रविवार, 29 सितंबर 2024

पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । समीक्षक-रमाकांत चौधरी

 गहन भावपूर्ण कृति : घरों को ढोते लोग (पुस्तक समीक्षा) 

समीक्षक-रमाकांत चौधरी

 


जहाँ एक ओर सब कुछ मोबाइल पर सर्च करने की आदत ने पुस्तकों की ओर से लोगों को उदासीन कर दिया है, वहीं जब कोई अच्छा साहित्य अनायास दिख जाए तो फिर उसे पढ़ने के लिए मन स्वतः ही तत्पर हो जाता है। ऐसी ही पुस्तक है "घरों को ढोते लोग"। इस पुस्तक के शीर्षक ने ही मुझे पढ़ने पर मजबूर कर दिया। यह पुस्तक 65 लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई 71 लघु कथाओं का साझा लघुकथा संग्रह है, जिसमें किसानों, मजदूरों, कामगारों व कामवाली बाई जैसे उस वर्ग की जीवन शैली पर आधारित लघुकथाएं हैं, जो किसी न किसी तरीके से आर्थिक व सामाजिक रूप से असमानता के शिकार रहे हैं या फिर अपने जीवन को ईश्वर की नियति मानकर जी रहे हैं कि शायद उनका जन्म इसीलिए ही हुआ है। पुस्तक में यशोदा भटनागर की लघुकथा 'कम्मो' एक काम वाली बाई की जीवन शैली को दर्शाती है तो अरविंद सोनकर 'असर' की लघुकथा 'इन दिनों' समाज में फैली वैमनस्यता से रूबरू कराती है। वहीं प्रेरणा गुप्ता की लघुकथा 'यक्ष प्रश्न' में मजदूर का बच्चा पढ़ने–लिखने के महत्व को नहीं समझ रहा है जो कि शिक्षा व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है। मार्टिन जान की लिखी संग्रह की शीर्षक लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' व्यक्ति को यह सच सोचने-विचारने पर विवश करती है कि हर कामगार व्यक्ति किसी न किसी तरीके से घर परिवार के पालन-पोषण के लिए संघर्षरत है। इस पुस्तक के संपादक सुरेश सौरभ की लघुकथा 'कैमरे' मनुष्य की तरक्की के साथ इस बात की ओर इशारा करती है कि मनुष्य ने तरक्की तो बहुत कर ली मगर उसमें मनुष्यता का पतन होता जा रहा है। 

    मनोरमा पंत, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल, योगराज प्रभाकर, पवन जैन, रश्मि लहर, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, मीरा जैन, गुलज़ार हुसैन, डॉ. मिथिलेश दीक्षित विजयानंद विजय, आलोक चोपड़ा, हर भगवान चावला, आदि सभी लघुकथाकारों की लघुकथाएं हमें चिंतन चेतना के गहन धरातल पर ले जातीं है और उन विषयों पर सोचने के लिये मजबूर करती है, जिन विषयों पर हम सभी साधारणतया ध्यान ही नहीं देते हैं, लेकिन संपादक सुरेश सौरभ हमें उन विषयों, उन पहलुओं से सीधे जोड़ देते हैं, जिनको हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। चाहे वह रिक्शा वाले, ठेलिया वाले, फल वाले, सब्जी वाले हो अन्य कोई कामगार हों। अर्थात वे लोग जिनका स्थान समाज में बहुत ही निम्न स्तर का माना जाता है, उनके जीवन के प्रति जो लोग तनिक भी संवेदनशील हैं, तो यह पुस्तक वास्तव में उन्हें अवश्य पढ़नी चाहिए। अपने नाम के अनुरूप यह पुस्तक एक गहन भावपूर्ण कृति है, जो जीवन की सच्चाइयों का सामना करने के लिए सबको प्रेरित करती है। जीवन को अलग-अलग पहलुओं से देखने का मौका देती है। प्रत्येक लघुकथाकार की लघुकथा कहीं न कहीं पाठक को कुछ सोचने पर मजबूर करती है। इसलिए मैं उन सभी पाठकों को इस पुस्तक को पढ़ने की सिफारिश करता हूं, जो जीवन की गहराइयों को, सच्चाइयों को समझना चाहते हैं। संपादक सुरेश सौरभ इस लघुकथा के साझा संग्रह में नवीन प्रयोग धर्मी नज़र आते हैं। प्रसिद्ध कहानीकार सुधा जुगरान ने संग्रह की भूमिका लिखी है, जो बेहद मार्मिक और हार्दिक है। 

-0-


पुस्तक : घरों को ढोते लोग , संपादक : सुरेश सौरभ    

प्रकाशक : समृद्ध पब्लिकेशन नई दिल्ली,   

 मूल्य : 245 रुपये

संस्करण-2024


समीक्षक-रमाकान्त चौधरी

गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर–खीरी, उत्तर प्रदेश।

मो-94158 81883

रविवार, 15 सितंबर 2024

लघुकथाओं में वैश्विक मुद्दों की आवश्यकता । भाग 1

नेतराम भारती जी के महती कार्य "लघुकथा: चिंतन और चुनौतियां" में एक प्रश्न

"लघुकथा के ऐसे कौन-से क्षेत्र हैं जिन्हें देखकर आपको लगता है कि अभी भी इनपर और काम करने की आवश्यकता है?

का मेरा उत्तर कुछ इस प्रकार से शुरू हुआ था, 

"विषय। सबसे पहले सामयिक विषयों पर ध्यान देना आवश्यक है। ग्लोबल वॉर्मिंग, पेयजल में हो रही कमी, सड़क सुरक्षा, वित्त या अर्थव्यवस्था सम्बंधित, साइबर सुरक्षा, गामीण विकास, ऑर्गेनिक खेती, सांस्कृतिक परिवर्तन आदि ऐसे विषय हैं, जिन पर लेखन न के बराबर हो रहा है।..."

आगे कुछ और भी था, बहरहाल, कुल मिलाकर मेरा यह विचार है कि लघुकथा में 'उचित सामयिक विषयों' का कुछ तो अभाव है ही। 

अतः कुछ समकालीन वैश्विक चुनौतियाँ, जितनी मुझे समझ है, को आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं।

साथियों,

संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2015 में 2030 तक के लिए 17 लक्ष्य रखे हैं। ये सभी मानवता और धरती के समक्ष सबसे बड़ी वैश्विक चुनौतियां हैं और इन सभी पर रचनाकर्म करना साहित्यकारों का दायित्व है। 

हमारी धरती की रक्षा करने और सभी के लिए समृद्धि व कल्याण सुनिश्चित करने के लिए ये 17 एसडीजी (सतत विकास लक्ष्य Sustainable Development Goals) एक सार्वभौमिक आह्वान है। आप इन पर कार्य कर सकते हैं, ये सभी ज्वलंत वैश्विक मुद्दे हैं।

पहला लक्ष्य है गरीबी उन्मूलन:

2030 तक हर जगह फैली गरीबी को समाप्त करना।

दूसरा है शून्य भूख:

कोई भूखा न रहे, खाद्य सुरक्षा मिले, उचित पोषण प्राप्त हो और आर्गेनिक कृषि हो।

3, बेहतर स्वास्थ्य:

सभी आयु के लोगों के लिए स्वस्थ जीवन सुनिश्चित हो।

4, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा:

समावेशी, समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित हो और सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसर हों।

5, लैंगिक समानता:

हर स्थान पर लैंगिक समानता हो और सभी ओर महिला सशक्तिकरण हो।

6, स्वच्छ जल और स्वच्छता:

सभी के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता और जल का सही और सस्टेनेबल मैनेजमेंट सुनिश्चित हो।

7, सस्ती और टिकाऊ ऊर्जा:

सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक सभी पहुँच सुनिश्चित हो।

8, रोजगार और आर्थिक विकास:

सभी के लिए सतत, समावेशी आर्थिक विकास, पूर्ण और उत्पादक रोजगार के साथ प्राप्त हो।

9, उद्योग, नवाचार और इंफ्रास्ट्रक्चर:

फ्लेक्सिबल इंफ्रास्ट्रक्चर हो, टिकाऊ औद्योगिकीकरण को बढ़ावा दें और नवाचार को बढ़ावा मिले।

10, असमानता में कमी:

सभी देशों के भीतर और उनके बीच असमानता ना हो, चाहे वह आर्थिक दृष्टि से हो, सामाजिक या अन्य कोई भी।

11, स्थायी व सुरक्षित शहर:

शहरों का निर्माण ऐसा हो जो समावेशी, सुरक्षित, लचीला और टिकाऊ हो। हमारे यहाँ स्मार्ट सिटी की अवधारणा है।

12, दायित्वपूर्ण उत्पादन और उपभोग:

उत्पादन के अनुसार उपभोग दायित्व पूर्ण हो और उपभोग के अनुसार उत्पादन।

13, जलवायु:

जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों से निपटने के लिए तत्काल कार्यवाहियों की आवश्यकता है।

14, पानी के नीचे जीवन:

महासागरों, समुद्रों और समुद्री संसाधनों, जीवों का संरक्षण करते हुए उनका उपयोग करें।

15, भूमि पर जीवन:

धरती की पारिस्थितिकी प्रणालियों के सरंक्षण, पुनर्स्थापना को बढ़ावा मिले, वनों का उचित प्रबंधन हो, मरुस्थलीकरण से लड़ें और जैव विविधता की हानि को रोका जाए।

16, शांति, न्याय और सशक्त संस्थान:

शांतिपूर्ण और समावेशी समाजों को बढ़ावा मिले, सभी के लिए न्याय तक पहुँच हो और प्रभावी, जवाबदेह संस्थानों का निर्माण हो।

17, लक्ष्यों के लिए भागीदारी:

कार्यान्वयन के साधनों को मजबूत करना और सतत विकास के लिए वैश्विक भागीदारी को पुनर्जीवित करना। 

मित्रों,

एसडीजी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे आज हमारी पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाले कुछ सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित कर रहे हैं। 

इनके अतिरिक्त आप प्रदूषण, सड़क सुरक्षा, युद्ध, साइबर क्राइम, जैसे अन्य मुद्दों पर भी कार्य कर सकते हैं। लघुकथाकार होते हुए अपने साहित्यकार होने के दायित्व का निर्वहन ज़रूर करें।

सादर, 

चंद्रेश कुमार छतलानी

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । समीक्षक- देवेन्द्रराज सुथार

श्रमजीवी वर्ग की व्यथा-कथा लेकर आये सौरभ   (पुस्तक समीक्षा) 


 साहित्य समाज का आईना होता है और कई बार यह आईना हमें वह चेहरे दिखाता है, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं या जो हमारी  चेतना में नहीं होते। सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह 'घरों को ढोते लोग' समाज के उन तबकों पर केंद्रित है, जो हमारे दैनिक जीवन को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई 71 लघुकथाओं का बेहतरीन गुलदस्ता है, जिसमें प्रत्येक लघुकथाकार ने अपने अनूठे नज़रिए से मज़दूरों, किसानों, मेहनतकशों व  कामवाली बाइयों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को मार्मिक ढंग से उजागर किया है। इन लघुकथाओं में रोज़मर्रा के संघर्षों, आर्थिक चुनौतियों, सामाजिक असमानता और मानवीय संवेदनाओं को बहुत ही बारीकी से दर्शाया गया है।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'जहर' एक रिक्शाचालक के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती है कि कैसे समाज का ढाँचा, किस प्रकार किसी व्यक्ति को कभी-कभी अपराध की ओर धकेल देता है। मुख्य पात्र 'सईद' अपने बीमार बच्चे के लिए दवा खरीदने की मजबूरी में अपने मालिक से भिड़ जाता है, जो उसकी मजबूरी का फायदा उठाना चाहता है। मार्टिन जॉन की लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' (जिसे पुस्तक का शीर्षक बनाया गया है) एक छोटी बच्ची के मार्फ़त मजदूरों के जीवन की कठोर वास्तविकता को, सच्चाई को प्रस्तुत करती है। पुस्तक में शामिल लघुकथाएँ भारतीय समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और सामाजिक भेदभाव को स्पष्ट रूप से उजागर करने में सफल रही हैं। 

डॉ. प्रदीप उपाध्याय की लघुकथा 'बस इतनी गारंटी' खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को प्रकट करती है। शराफत अली खान की लघुकथा 'कमाई' समाज में व्याप्त असमानता और विडम्बनाओं को दर्शाती है तथा समाज में व्याप्त नैतिक मूल्यों के क्षरण की ओर भी इशारा करती है। नीरू मित्तल 'नीर' की लघुकथा 'एक माँ की मजबूरी' गरीब वर्ग की महिलाओं की स्थिति को उजागर करती है। यह लघुकथा बताती है कि गरीबी और अशिक्षा किस तरह युवा लड़कियों के भविष्य को प्रभावित कर सकती है। यह न केवल बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों की ओर इशारा करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे गरीबी महिलाओं को अपने बच्चों के भविष्य के बारे में कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर कर देती है।

पुस्तक में केवल निराशा और दुख की ही रचनाएं नहीं है, कई लघुकथाओं में गहरी मानवीय संवेदना और आशावाद की झलक भी दिखाई देती है। डॉ. अलका अग्रवाल की लघुकथा 'चरैवेति, चरैवेति' एक रिक्शाचालक की जीवंतता और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती है। संतोष सुपेकर की लघुकथा 'मजबूर और मजबूत' श्रमिक वर्ग की अदम्य इच्छाशक्ति को दर्शाती है। सेवा सदन प्रसाद की लघुकथा 'भूख', कोरोना महामारी के दौरान मजदूरों की दुर्दशा को चित्रित करती है। कैसे भूख और बेरोजगारी लोगों को जोखिम भरे निर्णय लेने पर मजबूर कर सकती है। आपदा के समय में समाज के सबसे कमजोर वर्ग को सबसे अधिक कष्ट झेलना पड़ता है, भूख लघुकथा से पता चलता है। 

 सुकेश साहनी, योगराज प्रभाकर, मनोरमा पंत, अविनाश अग्निहोत्री, बलराम अग्रवाल, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, नीना मंदिलवार, आलोक चोपड़ा, प्रो. रणजोध सिंह, डॉ.मिथिलेश दीक्षित, कल्पना भट्ट, अरविंद सोनकर, रश्मि लहर, गुलज़ार हुसैन, सुरेश सौरभ , रशीद गौरी, आदि लघुकथाकारों ने अपनी बेहतरीन लघुकथाओं से संग्रह को पठनीय और संग्रहणीय बनाया है। वरिष्ठ कथाकार सुधा जुगरान ने संग्रह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका जोड़ कर संग्रह को साहित्यिक हलकों में विमर्श का हिस्सा बना दिया है। 

संग्रह की भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो इसे व्यापक पाठक वर्ग के लिए सुलभ बनाती है। लेखक जटिल सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को सरल कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने में सफल रहें हैं। लघुकथाएँ संग्रह के विषय से अनुकूल और सार्थक हैं। 'घरों को ढोते लोग' एक ऐसा लघुकथा संग्रह है, जो न केवल पठनीय है, बल्कि समाज के प्रति हमारी समझ को, संवेदना को गहरा और विस्तृत करने में भी सहायक सिद्ध होगा। संपादक ने इन लघुकथाओं को एक साथ संकलित करके महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने समाज के एक ऐसे वर्ग की आवाज़ को मुखर किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रह जाती है। यह संग्रह केवल एक पुस्तक नहीं है; यह एक वह आईना है, जो हमें हमारे समाज का एक ऐसा चेहरा दिखाता है जिसे हम अक्सर देखने से कतराते हैं। सच्चा विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक समाज का हर वर्ग सम्मान और समानता के साथ न जिये। लिहाजा यह एक ऐसी कृति है जो न केवल पढ़ी जानी चाहिए, बल्कि जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। मंथन किया जाना चाहिए।

-0-


पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक: सुरेश सौरभ (मो-7860600355) 

मूल्य: ₹245 (पेपरबैक)

प्रकाशन: समृद्ध पब्लिकेशन शाहदरा, दिल्ली

प्रकाशन वर्ष-2024

समीक्षक-

देवेन्द्रराज सुथार

 पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। 343025

मोबाइल नंबर- 8107177196