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शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

सब्ज़ी मेकर (लघुकथा)

आज भाई दूज पर्व पर लघुकथा

इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, "ममा... दीदी बना रही है... मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!"
सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, "चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा..."
उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, "दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।"
लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराहट के मारे उसके हाथ में पकड़ा हुई मिर्ची का डिब्बा भी सब्ज़ी में गिर गया। वह और घबरा गयी, उसकी आँखों से आँसूं बहते हुए एक के ऊपर एक अतिक्रमण करने लगे और वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी।
उसी मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने देखा कि खिड़की के बाहर खड़ा उसका भाई उसे देखकर मुंह बना रहा था। वह उठी और खिड़की बंद करने लगी, लेकिन उसके भाई ने एक पैकेट उसके सामने कर दिया। उसने चौंक कर पूछा, "क्या है?"
भाई धीरे से बोला, "पनीर की सब्ज़ी है, सामने के होटल से लाया हूँ।"
उसने हैरानी से पूछा, "क्यूँ लाया? रूपये कहाँ से आये?"
भाई ने उत्तर दिया, "क्रैकर्स के रुपयों से... थोड़ा पोल्यूशन कम करूंगा... और क्यूँ लाया!"
अंतिम तीन शब्दों पर जोर देते हुए वह हँसने लगा।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शनिवार, 30 सितंबर 2017

रावण का चेहरा (लघुकथा)

दशहरा विशेष लघुकथा

हर साल की तरह इस साल भी वह रावण का पुतला बना रहा था। विशेष रंगों का प्रयोग कर उसने उस पुतले के चेहरे को जीवंत जैसा कर दिया था। लगभग पूरा बन चुके पुतले को निहारते हुए उसके चेहरे पर हल्की सी दर्द भरी मुस्कान आ गयी और उसने उस पुतले की बांह टटोलते हुए कहा, "इतनी मेहनत से तुझे ज़िन्दा करता हूँ... ताकि दो दिनों बाद तू जल कर खत्म हो जाये! कुछ ही क्षणों की जिंदगी है तेरी..."
कहकर वह मुड़ने ही वाला था कि उसके कान बजने लगे, आवाज़ आई, 
"कुछ क्षण?"
वह एक भारी स्वर था जो उसके कान में गुंजायमान हो रहा था, वह जानता था कि यह स्वर उसके अंदर ही से आ रहा है। वह आँखें मूँद कर यूं ही खड़ा रहा, ताकि स्वर को ध्यान से सुन सके। फिर वही स्वर गूंजा, "तू क्या समझता है कि मैं मर जाऊँगा?"
वह भी मन ही मन बोला, "हाँ! मरेगा! समय बदल गया है, अब तो कोई अपने बच्चों का नाम भी रावण नहीं रखता।"
उसके अंदर स्वर फिर गूंजा, "तो क्या हो गया? रावण नहीं, अब राम नाम वाले सन्यासी के वेश में आते हैं और सीताओं का हरण करते हैं... नाम राम है लेकिन हैं मुझसे भी गिरे हुए..."
उसकी बंद आँखें विचलित होने लगीं और हृदय की गति तेज़ हो गयी उसने गहरी श्वास भरी, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था, स्वर फिर गूंजा, "भूल गया तू, मैनें तो सीता को हाथ भी नहीं लगाया था लेकिन किसी राम नाम वाले बहरूपिये साधू ने तेरी ही बेटी..."
"बस...!!" वह कानों पर हाथ रख कर चिल्ला पड़ा।
और उसने देखा कि जिस पुतले का जीवंत चेहरा वह बना रहा था, वह चेहरा रावण का नहीं बल्कि किसी ढोंगी साधू का था।
- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

परिधान (खलील जिब्रान) - लघुकथा

अनुवादक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



एक दिन खूबसूरती और बदसूरती एक समुद्र के किनारे पर मिलीं और उन्होंने एक दूसरे से कहा, "आओ, हम समुद्र में नहाते हैं|"
तब उन्होंने अपनी-अपनी पोशाक उतारी और पानी में तैरने लगी| और कुछ समय पश्चात् बदसूरती तट पर पुनः आई और खूबसूरती के परिधान पहन कर दूर चली गयी|
और खूबसूरती भी समुद्र से बाहर आई, उसे अपनी पोशाक नहीं मिली| उसे अपनी नग्नता पर बहुत शर्म आ रही थी, अतः उसने बदसूरती की पोशाक पहन ली और अपने रास्ते पर चल दी|
और उस दिन से आदमी और औरतें एक को दूसरा जानने की भूल करते हैं|
फिर भी अभी तक कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने खूबसूरती का चेहरा देखा है और वे उसे उसके परिधानों के बावजूद भी जानते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो बदसूरती का चेहरा जानते हैं और उसके परिधान उनकी आँखों के आगे नहीं छाते|

शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

डॉ. बलराम अग्रवाल से मेरी पहचान

डॉ. बलराम अग्रवाल देश के जाने-माने लघुकथा के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं, कल फेसबुक के लघुकथा को समर्पित "लघुकथा के परिंदे" समूह में "सवाल-जवाब" इवेंट के अंतर्गत उनके बारे में लिखने का मौका मिला, कुछ इस तरह से 

डॉ. बलराम अग्रवाल से मेरी पहचान


किसी रचनाकार की सबसे बड़ी पहचान उनकी रचनाएँ होती हैं। डॉ. बलराम जी अग्रवाल से कभी रूबरू मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, अलबत्ता उनकी रचनाओं और लेखों से उनके व्यक्तित्व को जानने का मेरा निरंतर प्रयास अवश्य रहा है। उनसे मेरी पहचान उनकी रचनाओं के द्वारा ही हुई है। सर्वप्रथम इन्टरनेट पर लघुकथा सर्च करते हुए गद्य कोश नामक वेबसाइट में एक व्यक्ति की 20-25 लघुकथाओं की लिस्ट दिखाई दी। 'गद्य कोश' वेबसाइट का नाम भी आकर्षक है, अतः लघुकथा कहने-सीखने की पहली स्टेज पर खड़ा मैं, उस वेबसाइट में एक ही व्यक्ति की इतनी रचनाओं को देखकर आकर्षित हुआ था और तब पहली बार परिचय हुआ बलराम जी अग्रवाल से। वह लिस्ट उन्हीं की रचनाओं की थी। मेरे द्वारा पढी गयी उनकी पहली लघुकथा है - "अकेला कब तक लड़ेगा जटायु"। गद्य कोश की उस लिस्ट में यह शीर्षक पढ़ते ही उत्सुकता जाग उठी कि यह रचना कैसी होगी? यह कालजयी रचना मैनें आज तक सहेज कर रखी है। उसके कथानक से इस रचना का उद्देश्य मुझे समाज को यह समझाना प्रतीत हुआ कि 'जटायु तो अकेला ही था और अकेला ही है लेकिन आज के युग में रावणों की संख्या बढ़ गयी है। गुंडों के गुट बन गए हैं और गुट का हर व्यक्ति रावण का कर्तव्य अदा कर रहा है, परन्तु नारी रुपी सीता की रक्षा में जटायु का साथ देने की बजाय लोग शांति से रहना पसंद करते हैं।' यह रचना समाज के अजटायु रूप के प्रति हृदय में आक्रोश भर देती है।

सौभाग्यवश इन दिनों पड़ाव और पड़ताल, जिसे मैं 'लघुकथा का बाइबिल' मानता हूँ और अपने मित्रों से भी ऐसे ही परिचय करवाता हूँ, का खंड 17 ही पढ़ रहा हूँ, जिसमें बलराम अग्रवाल जी की 66 लघुकथाएं हैं और उनकी पड़ताल की गयी है। खंड के प्रारंभ में 'मेरी लघुकथा यात्रा' के अंतर्गत डॉ. बलराम जी ने "लघुकथा हमें साथ लेकर चलती है" शीर्षक के अंतर्गत अपनी लघुकथा यात्रा के विस्तृत वर्णन के प्रारंभ में गीता को उद्धृत करते हुए कुछ इस तरह से कहा है कि "व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ ग्रहण करता है वह 'आहार' है और जो कुछ भी देता है वह 'विहार' है"। गीता के अध्याय 6 के श्लोक संख्या 7 "युक्ताहार विहारस्य...भवति दू:खहा" का उल्लेख करते हुए उन्होंने अन्न को स्थूल से सूक्ष्म तक परिभाषित भी किया। हालाँकि यह बात लघुकथा मानकों के लिए इतनी महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन महत्वपूर्ण है बलराम जी का अध्ययन। उन्होंने इसे इस तरह भी ग्रहण किया कि व्यक्ति जिस तरह के साहित्य को पढ़ेगा - वैसा ही उसकी बुद्धि का विकास भी होगा। उन्होंने गीता का इतना गहन अध्ययन किया है तो किस तरह के ज्ञान ने उनके मन-मस्तिष्क का विकास किया होगा यह तो हम समझ ही सकते हैं; साथ ही गीता स्वयं भी सरल भाषा में कही गयी वह लघु पुस्तक है जिसका अर्थ तो आसानी से समझा जा सकता है लेकिन भावार्थ बहुत मुश्किल से। यही तो लघुकथा भी है सरल शब्दों में कही गयी लघु रचना जिसका विस्तार अनंत तक हो सकता है। लघुकथा शब्द किसी ने न सुना हो - गीता समझने का प्रयास किया हो तो लघुकथा यात्रा अपने-आप ही शुरू हो जाती है। पड़ाव और पड़ताल के खंड 17 में बलराम जी ने अपनी लघुकथा यात्रा के बारे में बताने से पहले एक ऐसा सन्देश दिया है जो न केवल लघुकथा का एक दृश्य खींचने का सामर्थ्य रखता है वरन उनके व्यक्तित्व के बारे में भी एक गहरा सन्देश देकर जाता है।
लघुकथाओं के प्रेमियों ने यदि बलराम जी अग्रवाल की रचना "नया नारा" नहीं पढ़ी तो उनसे बहत कुछ छूटा हुआ है। दोगली मानसिकता के विरोध में जंगी "इन्कलाब जिंदाबाद" के स्थान पर "इन-की-लाश झंडाबाद" का नारा लगाता है यह कह कर कि //नारे बनाये जाते हैं - रटे नहीं जाते, दमन के खिलाफ सिर्फ आवाज़ ही नहीं तलवार भी उठाऊंगा... मांगे नहीं मानी गयी तो इन-की-लाश ही करूंगा और झंडे पर लटका दूंगा।// आक्रोश में डूबी यह पंक्ति कितने ही प्रश्न छोड़ जाती है - जंगी "इन्कलाब जिंदाबाद" क्यों नहीं कह रहा?, अपनी मांगे मनवाने के लिए तलवार उठाने की बात उसके दिमाग में क्यों आई, उसने कितना शोषण सहा या देखा होगा? और झन्डे पर लटका दूंगा - झंडे अर्थात प्रशासन/सरकार का व्यक्ति की बजाय झंडे के मोह के प्रति विरोध का सटीक चित्रण एक पंक्ति द्वारा किया है।
मैनें विधा के प्रारंभिक अध्ययन के समय कुछ नोट्स बनाये थे, उनमें इन्टरनेट के जरिये ही बलराम अग्रवाल जी सर के विचारों को भी एकत्रित किया था, लघुकथा विधा में परिवर्धन का आकलन करते हुए वे कहते हैं कि, "आरम्भिक लघुकथाएँ आम तौर पर उपदेश और उद्बोधन की मुद्रा में नजर आती हैं या फिर व्यंग्य व कटाक्षपरक पैरोडी कथा के रूप में, जबकि समकालीन लघुकथा मानवीय संवेदना को प्रभावित करने वाली बाह्य भौतिक स्थिति अथवा आन्तरिक मनःस्थिति के चित्रण मात्र से पाठक मन में आकुलता उत्पन्न करने का, मस्तिष्क में द्वंद्व उत्पन्न करने का दायित्व-निर्वाह करती है। अध्ययन से सिद्ध होता है कि समकालीन लघुकथा पाठक के समक्ष सिर्फ निदान प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं।"
केवल रचनाएँ ही नहीं डॉ. बलराम जी अग्रवाल की रचनाओं के शीर्षक भी मनन करने योग्य हैं - 'अकेला कब तक लड़ेगा जटायु' के अतिरिक्त 'कंधे पर बेताल', 'एल्बो', 'और जैक मर गया', 'अलाव के इर्द-गिर्द', 'अज्ञात-गमन', 'बदलेराम', 'अथ ध्यानम', 'ब्रह्म सरोवर के कीड़े', 'कसाईघाट', 'आखिरी उसूल' आदि कई लघुकथाओं के शीर्षक ही अपने आप में इतना सामर्थ्य रखते हैं कि पाठक का ध्यान स्वतः ही आकर्षित हो जाये।
अंत में एक साक्षात्कार में बलराम अग्रवाल जी के द्वारा कहे गए शब्द उद्धृत करना चाहूँगा,
"लघुकथाकार के रूप में मैं केवल हिन्दी समाज से ही नहीं समूचे मानव समुदाय से मुखातिब हूँ और अपनी बात को ‘प्रवचन’, ‘सैद्धांतिक आदेश’ या ‘नैतिक निर्देश’ के रूप में बोलने की बजाय रचनात्मक लघुकथा के रूप में ही रखना ज्यादा पसन्द करूँगा।"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

सुभाष नीरव जी की लघुकथा "तृप्ति" और मेरी जिज्ञासाएं

साहित्य की कोई भी विधा हो, रचनाकारों को लगातार अच्छी रचनाओं गहन अध्ययन करते रहना चाहिये, पढने ही से लेखन प्रगाढ़ होगा। वरिष्ठ रचनाकार, जो वर्षों से विधा की साधना कर रहे हैं, की रचनाओं में आपको उनके अनुभवों के शब्द, शिल्प और विभिन्न प्रयोग मिलेंगे। परन्तु कई बार हम उनकी रचनाओं की तह तक नहीं पहुँच पाते और तब यदि कोई वरिष्ठ रचनाकार अपने लेखन के अनुभव हमसे साझा कर लें तो निःसंदेह हमारा अध्ययन अधिक सबल हो जाता है।
कुछ दिनों पूर्व ही वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुभाष नीरव की एक नई लघुकथा "तृप्ति" को पढ़ने का अवसर मिला, आपकी रचनाएँ मुझे बहुत प्रभावित करती हैं, इसलिए ध्यान से पढने का प्रयास किया। तब दो प्रश्न विचलित करने लगे और दोनों प्रश्न मैनें सुभाष नीरव जी के समक्ष रख दिए, ताकि रचना का मर्म समझ सकूं। उन्होंने भी दोनों प्रश्नों के उत्तर देकर मुझे संतुष्ट किया। फिर एक विचार यह भी आया कि इन उत्तर रुपी सुभाष नीरव जी के अनुभवों को क्यों न आप सभी से भी साझा किया जाये, ताकि हम सभी लाभ उठा सकें। उनसे पूछा तो उन्होंने भी बड़ी उदारता के साथ इसकी अनुमति दे दी। सबसे पहले उनकी रचना पढिये और उसके बाद प्रश्न और उत्तर।

तृप्ति (सुभाष नीरव)

सुबह की सैर कर हरीलाल धीरे धीरे छड़ी के सहारे घर लौटे थे तो बेहद प्रसन्न थे, पर घर में बहू-बेटा और बच्चों के चेहरे तमतमाये मिले। वह बिना कुछ बोले अपने स्टोरनुमा छोटे-से कमरे में घुस गए और हाथ में पकड़ी छड़ी को दीवार के सहारे टिका अपने बैड पर बैठ गए। फिर उन्होंने पेट पर हाथ फेर एक लम्बी डकार ली। अमूमन वह आधे पौने घंटे में सैर करके लौट आते थे, आज उनकी सैर डेढ़-दो घंटे की हो गई थी।
पहले बेटा भन्नाया हुआ उनके कमरे में घुसा, “ये मैं क्या सुन रहा हूँ पिताजी?”
पीछे-पीछे बहू भी लाल-पीली हुई-सी कमरे के दरवाज़े पर आ खड़ी हुई, “पूरे मुहल्ले में चर्चा हो रही है… हम क्या आपको खाने को कुछ नहीं देते ?”
“क्या हो गया ? तुम दोनों इतना क्यों गरम हो रहे हो?” हरीलाल ने बैड पर बैठे-बैठे दोनों की तरफ़ नज़रें उठाकर पूछा।
“पड़ोसी रामकिशन आया था। बता रहा था कि रोहित के दादा मंदिर की सीढ़ियों पर…” बेटा कहते कहते रुक गया।
“शरम नहीं आई आपको, भिखारियों की पंगत में बैठकर श्राद्ध खाते रहे… अपनी नहीं तो हमारी इज्जत का ही ख्याल रखा होता ?” बहू की आवाज़ कुछ तीखी हो गई।
“मैं तो थोड़ा सुस्ताने को मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गया था… लोग खीर, पूरी, आलू की सब्जी… केले देते चले गए। मैं तो परसाद समझ स्वाद स्वाद में खाता रहा… मुझे तो पता ही नहीं चला कि मेरे इर्दगिर्द भिखारी बैठे थे या कोई और्… ।” हरीलाल ने मुस्कराकर जवाब दिया।
फिर, बहू-बेटा की ओर देख पेट पर हाथ फेरते हुए हुए बोले, “सच बेटा ! बड़ा स्वाद आया… बहुत दिन बाद ये चीजें खाने को मिली थीं, मन तृप्त हो गया…।”
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प्रश्न 1 (चंद्रेश): क्या रचना में अंग्रेजी शब्द बैड की जगह पलंग या किसी अन्य शब्द का प्रयोग कर सकते हैं? चूँकि बैड प्रचलित शब्द है और इसका अर्थ पलंग, चारपाई आदि हो सकते हैं? और यदि पलंग है तो क्या यह माना जा सकता है कि पिता का इतना तो ध्यान रखा जा रहा था कि कम से कम पलंग उपलब्ध था?
उत्तर (श्री सुभाष नीरव): मैं हिंदी में अपनी रचनाओं में बोलचाल की भाषा के शब्द प्रयोग करता रहता हूँ चाहे वे अंग्रेजी के हों या पंजाबी के। रही बात 'बैड' की, तो मित्र जब हम हिंदी वाले 'बैंक', 'रेल', 'स्कूल' 'बस', 'मोटर', 'कार', 'स्कूटर' शब्द खूब और प्रतिदिन इस्तेमाल करते हैं तो इसका कारण है कि अब ये हमारी हिंदी, हमारी बोली में रच बस गए शब्द हैं, और अगर ये रच बस गए हैं तो ये जब साहित्य में आते हैं तो आपत्ति क्यों? बैड की जगह पलँग, चारपाई, बिस्तर कुछ भी हो सकता था, पर यह एक प्रवाह में इस्तेमाल हो गया और मुझे कुछ भी अटपटा नहीं लगा।
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प्रश्न 2 (चंद्रेश): अंत में पिता तृप्त हुए - यह तृप्ति आज के भारतीय समाज और लघुकथाओं को पढ़ कर यह मानी जा सकती है कि पिता को खाने के लिए नहीं मिल रहा था लेकिन क्या रचना के अनकहे में परिवार की आर्थिक कमजोरी भी बताई जा रही है?
उत्तर (श्री सुभाष नीरव): बूढ़े की तृप्ति के पीछे घर की आर्थिक स्थिति का कमजोर होना नहीं, मध्यम और खाते पीते घरों में भी बूढ़ों की उपेक्षा, उनकी इच्छा को इग्नोर करने की बात अधिक है। उदाहरण देता हूँ अपना ही, मेरे पिता जो छोटे भाई के साथ रहते थे, जब मेरे घर रहने आये तो मेरी पत्नी से बेहद झिझकते हुए बोले - बेटा, करारी सी आलू - बड़ी की सब्जी बनाना, बहुत मन कर करता है। महीनों हो गए।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

सोमवार, 2 मार्च 2015

लघुकथा समाचार

समाज का दर्पण है लघुकथा साहित्य
Jagran | 27 Feb 2015 | Kanpur

हिंदी लघुकथा का साहित्य समाज का दर्पण है। लघु कथाएं वैदिक संस्कृति से जुड़ी हैं। यह बात शुक्रवार को अकबरपुर महाविद्यालय में आयोजित दो दिवसीय हिंदी गोष्ठी के समापन पर वक्ताओं ने कही।

गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वीएसएसडी कालेज के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. रमेश चंद्र शर्मा ने बोध कथा व लघु कथा को वैदिक संस्कृति से जोड़ते हुए इसके विकास का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि लघु कथा समाज की भावनाओं से जुड़ा है। मुख्य वक्ता देवरिया के डॉ. शिव नारायण सिंह ने वाद संवाद के माध्यम से हिंदी लघु कथा साहित्य का तार्किक विश्लेषण किया। विशिष्ट वक्ता के रूप में वीएसएसडी कालेज के डॉ. राकेश शुक्ला ने हिंदी लघु कथा साहित्य को समाज का दर्पण बताया। गोष्ठी में डॉ. रंजन त्रिपाठी , डॉ. ऊषा किरण अग्निहोत्री डॉ. प्रदीप दीक्षित, पं. रमाकांत मिश्रा, हिंदी लघु कथा साहित्य पर विस्तार से प्रकाश डाला। इस मौके पर डॉ.सीपी पाठक ने धन्यवाद व संचालन डॉ. इंद्रमणि ने किया। कार्यक्रम में डॉ. देश दीपक, डॉ. अंकित, डॉ. देवव्रत, डॉ. सीमा द्विवेदी, डॉ. रक्षा गुप्ता, डॉ. रश्मि पांडेय आदि मौजूद रहे।


News Source:
https://www.jagran.com/uttar-pradesh/kanpur-dehat-12120810.html