करें।

11. रचना में किसी भी व्यक्ति विशेष, समुदाय, वर्ग, धर्म, प्रदेश, देश आदि के प्रति अनावश्यक नकारात्मक अभिव्यक्ति या अनावश्यक आलोचना न हो। कोई विसंगति दर्शाने में आलोचना हो रही हो तो उसे दिया जा सकता है।

12. लघुकथाओं का चयन सम्पादकीय मंडल द्वारा किया जाएगा।


किसी भी अन्य सूचना के लिए कृपया संपर्क करें :

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

मोबाईल : +91 - 928544749 (WhatsApp)

सादर,


मंगलवार, 22 मार्च 2022

बीजेन्द्र जैमिनी जी द्वारा संपादित इनसे मिलिए (ई-साक्षात्कार संकलन) के अंतर्गत मेरा साक्षात्कार

 प्रश्न न.1 -  लघुकथा में सबसे महत्वपूर्ण तत्व कौन सा है ?

उत्तर - मेरे अनुसार यों तो लघुकथा में कोई ऐसा तत्व नहीं हैं जिसका महत्व कम हो क्योंकि जब कम-से-कम शब्दों में अपनी बात कहनी है तो शीर्षक से लेकर अंत तक सभी शब्दों, शिल्प आदि पर पूरा ध्यान देना होता ही है। मैं अपने लेखन में सबसे अधिक विषय (विशेष तौर पर जो समकालीन यथार्थ पर आधारित हो) के अध्ययन को समय देता हूँ फिर कथानक और उसके प्रस्तुतिकरण के निर्धारण में।


प्रश्न न.2 -  समकालीन लघुकथा साहित्य में कोई पांच नाम बताओं?  जिनकी भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है?

उत्तर - हालांकि पांच से अधिक नाम जेहन में आ रहे हैं, फिर भी प्रश्न की सीमा न लांघते हुए मैं सर्वश्री योगराज प्रभाकर, अशोक भाटिया, बलराम अग्रवाल, मधुदीप गुप्ता व उमेश महादोषी के नाम लेना चाहूंगा। वस्तुतः आप (बीजेंद्र जैमिनी) सहित कई अन्य वरिष्ठ व कई नवोदित भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।


प्रश्न न.3 - लघुकथा की समीक्षा के कौन - कौन से मापदंड होने चाहिए ?

उत्तर - मेरे अनुसार निम्न तत्वों पर एक लघुकथा समीक्षक को ध्यान देना आवश्यक है:-

रचना का उद्देश्य, विषय, लाघवता व पल विशेष, कथानक, शिल्प, शैली, शीर्षक, पात्र, भाषा एवं संप्रेषण, संदेश / सामाजिक महत्व, न्यूनतम अतिशयोक्ति व सांकेतिकता। इनके अतिरिक्त मेरा यह भी मानना है कि कोई लघुकथा अपने पाठकों को कितना प्रभावित कर सकती है इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए।


प्रश्न न.4 - लघुकथा साहित्य में सोशल मीडिया के कौन-कौन से प्लेटफॉर्म बहुत महत्वपूर्ण हैं?

उत्तर - पिछले कुछ वर्षों से सोशल मीडिया ने लघुकथा को स्थापित करने में सहायता की है। फेसबुक, व्हाट्सएप्प, यूट्यूब, फोरम व ब्लोग्स द्वारा फिलवक्त लघुकथा पर काफी कार्य किया जा रहा है। आने वाले समय में अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म यथा इन्स्टाग्राम,  पिनट्रेस्ट, लिंक्डइन, ट्वीटर आदि पर अच्छे कार्य होने की उम्मीद है।


प्रश्न न.5 - आज के साहित्यिक परिवेश में लघुकथा की क्या स्थिति है ?

उत्तर - फिलहाल लघुकथाएं मात्रात्मक दृष्टि से एक अच्छी संख्या में कही जा रही हैं, हालांकि गुणात्मकता पर विचार करें तो उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है। संपादकों व प्रकाशकों को भी पुस्तकों, संग्रहों, संकलनों आदि में कहीं न कहीं समझौता करना ही पड़ता है। इसके अतिरिक्त रचनाओं में समसामयिक विषयों की भी कमी प्रतीत होती है। ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण, राजनीतिक पतन, साइबर क्राइम, दिव्यांग जैसे वर्ग की समस्याएं, पुरातन लोक संगीत / वास्तुकला आदि के सरंक्षण सहित कई विषय ऐसे हैं जिन पर कलम बहुत अधिक नहीं चली है। कहीं-कहीं लघुकथा की समीक्षा में निष्पक्षता की आवश्यकता भी महसूस होती है।


प्रश्न न.6 - लघुकथा की वर्तमान स्थिति से क्या आप सतुष्ट हैं ?

उत्तर - यह एक अच्छी बात है कि लघुकथा अब अधिकतर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। इससे प्रबुद्ध पाठकों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है। गुणात्मकता के अतिरिक्त प्रकाशित रचनाओं में कभी-कभी प्रूफ रीडिंग, सम्पादन व कुछ निष्पक्षता की आवश्यकता ज़रूर प्रतीत होती है। मैं उन सभी लघुकथाकारों की हृदय से प्रशंसा करना चाहूँगा, जिन्होंने इस विधा को स्थापित करने में अपना समय और धन दोनों को बिना सोचे खर्च किया है। आप सभी के परिश्रम से जो स्थान इस विधा को प्राप्त हुआ है उससे मुझ सहित अन्य लघुकथाकारों को काफी संतुष्टि मिलना स्वाभाविक ही है। हालांकि, मुझे अपने लेखन से स्वयं को संतुष्टि मिल पाए, ऐसा समय अभी नहीं आया।


प्रश्न न.7 - आप किस प्रकार के पृष्ठभूमि से आए हैं?  बतायें किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं?

उत्तर - मैं यों तो विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ, लेकिन हिन्दी व अन्य भाषाओं और साहित्य में रूचि प्रारम्भ से ही रही। पढ़ने के नाम पर मैं जो कुछ भी मिले पढ़ लेता था। शिक्षा समाप्ति के बाद देश-विदेश के विभिन्न संस्थानों के लिए सॉफ्टवेयर व वेबसाइट निर्माण किए और कुछ समय पश्चात् शिक्षण व शोध के क्षेत्र में आ गया। फिलहाल मैं कम्प्यूटर विज्ञान के छात्रों का ही मार्गदर्शक बन पाया हूँ। नवीन विषयों तथा भिन्न शिल्प को लेकर लेखन करना मुझे पसंद है।


प्रश्न न.8 - आप के लेखन में आपके परिवार की भूमिका क्या है?

उत्तर - परिवार से मुझे सदैव प्रोत्साहन ही मिला है। वस्तुतः जो समय मुझे परिवार को देना चाहिए, उसी में से कुछ वक्त निकाल कर मैं साहित्य सृजन कर पाता हूँ, लेकिन कभी शिकायत नहीं मिली। परिवार के सदस्यों को मैं समय-समय पर लेखन कार्य में प्रवृत्त करने का प्रयास भी करता हूँ और उनसे प्रेरणा भी प्राप्त करता हूँ।


प्रश्न न.9 - आप की आजीविका में आपके लेखन की क्या स्थिति है ?

उत्तर - अभी इस बारे में सोचा नहीं। हालांकि साहित्यिक पुस्तक बिक्री, प्रतियोगिताओं, शोध-कार्य आदि से कुछ आय हुई भी है लेकिन अधिकतर बार उसे अन्य पुस्तकें खरीदने में ही खर्च किया है।


प्रश्न न.10 - आपकी दृष्टि में लघुकथा का भविष्य कैसा होगा ?

उत्तर - जिस तरह से लघुकथा विधा उन्नति कर रही है, यह प्रतीत होता है कि गद्य विधा में जल्दी ही लघुकथा का ही युग होगा। इस हेतु उचित सृजन महती कार्य है। मेरा मानना है कि किसी लेखक को लघुकथा को सिद्ध करना है तो सबसे पहले उसके विषय व कथानक को आत्मसात कर उसमें निहित पात्रों को स्वयं जीना होता है। वे बातें भी दिमाग में होनी चाहिए जो हम रचना में तो नहीं लिख रहे हैं लेकिन रचना को प्रभावित कर रही हैं। इसीसे लेखन में जीवन्तता आती है। इस प्रकार का लेखन पर्याप्त समय लेता है और इसके विपरीत जल्दबाजी में विधा और साहित्य दोनों को हानि होती है। हालांकि समय स्वयं अच्छी रचनाओं को अपने साथ भविष्य की ओर बढाता है तथा अन्य को पीछे छोड़ देता है। लेकिन यह भी सत्य है कि इन दिनों कई रचनाएं ऐसी भी कही जा रही हैं, जो विधा की उन्नति के समय को बढ़ा रही हैं। लघुकथा पर शोध व नवीन प्रयोग भी आवश्यकता से कम हो रहे हैं। लघुकथा में नए मुहावरे भी गढ़े जा सकते हैं। बहरहाल, इन सबके बावजूद भी मैं विधा के अच्छे भविष्य के प्रति आश्वस्त हूँ क्योंकि वर्तमान अधिक बिगड़ा हुआ नहीं है बल्कि अपेक्षाकृत बेहतर है।


प्रश्न न.11 - लघुकथा साहित्य से आपको क्या प्राप्त हुआ है ?

उत्तर - कहीं पढ़ा था कि, “Literature is a bridge from disappointment to hope.” यह बात लेखन पर भी लागू होती है। लघुकथा में लेखकीय प्रवेश वर्जित है, इस बात का अपनी तरफ से जितना रख सकता हूँ, ध्यान रखते हुए, कई बार अपनी बात जुबानी न कहने की स्थिति में उसे लघुकथा के रूप में ढाल देता हूँ, उससे मानसिक शांति तो प्राप्त होती ही है और साथ ही अपनी बात इस प्रकार कह देने का अवसर भी मिलता है। कई विषयों को पढ़ कर समझने की प्रवृत्ति को एक नई दिशा भी मिली तथा सोच का दायरा भी विस्तृत हुआ। साथ ही शोध हेतु यह एक और विषय भी मिला। इनके अतिरिक्त मुझे गुरुओं का जो मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, वरिष्ठ लघुकथाकारों का जो आशीर्वाद मिला और समकालीन व मेरे लेखन प्रारम्भ करने के बाद आए लघुकथाकारों का जो स्नेह प्राप्त हुआ, उसे शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए असंभव है।

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रविवार, 20 मार्च 2022

‘अविरामवाणी’ पर ‘अनूठी लघुकथाएँ’ (भाग-3) की बारहवीं प्रस्तुति

डॉ. उमेश महदोषी जी की फेसबुक वॉल से


 मित्रो,

       ‘अनूठी लघुकथाएँ’ (भाग-3) कार्यक्रम में आज की रविवारीय प्रस्तुति में प्रस्तुत हैं- स्मृतिशेष श्री रवि प्रभाकर जी की लघुकथा 'रियरव्यू’ तथा स्मृतिशेष सुश्री अंकिता भार्गव जी की लघुकथा 'नेपोलियन का घोड़ा’। लघुकथाओं का पाठ उमेश महादोषी द्वारा किया गया है। इस कार्यक्रम की अगली प्रस्तुति होगी आगामी रविवार को शाम 4 से 5 बजे के मध्य।


      'अविरामवाणी' का सामान्य लिंक यह है- https://m.youtube.com/channel/UCS6jNm7DyGvN5u638mwfv1Q)

     आज का वीडियो:



शनिवार, 19 मार्च 2022

लघु आलेख | 'अच्छी' बनाम 'प्रभावी' लघुकथा | आलोक कुमार सातपुते

26 नवम्बर 1969 को जन्मे आलोक कुमार सातपुते ने एम.कॉम. तक शिक्षा प्राप्त की है। भारत पाकिस्तान और नेपाल के प्रगतिशील हिन्दी,उर्दू, एवं नेपाली पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। इसके अतिरिक्त शिल्पायन प्रकाशन समूह दिल्ली के नवचेतन प्रकाशन से आपका लघुकथा संग्रह 'अपने-अपने तालिबान' व दलित कहानी संग्रह 'देवदासी', सामयिक प्रकाशन समूह दिल्ली के कल्याणी शिक्षा परिषद से लघुकथा संग्रह 'वेताल फिर डाल पर', डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली से कहानियों का संग्रह 'मोहरा' व किस्से-कहानियों का संग्रह 'बच्चा लोग ताली बजायेगा' प्रकाशित हो चुके हैं। अपने-अपने तालिबान का उर्दू संस्करण भी आकिफ बुक डिपो, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है तथा इस संग्रह की अंग्रेजी एवं मराठी अनूदित पुस्तकें भी प्रकशित हुई हैं। एक कहानी संग्रह 'रेशम का कीड़ा' प्रकाशनाधीन है। आइए पढ़ते हैं लघुकथा पर उनका लिखा एक लघु आलेख:

'अच्छी' बनाम 'प्रभावी' लघुकथा

मैं यूँ तो लघुकथाओं से सम्बन्धित किसी भी आयोजन में भाग नहीं ले पाता,पर मेरी कोशिश होती है कि इन आयोजनों पर बारीक नज़र रखूं। मैंने पाया है कि ये आयोजन सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने जन-सम्पर्क बढ़ाने का माध्यम बन गये हैं।

आजकल सपाटबयानी को लघुकथा कहा जा रहा है,जिसे पढ़कर समझ में नहीं आता है कि यह लघुकथा है या समाचार। घटनाओं का ज्यों का त्यों विवरण मात्र परोस दिया जा रहा है। इस तरह की लघुकथाएं उत्पादित करने की बहुत सी फेक्टरियाँ खुल गयी हैं और उनमे धकाधक उत्पादन हो रहा है।

लघुकथाओं से सम्बन्धित विभिन्न आयोजन इन उत्पादों की ब्रांडिंग करते हुए प्रतीत होते हैं।इन आयोजनों के प्रायोजक उर्फ़ "लघुकथाओं के मठाधीश" कभी लघुकथा की साईज़ को लेकर मगज़मारी करते हैं,तो कभी उसके भाषा- शिल्प को लेकर ज्ञान बघारने लगते हैं। 

मेरा मानना है कि लघुकथा 'अच्छी' न होकर 'प्रभावी' होनी चाहिए। किसी व्यक्ति के दिमाग में जब कोई विचार उत्पन्न होता है तो वह विचार अपने पूरे स्वरूप में ही होता है।जब इस विचार को दिमाग में ही लगातार तीन-चार माह तक पकाया जाये तो यह विचार खुद ही तय करता है कि उसे कविता के रूप में, कहानी के रूप में या फिर लघुकथा के रूप में प्रकट होना है। इस सारी प्रक्रिया के दौरान यदि वह विचार कमज़ोर हो, तो उसकी मृत्यु हो जाती है। 

जहाँ तक मेरा सवाल है, यदि मेरे मन में उपजने वाला विचार सामाजिक सरोकारों से अछूता है, तो मैं तो उस विचार की बेदर्दी से हत्या कर देता हूँ। 

मनोविज्ञान कहता है कि हर व्यक्ति अपने-अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होता है। 'अच्छा' कहना मतलब आपके पूर्वाग्रह को तुष्ट करना है। मेरा मानना है कि प्रभावी लघुकथाएँ आपको कभी भी अच्छी नहीं लग सकतीं। 

प्रभावी लघुकथाएं आपको उद्वेलित करती हैं, उत्तेजित करती हैं आपको तमाचे मारती हैं। आपको झकझोर कर सोचने के लिये बाध्य करती है।

दर-अस्ल आज के दौर में सोचने की ज़हमत कोई भी नहीं उठाना चाहता। संभवतः यही कारण है कि बदसूरत से बदसूरत आदमी भी जब फेसबुक पर अपनी फोटो डालता है,तो सैकड़ों लाइक्स मिल जाती हैं,क्योंकि फोटो कुछ सोचने को नहीं कहती है। 

'प्रभावी' लघुकथाएं स्वयंसिद्ध होती हैं और लेखक के नाम के साथ आपके दिमाग पर छप जाती हैं। उसे चीख-चीखकर अपने होने का अहसास नहीं कराना पड़ता है।

- आलोक कुमार सातपुते

(संग्रह-मोक्ष से)

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