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शनिवार, 11 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: भटकना बेहतर । लेखन व वचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



कितने ही सालों से भटकती उस रूह ने देखा कि लगभग नौ-दस साल की बच्ची की एक रूह पेड़ के पीछे छिपकर सिसक रही है। उस छोटी सी रूह को यूं रोते देख वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा, "क्यूँ रो रही हो?"
वह छोटी रूह सुबकते हुए बोली, "कोई मेरी बात नहीं सुन पा रहा है… मुझे देख भी नहीं पा रहा। कल से ममा-पापा दोनों बहुत रो रहे हैं… मैं उन्हें चुप भी नहीं करवा पा रही।"
वह रूह समझ गयी कि इस बच्ची की मृत्यु हाल ही में हुई है। उसने उस छोटी रूह से प्यार से कहा, "वे अब तुम्हारी आवाज़ नहीं सुन पाएंगे ना ही देख पाएंगे। तुम्हारा शरीर अब खत्म हो गया है।"
"मतलब मैं मर गयी हूँ!" छोटी रूह आश्चर्य से बोली।
"हाँ। अब तुम्हारा दूसरा जन्म होगा।"
"कब होगा?" छोटी रूह ने उत्सुकता से पूछा।
"पता नहीं...जब ईश्वर चाहेगा तब।"
"आपका…  दूसरा जन्म कब..." तब तक छोटी रूह समझ गयी थी कि वह जिससे बात कर रही है वो भी एक रूह ही है।
"नहीं!! मैं नहीं होने दूंगी अपना कोई जन्म।" सुनते ही रूह उसकी बात काटते हुए तीव्र स्वर में बोली।
"क्यूँ?" छोटी रूह ने डर और आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा।
"मुझे दहेज के दानवों ने जला दिया था। अब कोई जन्म नहीं लूंगी, रूह ही रहूंगी क्यूंकि रूहों को कोई जला नहीं सकता।" वह रूह अपनी मौत के बारे में कहते हुए सिहर गयी थी।
"फिर मैं भी कभी जन्म नहीं लूँगी।"
"क्यूँ?"
छोटी रूह ने भी सिहरते हुए कहा,
"क्यूंकि रूहों के साथ कोई बलात्कार भी नहीं कर सकता।"
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चित्र: साभार गूगल

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: पश्चाताप । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



उसका दर्द बहुत कम हो गया, इतनी शांति उसने पूरे जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी। रक्त का प्रवाह थम गया था। मस्तिष्क से निकलती जीवन की सारी स्मृति एक-एक कर उसके सामने दृश्यमान हो रही थी और क्षण भर में अदृश्य हो रही थी। वह समझ गया कि मृत्यु निकट ही है।

वह जीना चाह कर भी आँखें नहीं खोल पा रहा था। असहनीय दर्द से उसे छुटकारा जो मिल रहा था।

अचानक एक स्मृति उसकी आँखों के समक्ष आ गयी, और वो हटने का नाम नहीं ले रही थी। मृत्यु एकदम से दूर हो गयी, वो विचलित हो उठा। उसकी आँखों में स्पंदन होने लगा, एक क्षण को लगा कि आँसूं आयेंगे, लेकिन आँसू बचे कहाँ थे? मुंह से गहरी साँसें भरते हुए उसने उस विचार से दूर जाने के लिये धीरे-धीरे आँखें खोल दीं।

उसके सामने अब उसका बेटा और बहू खड़े थे। डॉक्टर ने बेटे को उसकी स्थिति के बारे में बता दिया था। उसकी आँखें खुलते ही बेटे के चेहरे पर संतोष के भाव आये, और उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा, "पापा, आपकी बहू माँ बनने वाली है।"

"मेरा... समय.. आ... गया है...!" उसने लड़खड़ाती धीमी आवाज़ में कहा।

"पापा आप वादा करो कि आप फिर हमारे पास आओगे...हमारे बेटे बनकर..." बेटे की आँखों से आँसू झरने लगे।

वह बहू की कोख देख कर मुस्कुराया, फिर बेटे को इशारे से बुला कर कहा, "तू भी... वादा कर ... मैं बेटे की जगह... बेटी बनकर आया... तो मुझे मार मत देना...!"

कहते ही उसके सीने से बोझ उतर गया। उसने फिर आँखें बंद कर लीं, अब उसे पत्नी की रक्तरंजित कोख दिखाई नहीं दे रही थी।
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- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी, 9928544749, chandresh.chhatlani@gmail.com

चित्र: साभार गूगल

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: दायित्व-बोध । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



दायित्व-बोध

पिता की मृत्यु के बारह दिन गुज़र गये थे, नाते-रिश्तेदार सभी लौट गये आखिरी रिश्तेदार को रेलवे स्टेशन तक छोड़कर आने के बाद, उसने घर का मुख्य द्वार खोला ही था कि उसके कानों में उसके पिता की कड़क आवाज़ गूंजी, "सड़क पार करते समय ध्यान क्यों नहीं देता है, गाड़ियाँ देखी हैं बाहर"

उसकी साँस गहरी हो गयी, लेकिन गहरी सांस दो-तीन बार उखड़ भी गयी पिता तो रहे नहीं, उसके कान ही बज रहे थे और केवल कान ही नहीं उसकी आँखों ने भी देखा कि मुख्य द्वार के बाहर वह स्वयं खड़ा था, जब वह बच्चा था जो डर के मारे कांप रहा था

वह थोड़ा और आगे बढ़ा, उसे फिर अपने पिता का तीक्ष्ण स्वर सुनाई दिया, "दरवाज़ा बंद क्या तेरे फ़रिश्ते करेंगे?"

उसने मुड़ कर देखा, वहां भी वह स्वयं ही खड़ा था, वह थोड़ा बड़ा हो चुका था, और मुंह बिगाड़ कर दरवाज़ा बंद कर रहा था

दो क्षणों बाद वह मुड़ा और चल पड़ा, कुछ कदम चलने के बाद फिर उसके कान पिता की तीखी आवाज़ से फिर गूंजे, "दिखाई नहीं देता नीचे पत्थर रखा है, गिर जाओगे"

अब उसने स्वयं को युवावस्था में देखा, जो तेज़ चलते-चलते आवाज़ सुनकर एकदम रुक गया था

अब वह घर के अंदर घुसा, वहां उसका पोता अकेला खेल रहा था, देखते ही जीवन में पहली बार उसकी आँखें क्रोध से भर गयीं और पहली ही बार वह तीक्ष्ण स्वर में बोला, "कहाँ गये सब लोग? कोई बच्चे का ध्यान नहीं रखता, छह महीने का बच्चा अकेला बैठा है"

और उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके पैरों में उसके पिता के जूते हैं


- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: खजाना । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी


पिता के अंतिम संस्कार के बाद शाम को दोनों बेटे घर के बाहर आंगन में अपने रिश्तेदारों और पड़ौसियों के साथ बैठे हुए थे। इतने में बड़े बेटे की पत्नी आई और उसने अपने पति के कान में कुछ कहा। बड़े बेटे ने अपने छोटे भाई की तरफ अर्थपूर्ण नजरों से देखकर अंदर आने का इशारा किया और खड़े होकर वहां बैठे लोगों से हाथ जोड़कर कहा, “अभी पांच मिनट में आते हैं”।

फिर दोनों भाई अंदर चले गये। अंदर जाते ही बड़े भाई ने फुसफुसा कर छोटे से कहा, "बक्से में देख लेते हैं, नहीं तो कोई हक़ जताने आ जाएगा।" छोटे ने भी सहमती में गर्दन हिलाई ।

पिता के कमरे में जाकर बड़े भाई की पत्नी ने अपने पति से कहा, "बक्सा निकाल लीजिये, मैं दरवाज़ा बंद कर देती हूँ।" और वह दरवाज़े की तरफ बढ़ गयी।

दोनों भाई पलंग के नीचे झुके और वहां रखे हुए बक्से को खींच कर बाहर निकाला। बड़े भाई की पत्नी ने अपने पल्लू में खौंसी हुई चाबी निकाली और अपने पति को दी।

बक्सा खुलते ही तीनों ने बड़ी उत्सुकता से बक्से में झाँका, अंदर चालीस-पचास किताबें रखी थीं। तीनों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। बड़े भाई की पत्नी निराशा भरे स्वर में  बोली, "मुझे तो पूरा विश्वास था कि बाबूजी ने कभी अपनी दवाई तक के रुपये नहीं लिये, तो उनकी बचत के रुपये और गहने इसी बक्से में रखे होंगे, लेकिन इसमें तो....."

इतने में छोटे भाई ने देखा कि बक्से के कोने में किताबों के पास में एक कपड़े की थैली रखी हुई है, उसने उस थैली को बाहर निकाला। उसमें कुछ रुपये थे और साथ में एक कागज़। रुपये देखते ही उन तीनों के चेहरे पर जिज्ञासा आ गयी। छोटे भाई ने रुपये गिने और उसके बाद कागज़ को पढ़ा, उसमें लिखा था,

"मेरे अंतिम संस्कार का खर्च"
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सभी चित्र: साभार गूगल।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: स्वाद । लेखक: सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा । वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: स्वाद / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा वो जहां भी जाता , इंसानों के किसी भी समूह में बैठता या अपने कमरे में चुप बैठकर अपने आप से बातें करता तो उसे लोग आपस में लड़ते हुए दिखाई देते। फरेब, ईर्ष्या, द्वेष, बीमारियां,षड्यंत्रों और दंगों के बीच सुविधाओं की भूख और आपसी मारामारी के बीच, कई बार तो अपने आप से ही आगे निकलने की होड़। वह खीझ उठता कि हर कोई अपनी जिंदगी को खूबसूरत देखना चाहता है पर ख़ूबसूरती है कि रेगिस्तान में मायावी पानी की तरह दूर भागती फिरती है। यहां तक कि सरकारी खर्चे पर पल रहे पार्क या पहाड़ों की हरी-भरी घाटियों की प्राकृतिक छटा को भी आदमी ने बंदूकों की बारूद से निकली दुर्गंध या फिर अपनी ही गंदगी से भर दिया है। वो खीझ की हद तक खुद को उलझन में पाता कि ये ईश्वर भी क्या चीज है जो अपनी ही बनाई हुई दुनिया को शांति से नहीं रख पा रहा । क्या वो अपनी इस उद्दंड सृष्टि को देखकर संतुष्ट रह पाता होगा? और ऐसे हालात में भी अगर वो संतुष्ट रहता है तो निश्चय ही उसे किसी अच्छे रचनाकार का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। न जाने क्यों लोग उसे पालनहार कह कर उसकी महिमा का बखान करते हैं। अपने आप में गुम हुई उसकी तंद्रा को अचानक दरवाजे पर पड़ी हल्की सी थाप ने भंग कर दिया। उसने उस थाप को अनसुना कर दिया और अपनी बनाई गुमशुदगी में फिर से खो गया। जिंदगी का बेमानीपन उसे जिंदगी का सच लगने लगा। उसके दिल की धड़कनो ने पाया कि हवा में घुली बारूद उसकी वाहिकाओं में उतरने को आतुर है। इसी बीच दरवाजे पर पड़ी पहले वाली हलकी थाप दुगुने आवेग से दरवाजे पर फिर से आ पड़ी। इस बार की थाप में किसी बच्चे का तोतलापन भी घुला था, " दलवाजा तोलो, नहीं तो हम भीद जायेंगें। हमाली मम्मा को बुखाल है, वो मल जाएगी।" इस तुतलाहट को वह नजरअंदाज नहीं कर पाया और उसने दरवाजा खोल दिया। सामने का दृश्य उसकी तंद्रा के लिए दर्द से अधिक डरावना था। अधूरी पौशाक से ढकी उस औरत के वक्ष से लिपटा दो-तीन साल का बच्चा भी बारिश की बूंदा-बांदी में भीग चुका था। उन दोनों की दयनीय आँखें बिना कुछ कहे कह रही थीं कि वो दोनों अनचाही बरसात से भीगे ही नहीं हैं, वे दोनों बिन बुलाई भूख से बिलबिला भी रहे हैं। अगर उन दोनों को, उनकी इन दोनों मुसीबतों से तुरंत निजात न मिली तो आज रात वे दोनों एक साथ दम तोड़ देंगें। अगले कुछ छणो में वे उसके कमरे के अंदर आ चुके थे और वह खुद, कुछ देर पहले की अपनी दुनिया से बाहर निकलने को मजबूर हो गया था। उसने उस माँ और उसके बच्चे के लिए पहले एक चारपाई, फिर एक बिछावन और फिर घर में रखे कपड़ों का इंतजाम किया। जब माँ-बेटे का दयनीय क्रंदन समाप्त हो गया और वे दोनों कुछ सामान्य हो गए तो उसने उन दोनों के लिए गर्म चाय और खाने का इंतजाम भी कर दिया। थोड़ी देर में, उसके दिए लिहाफ में सिमटकर वे दोनों लावारिस सो भी गए। फिर वो अकेला अपनी उसी कुर्सी पर जा कर बैठा जिस पर वह उन दोनों के आने से पहले बैठकर, जिंदगी के अनमनेपन से जूझ रहा था। उसे लगा, "जिंदगी में हर जगह वीरानी और रेगिस्तान का उजाड़ होता तो फिर इन दोनों के पास आज जिंदगी वापस कैसे आती? उसके पास अभी करने को, बहुत कुछ है, जो उसे करना चाहिए।" उसने अपने लिए एक कप चाय बनाई और उसे पीते हुए उसे, चीनी का भरपूर स्वाद आया। - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा डी - श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद - ( उत्तर प्रदेश ) 20 /03 /2020

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: एक - दो - तीन | लेखिकाः मेरी बायल ओ'रीयली | वाचनः डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी । अनुवाद: भारतदर्शन पोर्टल




यूरोपेयन महायुद्ध की बात है।

बर्लिन-स्टेशन से मुसाफिरों से भरी रेलगाड़ी रेंगती हुई रवाना हुई। गाड़ी में औरतें, बच्चे, बूढ़े--सभी थे; पर कोई पूरा तन्दुरुस्त नज़र न आता था। एक डब्बे में, भूरे बालों वाला एक फौजी सिपाही एक अध-बूढ़ी स्त्री के पास बैठा था। स्त्री कमज़ोर और बीमार-सी नज़र आती थी। तेज़ चलती हुई गाड़ी के पहियों की किच-किच आवाज़ में मुसाफिरों ने सुना कि वह स्त्री रह-रहकर गिनती-सी गिन रही है--'एक-दो-तीन...'

शायद वह किसी गहरे विचार में मग्न थी। बीच-बीच में वह चुप हो जाती, और फिर वही--'एक - दो - तीन!'

सामने दो युवतियाँ बैठी थीं। उनसे रहा न गया, और वे खिलखिलाकर हँस पड़ीं। साथ ही इस वृद्धा के अजीब बरताव का वे आपस में मज़ाक उड़ाने लगीं।

इतने में एक बुजुर्ग आदमी ने उन्हें झिड़क दिया। कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया।

'एक-दो-तीन'- वृद्धा ने फिर कुछ बेसुध-सी हालत में कहा। युवतियाँ फिर भद्दे ढंग से हँस पड़ी।

भूरे बालों वाला सिपाही कुछ आगे की ओर झुका, और बोला--'श्रीमतीजी, यह सुनकर आपका खिलखिलाना शायद बन्द हो जाएगा कि जिसपर आप हँस रही हैं, वह मेरी स्त्री है। अभी हाल ही में हमारे तीन जवान बेटे लड़ाई में मारे गये हैं। मैं खुद भी लड़ाई पर जा रहा हूँ; लेकिन जाने के पहले उन बेटों की माँ को पागलखाने पहुँचा देना ज़रूरी है।

सहसा डब्बे में एक भयंकर सन्नाटा छा गया, जैसे सबकी छाती पर साँप लोट गया हो।

- मेरी बायल ओ'रीयली

रविवार, 5 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: अति का अंत । लेखक: 'नरेंद्र' नोहर सिंह ध्रुव । स्वर: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



परलोक में सृष्टि के रचयिता, मनुष्यों के कृत्यों से काफ़ी परेशान थे।

रचयिता,पहले ही भू-लोक में महान हस्तियों के रूप में अवतरित होकर मनुष्यों को सही राह पर चलने की शिक्षा दे चुके थे, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी ।

उन्होंने अपने शिल्पकार को बुला कर कहा, " मनुष्यों ने अब बहुत अति कर ली है, जल्द ही इनके अति का अंत करना होगा। "

" पर मनुष्य तो आपको सबसे प्रिय हैं ना, फिर उनको..? ", शिल्पकार ने पूछा।

उसे उत्तर मिला,
" प्रिय तो मुझे वो जीव भी थे जिन्हें मनुष्य डायनासोर कहते हैं...।"

- 'नरेंद्र' नोहर सिंह ध्रुव