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रविवार, 30 जून 2019

मेरी लघुकथा "ईलाज" पर रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा


लघुकथा: ईलाज

स्टीव को चर्च के घण्टे की आवाज़ से नफरत थी। प्रार्थना शुरू होने से कुछ वक्त पहले बजते घण्टे की आवाज़ सुनकर वह कितनी ही बार अशांत हो कह उठता कि, "पवित्र ढोंगियों को प्रार्थना का टाइम भी याद दिलाना पड़ता है।" लेकिन उसकी मजबूरी थी कि वह चर्च में ही प्रार्थना कक्ष की सफाई का काम करता था। वह स्वभाव से दिलफेंक तो नहीं था, लेकिन शाम को छिपता-छिपाता चर्च से कुछ दूर स्थित एक वेश्यालय के बाहर जाकर खड़ा हो जाता। वहां जाने के लिए उसने एक विशेष वक्त चुना था जब लगभग सारी लड़कियां बाहर बॉलकनी में खड़ी मिलती थीं। दूसरी मंजिल पर खड़ी रहती एक सुंदर लड़की उसे बहुत पसंद थी।

एक दिन नीचे खड़े दरबान ने पूछने पर बताया था कि उस लड़की के लिए उसे 55 डॉलर देने होंगे। स्टीव की जेब में कुल जमा दस-पन्द्रह डॉलर से ज़्यादा रहते ही नहीं थे। उसके बाद उसने कभी किसी से कुछ नहीं पूछा, सिर्फ वहां जाता और बाहर खड़ा होकर जब तक वह लड़की बॉलकनी में रहती, उसे देखता रहता।

एक दिन चर्च में सफाई करते हुए उसे एक बटुआ मिला, उसने खोल कर देखा, उसमें लगभग 400 डॉलर रखे हुए थे। वह खुशी से नाच उठा, यीशू की मूर्ति को नमन कर वह भागता हुआ वेश्यालय पहुंच गया।

वहां कीमत चुकाकर वह उस लड़की के कमरे में गया। जैसे ही उस लड़की ने कमरे का दरवाज़ा बन्द किया, वह उस लड़की से लिपट गया। लड़की दिलकश अंदाज़ में मुस्कुराते हुए शहद जैसी आवाज़ में बोली, "बहुत बेसब्र हो। सालों से लिखी जा रही किताब को एक ही बार में पढ़ना चाहते हो।"

स्टीव उसके चेहरे पर नजर टिकाते हुए बोला, "हाँ! महीनों से किताब को सिर्फ देख रहा हूँ।"

"अच्छा!", वह हैरत से बोली, "हाँ! बहुत बार तुम्हें बाहर खड़े देखा है। क्या नाम है तुम्हारा?"

"स्टीव और तुम्हारा?"

"मैरी"

जाना-पहचाना नाम सुनते ही स्टीव के जेहन में चर्च के घण्टे बजने लगे। इतने तेज़ कि उसका सिर फटने लगा। वह कसमसाकर उस लड़की से अलग हुआ और सिर पकड़ कर पलँग पर बैठ गया।

लड़की ने सहज मुस्कुराहट के साथ पूछा, "क्या हुआ?"

वहीँ बैठे-बैठे स्टीव ने अपनी जेब में हाथ डाला और बचे हुए सारे डॉलर निकाल कर उस लड़की के हाथ में थमा दिए। वह लड़की चौंकी और लगभग डरे हुए स्वर में बोली, "इतने डॉलर! इनके बदले में मुझे क्या करना होगा?"

स्टीव ने धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "बदले में अपना नाम बदल देना।"

कहकर स्टीव उठा और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया। अब उसे घण्टों की आवाज़ से नफरत नहीं रही थी।
-0-

रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा 

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "इलाज" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

#लेखक - चंद्रेश छतलानी जी
#लघुकथा - इलाज
#शब्द_संख्या - 430

अगर सही अर्थों में देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति नास्तिक नहीं होता है। कम से कम यह बात हमारे भारत में तो लागू होती ही है। हमारे देश में ज्यादातर तथाकथित नास्तिक मानते हैं कि उसी धर्म के होकर, उसी धर्म और उनके ईश्वर की बुराई करना और दूसरे धर्म के बारे में अच्छा बोलना ही नास्तिकता है। दरअसल वे राजनीति से प्रेरित जो होते हैं। हमारे देश में धर्म, राजनीति में घुस गया है और विचारधाराएं इसे अपने नफा-नुकसान की तरह प्रयोग करती हैं। यह मुझे तबतक पता न चलता जबतक मैं एक ऐसे देश में नहीं गया जहाँ के अधिकतर लोग नास्तिक हैं और वह भी वास्तविक वाले नास्तिक। हालांकि, उस देश में आस्तिक भी हैं जो बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं लेकिन 20-25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं। मैंने इसकी तह में जाना चाहा तो पता चला कि बाकी के 75-80 प्रतिशत वास्तव में असली वाले नास्तिक हैं। मैंने जब उन नास्तिकों से उनकी धार्मिक मान्यताओं के बारे में जानना चाहा तो उनके हावभाव ऐसे थे जैसे कि मैंने कोई फालतू सा सवाल पूछा हो। वे बिल्कुल ही धार्मिक जैसे शब्द से अनभिज्ञ लगे। उन्हें कुछ भी नहीं पता। यहाँ तक कि यह भी नहीं कि उनके देश में पूजा पाठ की कोई परंपरा भी है। इनके व्यवहार में कोई कटुता, विद्वेष या विकार मुझे नजर ही नहीं आया। बड़े मिलनसार, सह्रदय और बिल्कुल उस परिभाषा से भिन्न जो हमें भारत के तथाकथित नास्तिकों में दिखाई देती है। निश्चित रूप से हमारे देश के अनेक नास्तिक मनोरोगी हैं जिन्हें बड़े 'इलाज' की जरूरत है। यहाँ यह कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि हर देश के तथाकथित आस्तिकों को किसी इलाज की आवश्यकता नहीं है। अर्थात, उन्हें भी है।

...यह तो सर्वविदित है कि किसी भी स्थान पर चल रहे कार्यकलापों का वहाँ के वातावरण में, वहाँ की फिजा में उसका अपना प्रभाव रहता है। यह प्रभाव वहां पर उपस्थित या उससे संबंधित सभी मनुष्यों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों पर समान रूप से अपना असर करता है लेकिन यह निर्भर करता है कि किसमें कितनी ग्राह्य क्षमता है। किसकी कैसी भावना है और किसका क्या उद्देश्य है? हमारे देवालयों में बहुत लोग जाते हैं जिसमें कोई भगवान को धन्यवाद कहने जाता है, कोई माफी मांगने जाता है, कोई आशीर्वाद, कृपा के लिए जाता है, कोई जेब काटने के लिए और कोई जूते-चप्पल की फिराक में।

रामचरित मानस में गोस्वामी तुसलीदास जी कहते हैं:
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

....तो वहाँ के वातावरण का असर लोगों की अपनी सोच और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि उन्हें वहाँ से क्या हांसिल हुआ, होता है या होगा?

प्रस्तुत लघुकथा में भी गिरजाघर में सफाई के काम में कार्यरत स्टीव का भी ऐसा ही कुछ हाल था। उसे ईश्वर पर कितना विश्वास था यह अलग बात है लेकिन उसे उस रूढ़ि से नफरत थी कि लोगों को घंटी बजाकर प्रार्थना की याद दिलानी पड़ती है। संभवतः यह उसकी अपनी सोच थी लेकिन मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर के संचालन के अपने नियम होते हैं और सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे कायदे होते हैं जिन्हें वहाँ की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए यह सब करना पड़ता है। खैर....अक्सर जिन्हें नियम, कायदे कानूनों से खासी परेशानी होती है उनके अपने कुछ अलग ही चरित्र होते हैं। स्टीव का भी यही हाल था। लेखक ने भले ही उसे दिलफेंक न कहा हो लेकिन जब-तब प्राकृतिक/अप्राकृतिक, अभिलाषायें/कुंठाएं सतह पर आ ही जाती हैं। इन्हीं कुंठाओं को शांत करने के लिए वह चला जाता था उस वैश्यालय में जहाँ नियत समय पर सारी लड़कियां बालकनी में खड़ी होती होंगी। शायद ग्राहकों को आमंत्रित करने का समय होता होगा। अब जब स्टीव एक नियत समय पर पहुंचता था तो घटना तो आगे के चरण पर जाना ही चाहेगी। उसे उस समूह की सबसे सुंदर लड़की बहुत पसंद थी और उसके साथ समय बिताने की कीमत थी 55 डॉलर। उसकी अंटी में 10-15 डॉलर से ज्यादा काब्यहि हुए ही नहीं। इतनी रकम उस सफाई कर्मचारी के पास शायद बड़ी थी। तो क्या करे? फिलहाल तो बस उसके दर्शन मात्र से ही सुख पा रहा था। कहते हैं कि आकर्षण के नियम (लॉ ऑफ अट्रैक्शन) का एक सिद्धान्त है कि जो आप चेतन मन से अधिक सोचते हैं वह धीरे-धीरे आपके अचेतन मन में प्रवेश कर जाता है और फिर अचेतन मन उसे आपके लिए उपलब्ध कराने में जुट जाता है। ध्यान रहे, अचेतन मन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी सोच अच्छी है ये बुरी। उसे तो हुक्म की तामील करनी होती है।

जब व्यक्ति का अंतर्मन अनुचित विचारों में लगा रहता है तो फिर किसी बाह्य देवालय के वश की बात नहीं होती है कि आपका आचरण बदल पाए। क्योंकि कि हर व्यक्ति का पहला देवालय उसके अंदर होता है और दूसरा बाहर। जब अंतर्मन ही आपने शुद्ध नहीं किया तो फिर बाहर के मंदिर से जुड़ना असंभव होता है।

स्टीव के अचेतन मन के प्रयासों से उसके विकारों को साकार करने के लिए उसे एक दिन सफाई करते हुए उसी गिरजाघर में किसी का बटुआ मिल गया जिसमें 400 डॉलर की बड़ी रकम थी। स्टीव को तो जैसे इन्हीं की दरकार थी। उसने यह परवाह भी नहीं की कि इस तरह से किसी के बटुए को हड़प लेना कितना बड़ा पाप है। हालांकि उसने चोरी नहीं की थी मगर यह किसी चोरी से कम भी नहीं थी। और जैसे उसकी मुराद पूरी हो गई थी। और फिर वह रकम लेकर वैश्यालय की ओर दौड़ गया, उसी सुन्दर लड़की के पास जिसे उसने बहुत समय से केवल देखकर संतोष किया था। हालांकि उसे पता था कि वह क्या करने जा रहा था, लेकिन किसी का बटुआ हड़पने और वैश्यालय की ओर कदम बढ़ाने से पहले वह प्रभु यीशु को मथ्था टेकना नहीं भूला। अब वह बिना देर किए, उस लड़की को पाना चाहता था और वासना से लथपथ सारी हदें पार करना चाहता था।

....एकतरफा ही सही, उसकी अपनी स्वप्न सुंदरी से मुलाकात और वार्तालाप शुरू हुआ। इससे पहले कि 'मिलन' की बहुप्रतीक्षित घड़ी आती, स्टीव को पता चला कि उसका नाम "मैरी" है। शायद बुराइयों से लदे उस व्यक्ति में गिरजाघर में सफाई के दौरान कहीं न कहीं दुआओं, प्रार्थनाओं, उद्घोषों से छन-छन कर आने वाला पवित्र नाम "मैरी" आज ऊपरी सतह पर आ गया था। आज गिरजाघर में सुने उस "मैरी" शब्द की आवृत्ति (frequency) संभवतः इस वैश्यालय में सुने शब्द से मेल खा गई थी। मन के किसी कौने से आवाज आई और हृदय परिवर्तन हो गया उसका। आखिर रोज-रोज की प्रार्थनाओं, घंटियाँ और वैश्यालय की ओर चलने से पहले प्रभु की चरण वंदना का कुछ तो असर होना ही था। इससे पहले कि वह उस खाई में गिरता, उसने अपने पास उपलब्ध सारे पैसे उस हसीन लड़की को दे दिए। स्टीव के मन में चल रहे झंझावतों से अनभिज्ञ वह सुंदरी तो जैसे घबरा ही गई थी कि इतने ज्यादा पैसे देकर अब उसे और न जाने क्या अनैतिक करना पड़ेगा? पूछने पर स्टीव इतना ही कह सका, "अपना नाम बदल लेना"...और फिर वह वैश्यालय, उस लड़की से दूर आ गया।

आज उसके अंतर्मन ने अनजाने ही सही, उसका 'इलाज' कर दिया था। अब उसके मन में मैरी और गिरजाघर से दूर भी वहाँ की पवित्र घंटियाँ सुनाई दे रही थीं। अब उसे उन आवाजों से कोई नफरत नहीं हो रही थी। मन से काले बादल छँट गए थे।

मैं छतलानी साहब को अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

#रजनीश_दीक्षित

शनिवार, 29 जून 2019

प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2018 प्राप्त विजेता लघुकथा:: अन्नदाता | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

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फसल कटाई के बाद उसके चेहरे और खेत की ज़मीन में कोई खास फर्क नहीं दिखाई दे रहा था। दोनों पर गड्ढे और रेशे। घर की चौखट पर बैठा धंसी हुई आंखों से वह कटी हुई फसल और काटने वाली ज़िन्दगी के अनुपात को मापने का प्रयास कर रहा था कि एक चमचमाती कार उसके घर के सामने आ खड़ी हुई। उसमें से एक सफेद कुर्ता-पजामा धारी हाथ जोड़ता हुआ बाहर निकला और उसके पास आकर बोला, "राम-राम काका।" और अपने कुर्ते की जेब से केसरिया सरीखा रंग निकाल कर उसके ललाट पर लगा दिया। उसने अचंभित होकर पूछा, "आज होली..."

उस व्यक्ति ने हँसते हुए उत्तर दिया, "नहीं काका। यह रंग हमारे धर्म का है, इसे सिर पर लगाये रखिये। दूसरे लोग हमारे धर्म को बेचना चाहते हैं, इसलिए आप वोट हमें देना ताकि हमारा धर्म सुरक्षित रहें और हां! हम और सिर्फ हम ही आपके साथ हैं और कोई नहीं।"

सुनकर उसने हाँ की मुद्रा में गर्दन हिलाकर कहा, "जी अन्नदाता।"

उस चमचमाती कार के जाते ही एक दूसरी चमचमाती कार उसके घर के सामने आई। उसमें से भी पहले व्यक्ति जैसे कपड़े पहने एक आदमी निकला। हाथ दिखाते हुए उस आदमी ने उसके पास आकर उसकी आँखों और नाक पर सफेद रंग लगाया और बोला, "देश को धर्म के आधार पर तोड़ने की साजिश की जा रही है। आप अपनी आंखें खुली रखें और देश की इज्जत बचाये रखने के लिये हमें वोट दें और हाँ! हम और सिर्फ हम ही आपके साथ हैं और कोई नहीं।"

उसे भी अपने साथ पा वह मुस्कुरा कर बोला, "जी अन्नदाता।"

उस व्यक्ति के जाते ही एक तीसरा आदमी अंदर आ गया। उसके चेहरे के रंगों को देखकर वह आदमी घृणायुक्त स्वर में बोला, "तुम खुद अन्नदाता होकर गलत रंगों में रंगे हो! अपने लिए खुद आवाज़ उठाओ, और हाँ! सिर्फ हम ही हैं जो तुम्हारे साथ हैं।" कहकर उस आदमी ने उसके मुंह पर लाल रंग मल दिया।

वह प्रफुल्लित हो उठा। सभी तो उसके साथ थे।

उसने अपने बायीं तरफ देखा, वहां वह खुद ही खड़ा था और दाएं तरफ भी वही। अपने सभी ओर उसने खुदको ही खड़ा पाया। अलग-अलग रंगों से पुता हुआ उसका हर रूप अलग-अलग कुर्ता-पजामा धारियों के नाम के ढोल बजाता हुआ चल दिया, इस बात से अनभिज्ञ कि घर की चौखट पर एक रंगीन फंदे में लुढ़की हुई गर्दन लिए उसका जिस्म सड़ने लगा है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शुक्रवार, 28 जून 2019

लघुकथा : छुआछूत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

'अ' पहली बार अपने दोस्त 'ब' के घर गया, वहां देखकर उसने कहा, "तुम्हारा घर कितना शानदार है - साफ और चमकदार"
"सरकार ने दिया है, पुरखों ने जितना अस्पृश्यता को सहा है, उसके मुकाबले में आरक्षण से मिली नौकरी कुछ भी नहीं है, आओ चाय पीते हैं"
चाय आयी, लेकिन लाने वाले को देखते ही 'ब' खड़ा हो गया, और दूर से चिल्लाया, "चाय वहीँ रखो...और चले जाओ...."
'अ' ने पूछा, "क्या हो गया?"
"अरे! यही घर का शौचालाय साफ़ करता है और यही चाय ला रहा था!"

गुरुवार, 27 जून 2019

आलेख: लघुकथा समीक्षा भाग-2 | समीक्षक के गुण | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


इस आलेख के भाग 1 (https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/06/blog-post_8.html) में हमने यह चर्चा की थी कि समीक्षा और आलोचना में भी ईमानदारी की कमी है। बहुत सारी साहित्यिक समीक्षाएं केवल उस पुस्तक की अनुक्रमणिका को देख कर लिखी जा रही है। एक पत्रिका की समीक्षा लिखने से पूर्व उस पत्रिका को पूरा पढ़ना फिर समझना और आत्मसात करना आवश्यक है लेकिन कई बार समीक्षाएं पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ भी ईमानदारी की कमी है।

इस भाग में इसी बात को आगे बढ़ाते हुए एक समीक्षक या आलोचक में क्या गुण होने चाहिए उस पर चर्चा करते हैं।

समीक्षक या आलोचक के गुण 

सभी अन्य कार्यों की तरह समीक्षक समीक्षा के प्रति ईमानदार तो हो ही, अध्ययनशीलता अथवा समय की कमी के कारण पूरी पुस्तक नहीं पढे बिना समीक्षा ना करें।

हालांकि सबसे
महत्वपूर्ण है आपका समीक्षात्मक विवेक जिसके जरिये आपको लेखक की आत्मा में प्रवेश करना है, उसके भाव और कला को उसकी अभिव्यक्ति के जरिये पहचानना है। उस लेखक की अन्य रचनाएँ आपने पढ़ी हों तो बेहतर और लेखक के व्यक्तित्व के बारे में आप जानते हों तो आप समीक्षा के लिए बेहतरीन व्यक्ति हैं। रचनाकार की समान अनुभूति से सहृदय होकर जुड़ना समीक्षक का मूलभूत गुण है।

समीक्षक निष्पक्ष होकर या यों कहें कि तटस्थ रहकर अर्थात अपने स्वयं के आग्रहों से मुक्त होकर समीक्षा करे। इन दिनों लघुकथा में समीक्षा के तौर पर वाह-वाही का दौर प्रारम्भ हो गया है, जो कि भविष्य में लघुकथा के लिए घातक सिद्ध होगा। व्यक्तिगत दिलचस्पी की ज़मीन पर किसी लघुकथा के गुणों अथवा अवगुणों की विवेचना करने से समीक्षा रूपी पौधा नहीं उग सकता है। 

समीक्षक में सत्य कहने और लिखने का साहस भी होना चाहिए, हालांकि मैं यह मानता हूँ कि समीक्षक एक अच्छा मार्गदर्शक भी होता है और कितनी ही बार लेखक का mentor भी हो जाता है। इसलिए समीक्षक के पास, जिस तरह की रचना की वह समीक्षा कर रहे हैं, का उचित ज्ञान, हृदय में संवेदनशीलता और चिंतन करने की क्षमता भी होनी चाहिए।

समीक्षक को अपनी बातों को तर्कसंगत और तथ्यपरक ढंग से रखना भी आना चाहिएसमीक्षा में देशी-विदेशी रचनाओं/पुस्तकों आदि के अध्ययन कर उनके संदर्भ भी देने चाहिए

समीक्षक को विदेशी साहित्य (रचनाएँ और पुस्तकें आदि) पढ़ना तो चाहिए लेकिन समीक्षा में उनकी नक़ल नहीं करनी है, बल्कि अपने साहित्य को समझ कर उसकी उपयोगिता पर मनन करना चाहिए।

समीक्षक को किसी भी तथ्य तक पहुँचने में उतावला नहीं होना चाहिए

अपनी पहली समीक्षा प्रारम्भ करने से पहले निम्न शब्दों के अर्थों को लघुकथा के संदर्भ में अवश्य समझिए:
आधुनिकता (समसामयिकता), प्रयोगशीलता, अनुभूति, क्षण,  सत्य, यथार्थ, मानव-मूल्य, विसंगति, घटित होना, विडंबना, उपदेशात्मक, मनोरंजन, गंभीरता, संचेतना, व्यापकता, उपयोगिता, साहित्येतर, सामाजिक सरोकार, शिल्प, भाषा, पाठक की बोध-वृति, बिम्ब, प्रगतिशीलताप्रतिबद्धताप्रतिमान और सपाटबयानी।

इसी प्रकार साहित्य की दृष्टि से इन शब्दों पर भी विचार कीजिये:
साहित्य की जड़ता, कृत्रिमता, अप्रासंगिक लेखन, स्वच्छंदता, परम्परागत लेखन, वैयक्तिक रुचि, साहित्यिक दृष्टि, विचारों की प्रौढ़ता, रचनात्मक विचार, युगीन हलचल, वैचारिक द्वंद्, सामाजिक-आर्थिक सहसंबंध, राजनीतिक चिंतन, धार्मिक चिंतन, राष्ट्रीय चिंतन और वैश्विक चिंतन।


क्रमशः:

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

Read Also:

आलेख: लघुकथा समीक्षा भाग-1 

बुधवार, 26 जून 2019

अखिल भारतीय 'शकुन्तला कपूर स्मृति' लघुकथा प्रतियोगिता में पुरस्कृत मेरी लघुकथा : अस्वीकृत मृत्यु


अस्वीकृत मृत्यु

अंतिम दर्शन हेतु उसके चेहरे पर रखा कपड़ा हटाते ही वहाँ खड़े लोग चौंक उठे। शव को पसीना आ रहा था और होंठ बुदबुदा रहे थे। यह देखकर अधिकतर लोग भयभीत हो भाग निकले, लेकिन परिवारजनों के साथ कुछ बहादुर लोग वहीँ रुके रहे। हालाँकि उनमें से भी किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि शव के पास जा सकें। वहाँ दो वर्दीधारी पुलिस वाले भी खड़े थे, उनमें से एक बोला, "डॉक्टर ने चेक तो ठीक किया था? फांसी के इतने वक्त के बाद भी ज़िन्दा है क्या?"

दूसरा धीमे कदमों से शव के पास गया, उसकी नाक पर अंगुली रखी और हैरत भरे स्वर में बोला, "इसकी साँसें चल रही हैं!" यह सुनते ही परिजनों की छलकती आँखें ख़ुशी से चमक उठीं।

अब शव के पूरे शरीर में सुगबुगाहट होने लगी और वह उठ कर बैठ गया। परिजनों में से एक पुलिस वालों से बोला, "इन्हें आप लोग नहीं ले जायेंगे। यह तो नया जन्म हुआ है!"

और वह स्थिर आँखों से देखते हुए अपनी पूरी शक्ति लगाकर खड़ा हुआ, अपने ऊपर रखी चादर को ओढा और घर के अंदर चला गया। परिजन भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े।

अंदर जाकर वह एक कुर्सी पर बैठ गया और अपने परिजनों को देख कर मुस्कुराने का असफल प्रयास करते हुए बहुत धीमे स्वर में बोला, "ईश्वर ने... फिर भेज दिया... तुम सबके पास.."। परिजन उसकी बात सुन तो नहीं पाये पर समझकर नतमस्तक हो ईश्वर का शुक्र मनाया।

लेकिन उसी वक्त उसके मस्तिष्क में वे शब्द गूंजने लगे, जब उसे नर्क ले जाया गया था और वहाँ दरवाज़े से ही धकेल कर फैंक दिया गया, इस चिंघाड़ के साथ कि, "पापी! तूने एक मासूम के साथ बलात्कार किया है... तेरे लिए तो नर्क में भी जगह नहीं है... फैंक दो इस गंदगी को...."

और उसने देखा कि ज़मीन पर छोटे-छोटे कीड़े उससे दूर भाग रहे हैं।


मंगलवार, 25 जून 2019

प्रेरणा अंशु जून 2019 में प्रकाशित मेरी लघुकथा : धार्मिक पुस्तक




























लघुकथा: धार्मिक पुस्तक

वह बहुत धार्मिक था, हर कार्य अपने सम्प्रदाय के नियमों के अनुसार करता। रोज़ पूजा-पाठ, सात्विक भोजन, शरीर-मन की साफ़-सफाई, भजन सुनना उसकी दिनचर्या के मुख्य अंग थे। आज भी रोज़ की तरह स्नान-ध्यान कर, एक धार्मिक पुस्तक को अपने हाथ में लिए, वह अपनी ही धुन में सड़क पर चला जा रहा था, कि सामने से सड़क साफ़ करते-करते एक सफाईकर्मी अपना झाड़ू फैंक उसके सामने दौड़कर आया।

वह चिल्लाया, "अरे शूद्र! दूर रह....."

लेकिन वह सफाईकर्मी रुका नहीं और उसके कंधे को पकड़ कर नीचे गिरा दिया, वो सफाईकर्मी के साथ धम्म से सड़क पर गिर गया।

अगले ही क्षण उसके पीछे से एक कार तीव्र गति से आई और उस सफाईकर्मी के एक पैर को कुचलती हुई निकल गयी।

वह अचंभित था, भीड़ इकट्ठी हो गयी, और सफाईकर्मी को अस्पताल ले जाने के लिए एक गाड़ी में बैठा दिया, वह भी दौड़ कर उस गाड़ी के अंदर चला गया और उस सफाईकर्मी का सिर अपनी गोद में रख दिया।

सफाईकर्मी ने अपना सिर उसकी गोद से हटाने का असफल प्रयत्न कर, कराहते हुए कहा, "आप के... पैर.... गंदे हो जायेंगे।"

उसकी आँखों में आँसू आ गए और चेहरे पर कृतज्ञता के भाव। उसने प्रयास किया पर वह कुछ बोल नहीं पाया, केवल उस सफाईकर्मी के सिर पर हाथ रख, गर्दन ना में घुमा दी।

सफाईकर्मी ने फिर पूछा, "आपकी किताब.... वहीँ गिरी रह गयी...?"

"नहीं, मेरी गोद में है।" अब उसकी आवाज़ में दृढ़ता थी।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

सोमवार, 24 जून 2019

लघुकथा : सुख (ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश') तथा कटती हुई हवा (डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी)

सुमन सागर त्रैमासिक पत्रिका के जुलाई-सितंबर 2019 के अंक में वरिष्ठ लघुकथाकार ओमप्रकाश क्षत्रिय जी सर के साथ लघुकथा 'सुख' के साथ मेरी लघुकथा 'कटती हुई हवा'।






























कटती हुई हवा

पिछले लगभग दस दिनों से उस क्षेत्र के वृक्षों में चीख पुकार मची हुई थी। उस दिन सबसे आगे खड़े वृक्ष को हवा के साथ लहराती पत्तियों की सरसराहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना, वह सरसराहट उससे कुछ दूरी पर खड़े एक दूसरे वृक्ष से आ रही थी।

सरसराहट से आवाज़ आई, "सुनो! "
फिर वह आवाज़ कुछ कांपने सी लगी, "पेड़खोर इन्सान...  यहां तक पहुंच चुका है। पहले तो उसने... हम तक पहुंचने वाले पानी को रोका और अब हमें...आssह!"

और उसी समय वृक्ष पर कुल्हाड़ी के तेज प्रहार की आवाज़ आई। सबसे आगे खड़े उस वृक्ष की जड़ें तक कांप उठीं। उसके बाद सरसराहट से एक दर्दीला स्वर आया,
"उफ्फ! हम सब पेड़ों का यह परिवार… कितना खुश और हवादार था। कितने ही बिछड़ गए और अब ये मुझ पर... आह! आह!"

तेज़ गति से कुल्हाड़ियों के वार की आवाज़ ने सरसराहट की चीखों को दबा दिया। कुछ ही समय में कट कर गिरते हुए वृक्ष की चरचराहट के स्वर के साथ सरसराहट वाली आवाज़ फिर आई, इस बार यह आवाज़ बहुत कमजोर और बिखरी हुई थी, "सुनो! मैं जा रहा हूँ। मेरे बहुत सारे बीज धरती माँ पर बिखर गए हैं। उगने पर उन्हें हवा-पानी, रोशनी और गर्मी के महत्व को समझाना… मिट्टी से प्यार करना भी। प्रार्थना करना… कि अगली बार मैं किसी ऊंचे पहाड़ पर उगूं… जहां की हवा भी ये… पेड़खोर छू नहीं पाएं। उफ्फ...मेरी जड़ें भी उखड़..."

धम्म से वृक्ष के गिरने का स्वर गूँजा और फिर चारों तरफ शांति छा गयी। सबसे आगे खड़ा वृक्ष शिकायती लहज़े में सोच रहा था, "ईश्वर, तुमने हम पेड़ों को पीड़ा तो दी, पैर क्यों नहीं दिए?"